अध्याय 2
डॉक्टर सुरेंद्र कुमार अपनी पुस्तक मनु का विरोध क्यों के पृष्ठ 5 पर लिखते हैं कि मनु की प्रतिष्ठा गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा है। ब्रिटेन ,अमेरिका ,जर्मन से प्रकाशित एनसाइक्लोपीडिया में मनु को मानव जाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधि प्रणेता, आदि न्याय शास्त्री और आदि समाज व्यवस्थापक वर्णन किया है। मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए ए मैकडोनल, एबी कीथ, थामस, लुई सरेनो आदि पाश्चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक लॉ बुक भी माना है, और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सब के लिए कल्याणकारी बताया है । भारत के सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन जज सर विलियम जोंस ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढ़कर उसका संपादन किया। जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक फ्रीडरिष नीत्से ने तो यहां तक कहा कि मनुस्मृति बाइबिल से उत्तम ग्रंथ है , बल्कि उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है। अमेरिका से प्रकाशित इनसाइक्लोपीडिया ऑफ द सोशल साइंस, कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया, कीथ रचित ‘हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेच’ भारत रत्न पी वी काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’, डॉक्टर सत्यकेतु रचित’ दक्षिण पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढ़कर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता है।
क्या महर्षि मनु शुद्र विरोधी थे ?
जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो जिन लोगों ने एक षड्यंत्र के अंतर्गत इस महामनीषी को शूद्र विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया है उनकी बुद्धि पर तरस आता है । वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु शुद्र विरोधी न होकर उनके सबसे बड़े संरक्षक है । यह महर्षि मनु ही थे जो किसी भी प्रकार से समाज के किसी भी वर्ग के शोषण के विरुद्ध थे । उन्होंने ऐसी व्यवस्था की कि जो विकास के अंतिम पायदान पर व्यक्ति खड़ा है वह भी वहां से उठकर अग्रिम पंक्ति में आ करके बैठ सके और न केवल अग्रिम पंक्ति में आ करके बैठ सके , अपितु सम्मान के सर्वोच्च शिखर तक भी पहुंच सके । ऐसी व्यवस्था ही वास्तव में लोकतांत्रिक व्यवस्था होती है , जबकि आज जो लोग महर्षि मनु को शूद्र विरोधी सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं ,उन्होंने स्वयं ने ही अपने ही शूद्र भाइयों के या तथाकथित दलित भाइयों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर आगे अपने आप बैठ गए हैं ,और पीछे से आगे उठकर आने के इन सभी शूद्र या दलित भाइयों के रास्ते बंद कर दिए हैं । यह दलितों और सूत्रों के नाम पर राजनीति करना तो सीख गए हैं परंतु उनका विकास कैसे हो और कैसे वह सम्मान के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचे इस पर इनके पास ना कोई कार्ययोजना है ना कोई रूपरेखा है यही कारण है कि आरक्षण के आधार पर कुछ लोगों को लंगड़ी लूली सफलता दिलाने का प्रयास तो इस देश में किया गया है , परंतु वास्तव में वह सम्मानजनक ढंग से किसी उच्च पद पर विराजमान हो सके ऐसी व्यवस्था करने में वर्तमान सारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों ही असफल रही हैं ।
