मनुस्मृति पर जातिवादी होने के आरोप की समीक्षा
अध्याय 3
महर्षि मनु ने मनुष्य के मूल स्वभाव का अध्ययन कर उसके आधार पर अपनी मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था का प्रतिपादन किया । यद्यपि मनु से पूर्व वेदों में वर्ण व्यवस्था का उल्लेख है । मनु ने वेदों का अध्ययन कर उनकी वर्ण व्यवस्था का निष्कर्ष सार रूप में निकालकर जो कुछ हमारे समक्ष प्रस्तुत किया , वह सचमुच इस महामनीषी की मानवता के प्रति बहुत बड़ी सेवा थी । मनु के मनुष्यों की मूल प्रवृत्तियों के आधार पर समाज व्यवस्था और श्रम के विभाजन का सिद्धांत न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी अच्छे-अच्छे विद्वानों के द्वारा सराहा गया है । ऐसे में उचित यही होता कि हम भी मनु की उन सारी बातों को स्वीकार करते जो आज के समाज के लिए अनिवार्य और उचित हैं । हमें चाहिए था कि मनुस्मृति में आए उन प्रक्षिप्त श्लोकों को सावधानी से छाँट लेते जो मनु के विचारों के अनुकूल नहीं हैं या जिन्हें स्वार्थ सिद्धि के लिए कुछ लोगों ने उनकी मृत्यु के युगों बाद इस ग्रंथ में सम्मिलित किया । इन सब बातों का ध्यान न रखकर हमारे देश में मनु के आलोचकों ने मनु की आलोचना करना ही उचित समझा है ।
” डॉक्टर केवल मोटवानी ने मनुस्मृति की विस्तृत विवेचना ‘ मानव धर्म शास्त्र ‘ ( पृष्ठ 105 – 325 ) के माध्यम से यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि आर्यों और राजर्षि मनु का सुदूर पूर्व चीन , जापान , फिलीपींस द्वीप , ऑस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड आदि देशों में क्या प्रभाव है तथा सिंधु घाटी सभ्यता भारत के अतिरिक्त ईरान , सुमेरिया ,मिश्र , क्रीट , बेबीलोनिया (इराक ) असीरिया , ग्रीस , रोम , यूरोप , साइबेरिया ( रूस ) तुर्किस्तान स्कैंडिनेविया, स्लोवनिक ,गौलिक , और ट्यूटॉनिक देशों में भी उनका प्रभाव क्या और किस रूप में दिखाई देता है ? – इसके अतिरिक्त पूर्वी और दक्षिणी एशिया के देश जापान , चीन , स्याम , मलेशिया , चंबा , कंबोडिया , इंडोनेशिया , बाली , श्रीलंका ,सिंहलद्वीप में बसी हुई आदिम जातियों में आचार – विचार , एवं व्यवहार द्वारा उपदिष्ट नियमों से मिले दिखाई देते हैं । वस्तुतः मनु के दूरगामी प्रभाव को और अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। “( मनु अंबेडकर और जाति व्यवस्था : पृष्ठ 14 )
संसार के इतने बड़े भूभाग पर सम्मान प्राप्त करने वाले महर्षि मनु की हमारे देश में उनके आलोचकों के द्वारा निम्नलिखित तीन बिंदुओं पर आलोचना की जाती है:–
1. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया ।
2. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति विशेष रूप से ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे ।
3. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था | उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया ।
पहले हम महर्षि मनु के सम्बन्ध में इस बिंदु पर ही अपने विचार रखेंगे कि मनु ने जन्म के आधार पर जाति प्रथा का निर्माण किया है या नहीं , या फिर उनके आलोचकों की इस प्रकार की आलोचना में कोई बल नहीं है ?
