……तो क्या इतिहास मिट जाने दें , अध्याय 9, विषकन्या लेडी माउंटबेटन और नेहरू

1947 में जब देश का विभाजन हुआ तो उस समय विभाजन की पीड़ा को झेलते हुए 10 लाख लोग मरे या 20 लाख लोग मरे ? यह आंकड़ा कभी स्पष्ट नहीं किया गया। इतिहास के सही आंकड़ों को दबा दिया गया। जिन लोगों ने मुस्लिम सांप्रदायिकता को सही दृष्टिकोण से नहीं समझा, उन लोगों की मूर्खता के चलते देश का बंटवारा हो गया था। अपनी इसी मूर्खता को छुपाने के लिए इन लोगों ने 1947 में देश के बंटवारे के समय बलिदान हुए लोगों की सही संख्या को भी छुपा दिया। यदि इनका सच लोगों के सामने आ जाता तो इन्हें डर था कि इन पर जूते पड़ेंगे। कांग्रेस की इसी गलत सोच का परिणाम था कि मुस्लिम लीग और इस्लाम के मजहबपरस्त उन्मादी लोग अपनी सांप्रदायिकता का नंगा नाच करते रहे और हिंदू क्षति उठाता रहा।
देश लहूलुहान था। देश का दिल रो रहा था। देश का धर्म उजड़ रहा था। आत्मा कराह रही थी। मानस चीत्कार कर रहा था। पर उस समय का संवेदनाशून्य भारत का नेतृत्व ( सरदार वल्लभभाई पटेल को छोड़कर) स्थिति के प्रति उदासीन सा हो गया था।

ब्रिटिश सरकार की मजबूरी

1947 में जब देश को आजाद करना ब्रिटिश सरकार की मजबूरी हो गई थी तो उसके पीछे कारण केवल एक था कि महर्षि दयानंद प्रणीत क्रांतिकारी आंदोलन के उस समय के महानायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के कारण भारत की सेना भी अंग्रेजों के खिलाफ हो गई थी। भारत क्रांति में पूरी तरह रंग गया था और अब उसे आजादी से नीचे कुछ भी स्वीकार नहीं था। जिस कांग्रेस ने अंग्रेजों से डोमिनियन स्टेटस मांगा था, उसकी चमक-दमक अब फीकी पड़ चुकी थी। ब्रिटिश सरकार के लिए ऐसी परिस्थितियों में भारत को स्वतंत्र करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं था।
ब्रिटिश सरकार के लिए उस समय भारत को ‘विभाजित करके सत्ता सौंपना’ प्राथमिकता हो गई थी, पर उससे भी बड़ी प्राथमिकता थी – भारत से अपने निवेश को बड़ी सावधानी से हटा लेना। अंग्रेज यह भली प्रकार जानते थे कि यदि भारत को ज्यों का त्यों अखंड स्वरूप में अचानक स्वाधीन किया गया तो भारत के क्रांतिकारियों से पूर्णतया उत्प्रेरित भारत की जनता उन्हें यहां से तुरंत भगाने के लिए उठ खड़ी होगी, तब उन्हें अपने निवेश को भारत में छोड़कर ही भागना होगा।
ज्ञात रहे कि उस समय ब्रिटेन की भारतवर्ष में अरबों – खरबों की पूंजी लगी हुई थी। भारतवर्ष को छोड़ने से पहले अंग्रेज अपनी इस अरबों – खरबों की पूंजी को बड़े आराम से स्वदेश ले जाना चाहते थे। उन्हें डर था कि यदि हिंदुस्तान को यथावत आजाद कर दिया तो ब्रिटिश निवेश का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाएगा। जिसे द्वितीय विश्व युद्ध में बुरी तरह पिटे ब्रिटेन के लिए झेलना कठिन हो जाएगा।

नेहरू की वास्तविकता

सत्ता के लिए उतावले पंडित जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस ने एक महानायक के रूप में स्थापित किया है । उन्हें कूटनीति का सबसे बड़ा जादूगर दिखाने का भी प्रयास किया गया है। यदि नेहरू के भीतर कूटनीति के उतने ही गुण होते जितना कांग्रेस ने उनके भीतर दिखाने का प्रयास किया है तो उन्हें ब्रिटिश लोगों की इस मजबूरी को समझना चाहिए था कि वह अपने अरबों खरबों के निवेश को इस देश में छोड़कर नहीं भाग सकते। यदि उन पर कुछ इस प्रकार का दबाव बनाया जाता की यदि उन्होंने हमारे देश का बंटवारा करने का प्रयास किया तो उनका अरबों खरबों का निवेश छोड़कर ही उन्हें भागना पड़ेगा तो निश्चय ही वह देश के विभाजन पर एक बार नहीं कई बार सोच सकते थे।
पर नेहरू ने ऐसा नहीं किया। नेहरू ऐसा क्यों नहीं कर रहे थे ? इसका कारण केवल एक था कि नेहरू उस समय इतने बड़े लोकप्रिय नेता नहीं थे कि वह सहज रूप में सत्ता प्राप्त कर लेते। उन्हें सत्ता के लिए जुगाड़ लगाना था और ‘जुगाड़’ हमेशा ही व्यक्ति की कमजोरी का प्रतीक होता है। सब प्रकार के जुगाड़ो को अलग फेंक कर जो सत्ता को अधिकार के साथ प्राप्त करते हैं, वीर वही होते हैं । जुगाड़ का अभिप्राय चोरी छुपे सत्ता प्राप्त करने से है और नेहरू इसी प्रकार सत्ता प्राप्त कर रहे थे । इसलिए वह देश के हितों के साथ समझौता करने को भी तैयार थे । उस समय ब्रिटिश सरकार को भी किसी ऐसे ही नेता की आवश्यकता थी जो उनसे चोरी छुपे सत्ता प्राप्त करे और उस सत्ता प्राप्त करने की एवज में उन्हें भी मनचाहा पुरस्कार प्रदान करे।