भारतवर्ष में वर्तमान में जितनी भी सामाजिक विषमताएं , विसंगतियां या समस्याएं हैं उन सबमें सबसे अधिक भयंकर जन्मना जातिवाद और लिंगभेद की समस्या है। जब जन्मना जाति या लिंगभेद की व्यवस्था पर इस देश में विचार किया जाता है या विचार गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है तो उनमें सामान्यतः कुछ अतिवादी लोग अतिवाद का परिचय देते हुए इस सारी व्यवस्था के लिए एक अकेले मनु को दोषी ठहरा देते हैं। यह वही लोग होते हैं जिन्होंने मनुस्मृति का न तो अध्ययन किया होता है और ना ही उसके गंभीर चिंतन से इनका कोई किसी प्रकार का परिचय होता है, लेकिन हिंदुत्व ,हिंदूवाद और हिंदू संस्कृति या वैदिक संस्कृति को अपमानित करने में ही इस देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता जीवित रह सकती है , इसलिए उसकी पैरोकारी करते हुए जो भी ऐसा बोल जाता है , उसी के लिए तालियां बज जाती हैं। बस ,तालियां बजवाने का यह व्यामोह ही लोगों को ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है । मनु विरोध के लिए कुछ रटी रटाई बातें इस देश में है , जो प्रचलित हो रही हैं और जो भी मनु का विरोध करता है बस उन्हीं बातों को बोलने में वह अपना भला समझ लेता है। इससे अलग उनका ज्ञान विस्तार नहीं ले पाता क्योंकि उनके पास चिंतन शक्ति ऐसी है ही नहीं कि जो मनु को उस परीक्षित, समीक्षित और निरीक्षित कर सके।
मनु के विषय में अधकचरा ज्ञान होने के कारण और मनु की दी गई व्यवस्था से अन्यथा कोई नई ऐसी व्यवस्था लागू करने में अपने आप को अक्षम पाने के कारण यह मनु विरोधी लोग आज तक कोई ऐसी व्यवस्था नहीं दे पाए जो मनु की वर्ण व्यवस्था से उत्तम सिद्ध हो सके या वर्तमान समाज को जातिविहीन समाज में परिवर्तित करने में अपने आप को सफल कर सके । यह जातिविहीन समाज की परिकल्पना तो करते हैं , परंतु उस परिकल्पना को साकार कैसे किया जाएगा? ऐसी कोई परिकल्पना या कोई चिंतन या कोई कार्ययोजना की रूपरेखा इनके पास नहीं है । फलस्वरूप यह लोग केवल मनु को गाली देते – देते मनु समर्थकों को गाली देने पर उतर आते हैं , और समाज में वर्ग संघर्ष की भावना को जन्म देने का प्रयास करते हुए अपने आप को दलित समर्थक और दूसरों को दलित विरोधी सिद्ध करने का ऐसा कार्य करते हैं जिससे समाज में आग लगने की स्थिति उत्पन्न हो जाए । जबकि आग लगाने का चिंतन न तो मनु महाराज के पास था और नहीं आधुनिक काल में उत्पन्न हुए डॉ अंबेडकर का चिंतन ही ऐसा था । यह दोनों ही महापुरुष जातिविहीन समाज की संरचना के समर्थक रहे हैं , और हमारा संविधान भी यही चाहता है।
