-ललित गर्ग-
दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन इंडिया की लोकतंत्र बचाओं महारैली में जुटे 28 दलों के नेता आगामी लोकसभा चुनाव की दृष्टि से कोई प्रभावी संदेश देने में नाकाम रहे हैं। भले ही चुनाव के ठीक पहले विपक्षी दलों ने इसके जरिए अपनी एकजुटता प्रदर्शित करने में कामयाबी हासिल की हो। लेकिन यह एकजुटता भ्रष्ट नेताओं को बचाने की एक मुहिम ही बनकर सामने आयी है। इसमें स्पष्ट रूप से केन्द्र सरकार की भ्रष्टाचार पर गई कार्रवाई की बौखलाहट झलक रही थी। इस रैली में सभी दलों के नेताओं ने देश विकास के मुद्दों, सिद्धान्तों एवं नैतिक तकाजे की बजाय मोटे तौर पर सत्ता पक्ष की भ्रष्टाचार के खिलाफ की जा रही कार्रवाई को लोकतंत्र पर हमला बताते हुए इसी के इर्दगिर्द ही अपनी बातें रखीं। लोकतंत्र बचाओ रैली से उपजे विचारों ने किन्हीं पवित्र उद्देश्यों के बजाय सत्ता हासिल करने की लालसा को ही उजागर किया, यह निराश करने वाली रैली किसी बड़े बदलाव की वाहक बनती हुई नजर नहीं आयी।
इस रैली में भारतीय जनता पार्टी एवं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की शानदार जीत की संभावना से बौखलाए नेताओं की खींच ही ज्यादा सामने आयी है। यही कारण है कि रैली में जो मुद्दा जोरशोर से उठा, वह यह रहा कि यदि भाजपा फिर से सत्ता में आ गई तो लोकतंत्र भी खत्म हो जाएगा और संविधान भी। यह समझना कठिन है कि कोई दल लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करता है तो उससे लोकतंत्र और संविधान कैसे खत्म हो जाएगा। आम जनता के मतों से जीत हासिल करने वाला दल किस तरह से लोकतंत्र को ध्वस्त करने वाला हो सकता है। विपक्षी एकता का यह महाकुंभ मोदी को कोसने की बजाय किन्हीं ठोस मुद्दों के सहारे कोई प्रभावशाली विमर्श खड़ा करने की कोशिश करता तो वह आम जनता को आकर्षित करता और यही स्वस्थ राजनीतिक परिपक्वता का परिचायक होता। लेकिन ऐसा न होना समूचे देश के विपक्षी दलों की नाकामी, उद्देश्यहीनता एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का द्योतक हैं।
इस रैली में अनेक मुद्दे उठे, जिनमें प्रमुख रहा केंद्रीय एजेंसियों का कथित दुरुपयोग और राजनीतिक भ्रष्टाचार। प्रियंका गांधी ने इस रैली में सरकार के सामने पाँच माँगें रखीं। इनमें प्रमुख दो हैं जिनमें चुनाव आयोग से माँग की गई है कि विपक्षी नेताओं पर छापों की कार्रवाई रोकी जाए। दूसरी और महत्वपूर्ण माँग ये है कि गिरफ्तार हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल को तुरंत रिहा किया जाए। इस रिहाई की माँग के पीछे कांग्रेस का उद्देश्य बचे-खुचे संगठनों या पार्टियों को इंडिया गठबंधन से जोड़े रखना है। नीतीश कुमार और ममता बेनर्जी जैसे मज़बूत खम्भे पहले ही उखड़ चुके हैं इसलिए जो कुछ बचा है उसे कांग्रेस समेटे रखना चाहती है, यही उसकी विवशता है। वैसे, इंडिया गठबंधन के घटक दलों के आपसी अंतर्विरोध की छाया भी इस रैली दिखी। कांग्रेस की तरफ से कहा गया कि विरोध किसी खास व्यक्ति से जुड़ा नहीं बल्कि मौजूदा सरकार की तानाशाही के खिलाफ केंद्रित है। जबकि इस रैली का मकसद आम आदमी पार्टी की तरफ से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का विरोध करना बताया गया। यहां आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस के बीच के अन्तर्विरोध को सहज ही समझा जा सकता है।
यह रैली भले ही अठाइस दलों का जमावड़ा बनी, इसे विपक्षी दलों की एकजुटता का प्रदर्शन भी कहा गया है। लेकिन जबसे इंडिया गठबंधन बना है, तब से उसमें टूट एवं बिखराव के स्वर सुनाई दे रहे हैं। विचारभेद के साथ मनभेद भी सामने आये हैं। महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक तमाम राज्यों में टिकट बंटवारे के सवाल पर इंडिया गठबंधन से जुड़े दलों की आपसी खटपट की खबरें भी आ रही थीं। भले ही ये विवाद गिनी-चुनी सीटों को लेकर थे, लेकिन संदेश स्पष्ट था कि चुनाव सिर पर आने के बाद भी इंडिया गठबंधन से जुड़े दल एकजुट नहीं हो पा रहे। रामलीला मैदान की रैली के जरिए इन दलों ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि मोदी विरोध एवं भाजपा को सत्ता से दूर करने के मुद्दों पर वे एक स्वर में बोल सकते हैं और लगातार बोलते भी रहे