हमारे देश के वैदिक विद्वान ने समय-समय पर प्रत्येक शब्द की वैज्ञानिक व्याख्या की है , और उसको वैज्ञानिक ही परिभाषा भी दी है। जहां तक जाति शब्द का प्रश्न है तो इस शब्द के बारे में भी महर्षि गौतम ने बहुत सुंदर व्यवस्था की है ।उनके अनुसार न्याय दर्शन में यह स्पष्ट किया गया है कि – ” समान प्रसवात्मिका जाति । ” उन्होंने कहा है कि — ” जिनके जन्म लेने की विधि एवं प्रसव एक समान हो , वह सब एक जाति के होते हैं । ” यदि महर्षि गौतम की इस परिभाषा पर विचार करें तो संपूर्ण मानव जाति एक है । इसमें विभिन्न जातियों का होना या मानव समुदाय को विभिन्न जातियों में विभाजित करके देखना मनुष्यों की मूर्खता हो सकती है , अज्ञानता हो सकती है , इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं । इस परिभाषा के अनुसार हमें इस भूमंडल पर जितने प्राणी दिखाई देते हैं , उन सबकी अलग-अलग जातियां उनके गर्भाधान और प्रसव की समानता या असमानता के आधार पर करनी चाहिए । जैसे सभी हाथियों की जाति एक है । वैसे ही भैंस या गाय , घोड़ा आदि अपनी -अपनी योनियों की अलग-अलग जातियों के प्राणि हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य समाज के भीतर विभिन्न जातियों का अस्तित्व देखना अज्ञानता ही है।
आज के वैज्ञानिक जगत में भी मनुष्य मात्र को एक ही जाति का माना जाने लगा है। जैन आचार्य महाप्रज्ञ भी कहते हैं कि — ‘ जाति सामाजिक व्यवस्था है । वह तात्विक वस्तु नहीं । शूद्र और ब्राह्मण में रंग और आकृति का भेद नहीं जान पड़ता । दोनों की गर्भाधान विधि और जन्म पद्धति भी एक है । गाय और भैंस में जैसे जातिकृत भेद हैं वैसे शूद्र और ब्राह्मण में नहीं। इसलिए मनुष्य मनुष्य के बीच जो जाति का भेद है , वह परिकल्पित है ।’ (जैन दर्शन मनन और मीमांसा )क्या है वेद का दृष्टिकोण
इस विषय में वेद का मत भी बड़ा स्पष्ट है कि:—
यथेमाम वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: ।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।
(यजुर्वेद 26/ 2 )
यजुर्वेद का ऋषि कह रहा है कि — ” जिस प्रकार मैं इस कल्याणी वाणी वेद को मनुष्य मात्र को देता हूं , इसी प्रकार तुम भी ब्राह्मण , क्षत्रिय , शूद्र अपने निकटस्थ संबंधियों और अति शूद्रों को भी इस कल्याणी वाणी का उपदेश करो । जिससे कि मनुष्य मात्र का कल्याण हो सके । ”
यहां पर वेद किसी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष के लिए नहीं कह रहा है , अपितु क्योंकि वेद की दृष्टि में मनुष्य मात्र की एक ही जाति है , इसलिए वह अपनी कल्याणी वाणी को मनुष्य मात्र को दे रहा है, उसमें शूद्र भी समाहित है । वेद द्विजों को आदेश कर रहा है ,( द्विज अर्थात जिनका वेद अध्ययन के माध्यम से दूसरा जन्म हो चुका है, अर्थात जो मनुष्य बन चुके हैं ) कि तुम अति शूद्र को भी कल्याणी वाणी वेद का रसास्वादन कराओ , जिससे उनके जीवन का भी कल्याण हो सके। शिक्षा और संस्कार भारत की संस्कृति में साथ – साथ चलते हैं । शिक्षा और संस्कार से ही मनुष्य मनुष्य बनकर देवत्व की साधना करने में सफल होता है । वर्तमान शिक्षा प्रणाली का सबसे भयंकर दोष यह है कि यह शिक्षा को रोजगार से तो जोड़ती है , परंतु संस्कार से नहीं जोड़ती , यही कारण है कि वर्तमान समाज में सर्वत्र कोलाहल है ,अशांति और कलह है । यही कारण है कि हमारे वेद का ऋषि कह रहा है कि मनुष्य को मनुष्य बना कर उसे देवत्व की साधना में लीन करने के लिए समाज के जागरूक , जिम्मेदार और समझदार लोग (जिन्हें वेद ने द्विज कहा है ) उन लोगों को भी अपने साथ जोड़ने का काम करें जो शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में किसी भी कारण से पीछे रह गये हैं । शिक्षा और संस्कार के क्षेत्र में पीछे रह जाना ही मनुष्य का मनुष्य न बनना है । जबकि शिक्षा और संस्कार को हृदयंगम कर लेना अर्थात उसे आचरण में उतार लेना ही मनुष्य बन जाना है ।