हमारे संविधान को बनाने में लगभग 300 लोगों का मस्तिष्क प्रयुक्त हुआ था। हमारी संविधान सभा का निर्माण 289 सदस्यों से हुआ था । यह हमारे लिए हर्ष का विषय है कि यह सारे के सारे लोग भारत में जातिवाद को समाप्त कर जातिविहीन समाज की संरचना के समर्थक थे । तभी तो उन्होंने हमारे संविधान की मूल चेतना का विषय जातिविहीन समाज की संरचना को बताया । वह समतामूलक समाज की संरचना चाहते थे, इसलिए उनके प्रयास को भी हमें कम करके नहीं आंकना चाहिए। डॉ अंबेडकर केवल संविधान निर्मात्री सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। यदि यह सारे लोग नहीं चाहते तो डॉक्टर अंबेडकर ऐसा कोई प्रावधान इस संविधान में न डाल पाते जो समतामूलक समाज की संरचना को प्रोत्साहित करने वाला होता। जब महर्षि मनु, डॉक्टर अंबेडकर, हमारी संविधान सभा और हमारे वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व की सबकी इच्छा एक है कि भारतवर्ष में हम जातिविहीन समाज की संरचना कर समतामूलक समाज बनाएंगे तो लड़ाई किसी अन्य बात पर न होकर लड़ाई इस बात के लिए होनी चाहिए और सामूहिक चेतना को झंकृत करते हुए होनी चाहिए कि हम जाति विहीन समाज की संरचना करेंगे।
आज भी इस देश में ऐसे बहुत लोग हैं जो तथाकथित अगड़ी जातियों में जन्म लेकर भी जातिविहीन समाज की संरचना के समर्थक हैं । वह ऊंच-नीच पक्षपात आदि के विरोधी हैं। उनकी शक्ति को साथ लगा कर हमें इस दिशा में कार्य करना चाहिए , परंतु कुछ मनु विरोधी लोग दो गुटों में समाज को बांटते जा रहे हैं। एक को वह मनुवादी ताकतें कहकर संबोधित करते हैं तो दूसरे को मनु विरोधी शक्तियां कहकर संबोधित करते हैं , इसलिए ऐसी परिस्थितियों में जो तटस्थ भाव रखकर समाज में सुधारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले लोग हैं उन्हें भी विवशतावश उस खेमे मे जाकर बैठना पड़ रहा है जिसे यह लोग मनुवादी शक्तियों के नाम से संबोधित करते हैं।
ब्राह्मणवादी व्यवस्था और मनु
जो लोग आज भी अपने आप को किसी जाति विशेष या कुल विशेष में जन्म लेने के कारण ऊंचा समझते हैं, वह समाज की चेतना के शत्रु हैं। जिन लोगों के भीतर यह भाव विकसित कर दिया गया है कि वह किसी कुल विशेष या जाति विशेष में जन्म लेने के कारण हेय दृष्टि के योग्य हैं, उनका जीवन नर्क बनाने में ऐसे लोगों का विशेष योगदान रहा है। हम ऐसे लोगों की यहां पर तरफदारी नहीं कर रहे हैं , परंतु हम यह भी नहीं मानते कि इस सारी व्यवस्था के लिए मनु दोषी हैं। जो लोग स्वयं को मनुस्मृति के किन्हीं विशेष प्रावधानों का उल्लेख कर समाज में सम्मानित स्थान पर रखने में सफल हुए हैं या उसी स्थान पर अपने आप को बनाए रखने की योजनाओं में लगे हुए हैं , उन्होंने अतीत से कोई शिक्षा नहीं ली है। साथ ही उन्हें यह भी ज्ञात नहीं है कि मनु ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की कि कोई व्यक्ति किसी कुल विशेष या जाति विशेष में जन्म लेकर सदा ही उस सम्मानित स्थान पर बैठा रहे जो समाज में उच्चता को जन्म देता हो। ऐसे लोगों के हाथों में मनुस्मृति की व्याख्या जाने का कुपरिणाम यह हुआ कि इन्होंने इस पवित्र ग्रंथ की मनमानी व्याख्या की और इसमें प्रक्षिप्त श्लोक डाल कर अपने आप को पीढ़ियों के लिए ऊंचे आसन पर बैठा लिया।