हैं, फिर उसके लिये इस महारैली की क्या जरूरत? निश्चित ही एकजुटता के ये स्वर बेसूरे, असहज एवं बनावटी है, इंडिया गठबंधन केे राजनैतिक क्षितिज पर जो वरिष्ठ राजनेता हैं उनकी आवाज व किरदार भारतीय जीवन को प्रभावित नहीं कर रहा है। इंडिया गठबंधन से जुडे़ दलों की केन्द्र एवं प्रांतों की सरकारों के शासन-काल में तो अपराध, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के जबड़े फैलाए, आतंकवाद, प्रांतवाद, जातिवाद की जीभ निकाले, मगरमच्छ सब कुछ निगलता रहा है। सब अपनी जातियों और ग्रुपों को मजबूत करते रहे हैं– देश को नहीं। प्रथम पंक्ति का नेता ही नहीं है जिसे मोदी के मुकाबले में खड़ा किया जा सके। भारत के लोग केवल बुराइयों से लड़ते नहीं रह सकते, वे व्यक्तिगत एवं सामूहिक, निश्चित सकारात्मक लक्ष्य के साथ जीना चाहते हैं। अन्यथा जीवन की सार्थकता नष्ट हो जाएगी।
दो तरह के नेता होते हैं- एक वे जो कुछ करना चाहते हैं, दूसरे वे जो कुछ होना चाहते हैं। असली नेता को सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी होकर, प्रासंगिक और अप्रासंगिक के बीच भेदरेखा बनानी होती है। संयुक्त रूप से कार्य करें तो आज भी वे भारत को विकास की नई ऊंचाइयां दे सकते हैं। लेकिन उन्होंने सहचिन्तन को शायद कमजोरी मान रखा है। नेतृत्व के नीचे शून्य तो सदैव खतरनाक होता ही है पर यहां तो ऊपर-नीचे शून्य ही शून्य है। इंडिया गठबंधन की चोटी से लेकर प्रांत स्तर पर, समाज स्तर पर तेजस्वी और खरे नेतृत्व का नितान्त अभाव है। यह सोच का दिवालियापन ही है कि दिखते हुए भ्रष्टाचार के बावजूद उसका विरोध नहीं करके, ऐसेे भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिये लोकतंत्र बचाओ रैली का आयोजन हो रहे हैं। राजनीतिक भ्रष्टाचार एक कड़वी सच्चाई है, लेकिन वह भी उतना सच है कि इस मामले में कोई भी दल दूध का धुला नहीं है। राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। विपक्षी दल कुछ भी दावा करें, सच्चाई यह है कि राजनीतिक भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान उनके पास भी नहीं है। राजनीति में काले धन का इस्तेमाल होता रहा है और कोई भी यह दावे के साथ कहने की स्थिति में नहीं कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा। जो विपक्षी नेता भ्रष्टाचार के आरोप में केंद्रीय एजेंसियों की जांच का सामना कर रहे हैं अथवा उन्हें जेल जाना पड़ा है, उनके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने कहीं कुछ गलत नहीं किया। प्रधानमंत्री ने मेरठ में चुनावी महासंग्राम की शुरुआत करते हुए कहा कि अगर विपक्षी नेता पाक-साफ़ हैं तो सुप्रीम कोर्ट उन्हें छोड़ क्यों नहीं रहा है? कुछ तो गड़बड़ होगी ही। कुल मिलाकर बयानों का तीखापन यहाँ- वहाँ आने लगा है। लोकसभा चुनाव के प्रचार में धार आ गई है। यह धार दिन ब दिन और पैनी होती जाएगी।
भारत के केनवास पर शांति, प्रेम, ईमानदारी, विकास और सह-अस्तित्व के रंगों की जरूरत है, पर आज इंडिया गठबंधन इन रंगों को भरने की पात्रता खोकर नायकविहीन है। रंगमंच पर नायक अभिनय करता है, राजनीतिक मंच पर नायक के चरित्र को जीना पड़ता है, कथनी-करनी में समानता, दृढ़ मनोबल, इच्छा शक्ति और संयमशीलता के साथ। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की यह एक बड़ी विडम्बना है कि यहां विपक्षी दलों में नायक कम, खलनायक अधिक है। तभी एक मोदी अठाइस दलों के नेताओं पर भारी पड़ रहा है। देखना यह है कि विपक्षी दलों ने राजनीतिक भ्रष्टाचार का मामला उठाकर मोदी सरकार को घेरने की जो कोशिश की, उससे देश की जनता कितनी प्रभावित होगी और इसकी आवश्यकता महसूस करेगी या नहीं कि इस गठबंधन को सत्ता में लाना आवश्यक है। विपक्षी दलों ने जो मुद्दे उठाये, वे प्रभाव पैदा नहीं कर पाये। चुनावी बांड का ही मुद्दा ले, इसमें संदेह नहीं कि चुनावी बांड से दिए जाने वाले चंदे का जो विवरण सामने आया है, उससे अनेक गंभीर सवाल खड़े हुए हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जिन कंपनियों का नाम लेकर यह कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने उन पर अनुचित दबाव डालकर चंदा हासिल किया, उनमें से अनेक ने विपक्षी दलों को भी अच्छा-खासा चंदा दिया है।