इसका अभिप्राय है कि वेद मनुष्य के शारीरिक , सामाजिक और आत्मिक विकास का समर्थक है । वह किसी भी वर्ग या समुदाय को पीछे छोड़ने का समर्थन नहीं करता , अत: वह शूद्रों को भी साथ लेकर चलने का स्पष्ट निर्देश कर रहा है । इसी को वेद ने अपने शब्दों में मानव का विकास है । मानव का विकास सड़क , बिजली ,पानी ,अस्पताल आदि की व्यवस्था हो जाना नहीं है । वेद की शैली में तो मनुष्य का मनुष्यत्व को प्राप्त कर लेना ही उसका वास्तविक विकास है । सड़क आदि की व्यवस्थाएं तो बाद की हैं । पहले आत्मविकास आवश्यक है , जो व्यक्ति इस आत्मविकास की पराकाष्ठा से वंचित रह गया , वह मनुष्य होकर भी वेद की भाषा में मनुष्य नहीं है।
मनु के आलोचकों ने बड़ी चालाकी से उन तथाकथित प्रगतिशील मजहबों को संपूर्ण मानवता का हितचिंतक स्वीकार किया है जो अपने मजहब से विपरीत मजहब के मानने वालों को कत्ल करने की शिक्षा देते हैं । बड़ा ही दुख होता है जब उन लोगों की हिंदुत्व के प्रति या वैदिक संस्कृति के प्रति ऐसी दोगली , पक्षपातपूर्ण और अन्यायपरक बुद्धि पर विचार किया जाता है । क्योंकि एक तरफ मनुष्यत्व से देवत्व की साधना कराने वाले वैदिक धर्म को तो यह रूढ़िवादी धर्म कहते हैं और अपने से विपरीत मत रखने वाले या पूजा उपासना की पद्धति को अपनाने वाले या विपरीत मजहब को मानने वालों का कत्ल करने की बात करने वालों को यह प्रगतिशील और मानवतावादी कहकर महिमामंडित करते हैं । इन लोगों का ही षड्यंत्र है कि भारत को किसी भी प्रकार से जातिवादी व्यवस्था में जकड़ कर समाप्त किया जाए । यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हमारे ही बीच से कुछ लोग उनके समर्थन में निकलते हैं और ‘ वैदिक धर्म मुर्दाबाद ‘ के नारे लगाते हैं , या मनुस्मृति का विरोध करते – करते इस पुस्तक को जलाने का प्रयास करते हैं।
वेद इसीलिए धर्म ग्रंथ की श्रेणी में आता है कि वह मनुष्य मनुष्य के बीच में किसी प्रकार का पक्षपात या भेदभाव नहीं करता । वेद ऊंच-नीच का समर्थक नहीं है। हां , वह वर्ण व्यवस्था का समर्थन अवश्य करता है। क्योंकि वह मनुष्य की प्रतिभाओं को अलग-अलग वर्णों में समाहित करके देखने का वैज्ञानिक , तार्किक और बौद्धिक प्रयास करता है । वेद के इसी आदर्श को अपना कर आज भी सारे संसार में नौकरियों आदि का विभाजन इसी आधार पर किया जाता है। परंतु इसके उपरांत भी भारत में इस ग्रंथ की आलोचना हो रही है।
मनुस्मृति और जाति व्यवस्था
मनुस्मृति का जिस समय निर्माण हुआ उस समय जाति व्यवस्था का कोई प्रावधान भारतवर्ष में नहीं था । स्पष्ट शब्दों में कहें तो सच यह है कि जिस समय मनुस्मृति का निर्माण हुआ उस समय जातियां अस्तित्व में ही नहीं थीं । यही कारण है कि मनुस्मृति जाति व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती । इसके विपरीत मनुस्मृति में मनुष्य के गुण , कर्म स्वभाव का चिंतन किया गया है , और उसी के आधार पर समाज की व्यवस्था करने का प्रयास किया गया है । ऐसा ही वेदों ने परमात्मा के द्वारा किए गए आदेश को अपने भीतर समाहित कर मनुष्य को निर्देशित करने का प्रयास किया है । जिससे कि मनुष्य समाज में समरसता बनी रहे और मनुष्य मनुष्य के काम आने की भावना से सदा ओतप्रोत रहे । ( प्रमाण रूप में ऋग्वेद 10 /10 / 11 – 12 , यजुर्वेद 31/ 10 – 11 अथर्ववेद 19 / 6. 5 – 6)
इसी को वेद की वर्ण व्यवस्था कहा जाता है। वर्ण का अभिप्राय होता है चुनना अर्थात अपने लिए कोई भी ऐसी आजीविका चुन लेना जो हमारे जीवनयापन का आधार बनेगी । मनुष्य या तो ज्ञान आदि बांटने का कार्य कर ब्राह्मण के कार्यों को निष्पादित कर सकता है , या फिर क्षत्रिय बनकर देश सेवा के कार्यों में लग सकता है , या फिर पशुपालन , कृषि आदि के माध्यम से समाज के लिए उपयोगी हो सकता है , या फिर सेवा आदि कर अपना जीवन यापन कर सकता है। उसकी जैसी भी प्रतिभा हो वैसा ही वह अपने लिए जब आजीविका का साधन चुन लेता है तो वह उसी वर्ण का हो जाता है।