किसी भी समाज में जब ऐसी स्थिति आ जाती है कि शिक्षा पर विशिष्ट लोगों का अधिकार हो जाता है तो उस समय वह वर्ग अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए ऐसी व्यवस्थाएं कर लिया करता है। ऐसा केवल भारत में ही नहीं हुआ है, अपितु संसार के सभी क्षेत्रों में ऐसा हुआ है। जहां पर कुछ लोगों ने अपने हाथ में आई शक्ति का दुरुपयोग कर अपने आप को उच्च स्थान पर बैठाया और समाज के शेष लोगों का शोषण करने में लग गए। भारत में जब ऐसी व्यवस्था आई तो इस व्यवस्था को ब्राह्मणवादी व्यवस्था कहा जाना आरंभ हुआ। वास्तव में यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही वह व्यवस्था है जो मनु को अपयश का पात्र बनाती है , क्योंकि इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने मनु के बहुत ही पवित्र विचारों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करना आरंभ किया या उसकी मनु स्मृति में ऐसे श्लोक डाल दिया जो इनके स्वार्थों को पूरा करने में सहायक बने । इन लोगों ने ही भारत में जातिवादी व्यवस्था को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए विकसित किया है। इसमें मनु को दोष देना किसी भी विद्वान पाठक के लिए उचित नहीं होगा। ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू करने वाले इन लोगों का विरोध करने के लिए कुछ लोग स्वाभाविक रूप से आगे आए हैं। इन लोगों ने अपनी विकृत भावनाओं को पूरा करने के लिए नीची जातियों पर अत्याचार करने वाले महर्षि मनु को एक सींग वाले राक्षस के रूप में चित्रित किया है इससे व्यवस्था सुधरने के स्थान पर और विकृत होती चली गई । जो लोग महर्षि मनु के नाम पर अपनी रोटियां सेक रहे थे वह भी नहीं चाहते कि यह व्यवस्था सुधरे और जो मनु का विरोध कर रहे हैं वह भी नहीं चाहते कि व्यवस्था में सुधार हो ।
विदेशी सत्ताधारियों ने लाभ उठाया
जब भारत में विदेशी सत्ताधारी आक्रामक के रूप में यहां पर आए और उन्होंने हमारे देश में इस प्रकार के ऊंच नीच के विचारों को देखा तो उन्होंने इस स्थिति का अपने हित में लाभ उठाने का भरपूर प्रयास किया । अंग्रेजों ने तो हमारी सोच का जातिवादीकरण करने में भी संकोच नहीं किया। उन्होंने हमारे यहां पर पहली बार जातीय आधार पर जनगणना तक करा दी । उन्होंने ही हमारे यहां पर वर्गों को जन्म दिया । एससी एसटी आदि दिए गए शब्द इन्हीं लोगों के है ।
आज भी हम में असीम क्षमता और बुद्धि धन है फ़िर भी हम समृद्धि और सामर्थ्य की ओर अपने देश को नहीं ले जा पाए और निर्बल और निराधार खड़े हैं – इस का प्रमुख कारण यह मलिन जाति प्रथा है । विदेशी सत्ताधारियों ने हमारे उस समाज का धर्मांतरण करने में भी संकोच नहीं किया जो कल परसों तक हमारे ही भाई थे और हमारे समाज में ऊंचे स्थान पर पहुंचने के लिए जिनके पास सारे साधन उपलब्ध थे , परंतु अब जिनको ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने अपना शारीरिक , सामाजिक और आत्मिक विकास करने से अवरुद्ध कर दिया था।
मनु का विरोध क्यों?
डॉक्टर कृष्ण वल्लभ पालीवाल ने अपनी पुस्तक ‘ मनु अंबेडकर और जाति व्यवस्था ‘ के पृष्ठ 41 पर बहुत सुंदर ढंग से वर्णन किया है । जिसमें वह यह स्पष्ट करते हैं कि वर्तमान में जिन अनुसूचित व पिछड़ी जातियों को शूद्र माना जा रहा है , वह वास्तव में शूद्र की श्रेणी में नहीं आती । इसका कारण बताते हुए वह लिखते हैं कि- ” आज की लगभग 4000 अनुसूचित जातियां , अनुसूचित जनजातियां एवं पिछड़ी जातियां शूद्र वर्ण की नहीं है , क्योंकि शूद्र वर्ण की परिभाषा और लक्षण उपयुक्त जातियों पर लागू नहीं होते । मनु के अनुसार जिनका विद्या रूपी ब्रह्मजन्म नहीं होता है , वह ‘एकजाति’ रहने वाला व्यक्ति शूद्र है। (मनु 2.172 ) यानि जब तक व्यक्ति का वेदाध्ययन रूप जन्म नहीं होता , तब तक वह शूद्र के समान ही होता है। यही बात स्कंद पुराण में कही गई है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। उपनयन संस्कार व शिक्षा से दीक्षित होकर ही वह द्विज होता है । इसके अतिरिक्त शूद्र एक वर्ण है। जबकि ये जन्मना जातियां हैं । कर्मणा वर्ण व्यवस्था के शूद्र का आज की जन्मना जाति व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। अतः मनु ने जिनका नियमित शिक्षा दीक्षा से विद्या रूपी दूसरा जन्म हो चुका होता है , वह ब्राह्मण क्षत्रिय , वैश्य आदि द्विज हैं। (मनुस्मृति 10/4) इस परिभाषा के अनुसार जो जन्मना ब्राह्मण हैं , परंतु अशिक्षित व अज्ञानी है वे शूद्र है , और अनेकों जन्म के अनुसूचित व पिछड़ी जातियों के सुशिक्षित इंजीनियर , डॉक्टर व अन्य विद्वान लोग ब्राह्मण हैं । अतः मनु की कर्मणा वर्ण व्यवस्था आज के हिंदू समाज की जन्मना जाति व्यवस्था पर लागू नहीं होती है। क्योंकि मनु जन्मना जाति व्यवस्था का उल्लेख तक नहीं करते हैं , समर्थन का तो प्रश्न ही नहीं उठता । इसीलिए मनुस्मृति में वर्णन संकरता प्रक्षिप्त अवश्य है, मगर जन्मना जाति व्यवस्था नहीं है । यदि बाद के लोगों ने किसी कारणवश मनु की कर्मणा वर्ण व्यवस्था को विकृत करके वर्णसंकरों या अन्य जातियों को शूद्रों में शामिल कर लिया ,तो इसमें मनु का क्या दोष ? – इस विकृतिकरण के बाद ब्राह्मण आदि गुणों से ब्राह्मणों की जातियां या उनकी अनेकों उपजातियां तो बन गई , मगर फिर भी शूद्र नाम की कोई जाति नहीं बनी है। मनु के अनुसार जो उच्च वर्णों में दीक्षित है, मगर उनके निर्धारित कर्तव्यों का पालन नहीं करते हैं , वे शूद्र हो जाते हैं । ( मनुस्मृति : 4 /24 , 4 / 245 ) मगर फिर भी शूद्र जाति नहीं है क्योंकि मनु के समय तक जन्मना जाती नहीं बनी थी। पुनः आज जो सरकार द्वारा स्वीकृत अनेकों अनुसूचित जाति, जनजाति पिछड़ी जातियां हैं , उनका उद्गम तो क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र वर्णों पंचजनों एवं उनकी वर्णसंकर और उपजातियों में संबंधित हो सकता है। परंतु यह सब उपजातियां हैं। अतः इन जातियों पर मनु की कर्मणा वर्ण व्यवस्था लागू होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता है तो फिर इन जातियों द्वारा मनु का विरोध क्यों?”