मनुस्मृति में इसी वर्ण व्यवस्था की वकालत करते हुए मनु महाराज कहीं पर भी जाति या गोत्र की बात नहीं करते । मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में जहां पर वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है वहाँ कहीं पर भी जाति या गोत्र की बात नहीं कही गई है। यदि मनु जाति प्रथा के समर्थक होते तो निश्चित ही मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में ही जाति और गोत्र की बात कर देते । यह बहुत अच्छी बात रही है कि जिन लोगों ने प्रक्षिप्त श्लोक मनुस्मृति में डाले हैं , उन्होंने भी मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के साथ उतनी छेड़छाड़ नहीं की , जितनी उनके द्वारा अपेक्षित थी । इसका अधिकांश भाग हमें मौलिक रूप में यथावत मिल जाता है। जिससे हमें लेखक के प्रतिपाद्य विषय का भली प्रकार ज्ञान हो जाता है । अब जो लोग भारतवर्ष में स्वयं को ऊंची जाति का कहते हैं , उनकी जाति या गोत्र का मनुस्मृति में उल्लेख न होने के कारण उनके ऊंची जाति का होने की पोल खुल जाती है । क्योंकि यदि वह ऊंची जाति के होते तो इस अध्याय में निश्चय ही उनकी जाति और उनके गोत्र का उल्लेख मनु महाराज करते , लेकिन उनके द्वारा ऐसा नहीं किया गया है । अतः स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था भारतवर्ष में मनुस्मृति के युगों बाद स्थापित की गई।
मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए | इतनी स्पष्ट व्यवस्था के होने के उपरांत भी जो लोग मनुस्मृति को अपना आधार बनाकर स्वयं को ऊंची जाति का होने का अभिमान करते हैं , वह समाज के भले लोगों का मूर्ख बना रहे हैं , और अनावश्यक रूप से मनुस्मृति जैसे धर्मशास्त्र को अपयश का भागी बनाने का कार्य कर रहे हैं । अतः ऐसे लोगों का समाज में तिरस्कार होना अपेक्षित है ।
मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान के उत्तरोत्तर मानदंड हैं | यदि मनु महाराज जातिवाद के समर्थक होते और जातीय आधार पर किसी व्यक्ति को सम्मानित करने कराने के पक्षपाती होते तो निश्चय ही इन पांच बिंदुओं में वह ऊंची जाति के लोगों का भी वर्णन करते और स्पष्ट कहते कि ऊंची जाति का होने से भी व्यक्ति को समाज में सम्मान मिलता है ।
वर्णों में परिवर्तन :
जिस मनुस्मृति पर जातिवाद की व्यवस्था को लागू करने का आरोप उसके आलोचक लगाते हैं और यह मानते हैं कि आज के जातिवाद के कड़े बंधन मनु की वर्णवादी व्यवस्था का प्रतिफल हैं या उसी का वर्तमान स्वरूप हैं । ऐसे आलोचकों को यह नहीं पता कि मनु महाराज ने वर्ण परिवर्तन की भी छूट दी थी । उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि संस्कारों से व्यक्ति द्विज बनता है और यदि संस्कारों का परित्याग द्विज बनने के पश्चात भी कर देता है तो वह फिर से शूद्र बन सकता है ।
इस प्रकार मनु महाराज की व्यवस्था में शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण अपने दुष्ट कर्मों के चलते शूद्र बन सकता है। यही प्रक्रिया स्वभाविक भी है। वर्तमान वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी इसी बात का पोषक है कि यदि कोई व्यक्ति बहुत सद्गुणी होकर भी निकृष्ट कार्य करता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा ही जाना चाहिए और यदि कोई छोटे कुल में उत्पन्न होकर बड़े और श्रेष्ठ कार्य करता है तो उसे सम्मानपूर्ण स्थान देकर सम्मानपूर्ण दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए।
मनुस्मृति 10/ 65 में व्यवस्था है कि ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है । इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य जन भी अपने वर्ण परिवर्तित कर सकते हैं ।
मनुस्मृति 9/ 335 में कहा गया है कि शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है ।
मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है ।