डॉ आंबेडकर भी वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे
महर्षि मनु द्वारा प्रतिपादित वर्ण व्यवस्था में कोई जातिवाद नहीं है। उसमें मनुष्य की प्रतिभा के अनुसार मनुष्य के गुण ,कर्म व स्वभाव को आधार बनाकर उसकी योग्यता या प्रतिभा का निर्धारण करने के दृष्टिकोण से सामाजिक रुप से वर्णसंकर व्यवस्था स्थापित की गई है । इस व्यवस्था को डॉक्टर अंबेडकर भी स्वीकार करते थे। डॉ आंबेडकर ‘जाति प्रथा उन्मूलन’ संपूर्ण वांग्मय खंड 1 पृष्ठ 81 पर लिखते हैं- “जाति का आधार मूल सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धांत के मूल रूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर विरोधी है। पहला सिद्धांत गुणों पर आधारित है। वर्ण व्यवस्था की स्थापना के लिए पहले जाति प्रथा को समाप्त करना होगा।”
बात स्पष्ट है कि डॉक्टर अंबेडकर जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए तथा वर्ण व्यवस्था को स्थापित कराने के लिए पहले जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करना उचित मानते हैं, और यही सत्य भी है। परंतु समस्या उस समय खड़ी हो जाती है जब डॉक्टर अंबेडकर का नाम लेकर भारत में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को या मनुवाद को कोसने वाले लोग अपनी जाति तो बचाए रखना चाहते हैं, परंतु इसके उपरांत भी जाति विहीन समाज की कल्पना करने के मूर्खों के स्वर्ग में रहने का स्वांग करते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि आज इन्हें जाति के आधार पर जो कुछ सुविधाएं मिल रही हैं, उन्हें यह बनाए रखना चाहते हैं ,अर्थात जाति के आधार पर यदि सुविधाएं मिलें तो जाति का नाम लो और जाति के आधार पर यदि कहीं किसी प्रकार अपमानित होना पड़े तो जातियों को कोसो, यह दोहरे मानदंड वर्तमान समाज की सबसे बड़ी विसंगति है।
डॉक्टर अंबेडकर ने क्यों जलाई थी मनुस्मृति
डॉ आंबेडकर वर्तमान समाज में चल रही ब्राह्मणवादी व्यवस्था की उस विसंगति के विरोधी थे जिसमें उन्होंने मनु की वर्ण व्यवस्था का धीरे-धीरे जातिवादीकरण कर लिया था और अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उन्होंने मनु स्मृति में प्रक्षिप्त श्लोक भी डाल दिए थे । जिस समाज में ऐसी व्यवस्था लागू होगी कि जिससे किसी वर्ग विशेष का पोषण और दूसरे वर्ग का शोषण होता हो , वह संविधान या वह पुस्तक या वह व्यवस्था जलाने के योग्य ही होती है। अतः डॉक्टर अंबेडकर ने जब 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति जलाई तो उन्होंने प्रतीक रूप में अपना विरोध इसी अर्थ और संदर्भ में व्यक्त किया था कि वह वर्तमान ब्राह्मणवादी व्यवस्था के आधार पर चल रही मनुस्मृति के विरोधी हैं, और यदि इस पुस्तक को समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए धर्मशास्त्र के रूप में सम्मानित किया जाता है तो मैं ऐसी पुस्तक को जलाना उचित समझूंगा।
हम डॉक्टर अंबेडकर के इस क्रांतिकारी विचार से अपनी सहमति व्यक्त करते हैं , परंतु जो लोग डॉक्टर अंबेडकर के इस क्रांतिकारी निर्णय को नकारात्मक रूप में देख कर समाज में अव्यवस्था या जातीय विद्वेष उत्पन्न करने के कार्य में लगे हुए हैं और डॉक्टर अंबेडकर के नाम पर मनुस्मृति को कोस रहे हैं , उनके अभियान पर भी हमें तरस आता है । उन्हें डॉक्टर अंबेडकर की बौद्धिक क्षमताओं का सम्मान करते हुए पहले मनु और मनुस्मृति को यथार्थ रूप में समझना और स्वीकार करना होगा। क्योंकि किसी पुस्तक को जलाने या किसी व्यवस्था को अस्वीकार करने का अधिकार केवल उसी व्यक्ति को होता है जो उस पुस्तक के प्रावधानों की गहराई को समझ चुका हो या उस व्यवस्था में आई विकृतियों को गहराई से जान चुका हो।
डॉक्टर अंबेडकर के द्वारा मनुस्मृति को जलाए जाने का अर्थ यह नहीं था कि उन्होंने मनुस्मृति को पूर्णतया नकार दिया था। उनका ऐसा करने का अर्थ केवल इतना था कि समाज के जो लोग मनुस्मृति के उन आपत्तिजनक प्रावधानों के अनुसार समाज को चलाना चाहते थे जिनसे किसी वर्ग का शोषण होना सुनिश्चित होता था, वह उसका विरोध कर रहे थे और यह विरोध पूर्णतया न्याय संगत था।