ब्रिटिश नेतृत्व की चाल

 ऐसी परिस्थितियों में ब्रिटेन के लिए यह आवश्यक हो गया था कि कोई ऐसा व्यक्ति भारत से अपने निवेश को समेटने के लिए भेजा जाना चाहिए जो हर प्रकार के व्यक्ति से निभा लेने की असाधारण क्षमता रखता हो। बस, इसी खोज और सोच का परिणाम था कि लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी एडविना को भारत भेजा गया। लॉर्ड माउंटबेटन उस महारानी विक्टोरिया के पौत्र थे, जिन्होंने 1857 की क्रांति के पश्चात दिल्ली के लाल किले पर यूनियन जैक को चढ़ाया था। लॉर्ड माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि जिस काम को उनकी दादी ने बड़ी शान के साथ संपन्न किया था, उसे समेटने का दायित्व उन्हें दिया जाए । पर वे यह नहीं जानते थे कि उनकी पत्नी एडविना माउंटबेटन को ब्रिटिश सरकार उस समय किस प्रकार ‘कैश’ कर लेना चाहती थी ?

लेडी माउंटबेटन की चरित्रहीनता

  एडविना माउंटबेटन किस प्रकार की चरित्रहीनता का शिकार थी और किस प्रकार वह परपुरुषों को काबू में करने में माहिर थी ? इसे ब्रिटेन के तत्कालीन शासक वर्ग के अधिकांश लोग जानते थे। वे यह भी जानते थे कि लेडी माउंटबेटन और जवाहरलाल नेहरू के छात्र जीवन से ही कैसे संबंध रहे थे? और यह भी कि नेहरू किस प्रकार एक व्यभिचारी व्यक्ति थे ? ब्रिटिश सरकार की सोच थी कि लेडी माउंटबेटन को एक ‘विषकन्या’ के रूप में भारत भेजा जाए और नेहरू को उसका शिकार बनाया जाए। इसके लिए यह भी आवश्यकता था कि नेहरू को सत्ता का स्वाद चखाकर अगले प्रधानमंत्री के रूप में उनके भीतर एक महत्वकांक्षी पैदा की जाए। 2 सितंबर 1946 को आजादी से भी पहले नेहरू को इसी योजना के अंतर्गत भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया था। ब्रिटिश लोग भली प्रकार जानते थे कि 'विषकन्या' के प्रभाव में व्यभिचारी नेहरू उन्हें मनपसंद सुविधाएं देने के लिए तैयार हो जाएगा।
भारत के विभाजन के उपरांत अपने निवेश को धीरे-धीरे भारत से समेटने की अपनी गुप्त योजना को सिरे चढ़ाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नेहरू का प्रयोग किया, जिसके लिए विषकन्या लेडी माउंटबेटन ने अपना भरपूर खेल खेला। उस समय के अधिकांश लोग यह जानते थे कि भारत के भविष्य के निर्धारण को लेकर नेहरू माउंटबेटन के साथ-साथ लेडी माउंटबेटन से गंभीर चर्चा किया करते थे । अधिकांश मामलों में लेडी माउंटबेटन के परामर्श को अंतिम मान लिया जाता था। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण था कि जिस महिला ने भारत के बारे में कुछ भी नहीं समझा था उसे सबसे बड़ी समझदार के रूप में मान्यता मिल गई थी। सत्ता से ऊपर एक सत्ता लेडी माउंटबेटन के हाथों में थी। जिसकी कठपुतली के रूप में हमारे देश का भावी प्रधानमंत्री खेल रहा था।

अंग्रेजों की गंभीर चाल

अंग्रेजों ने बड़ी सावधानी से 14 अगस्त को भारत का विभाजन कर पहले भारत से अलग पाकिस्तान को किया। इसके पीछे कारण यह था कि यदि उन्होंने सत्ता हस्तांतरण करते समय दोनों देशों को एक साथ स्वतंत्र कर दिया तो अधिकार की ब्रिटेन से के निर्णय को भारत बदल सकता है।
अपनी पहली योजना में पूर्ण सफल होने के पश्चात अंग्रेजों ने भारत को डोमिनियन स्टेटस देते हुए अर्थात भारत पर अप्रत्यक्ष रूप से अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित रखने की शर्त पर भारत को आधी अधूरी आजादी देते हुए नेहरू को देश का प्रधानमंत्री बनाया। अंग्रेजों के इस खेल को गांधी भली प्रकार जानते थे। यही कारण था कि उन्होंने भी नेहरू को ही देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया। विषकन्या के खेल के शिकार बने नेहरू पर प्रधानमंत्री बनने का भूत इस प्रकार सवार था कि वह देश का एक और विभाजन तो करा सकते थे पर अपने आपको प्रधानमंत्री पद से पीछे नहीं हटा सकते थे, यही कारण था कि सरदार पटेल गांधी जी के कहने पर प्रधानमंत्री बनने की दौड़ से पीछे हो गए।

सरदार पटेल का त्याग

सचमुच सरदार पटेल का यह निर्णय न केवल सराहनीय था बल्कि उनका यह बहुत बड़ा त्याग भी था। सरदार वल्लभभाई पटेल ने देश की सेवा करते हुए अपने आप को बलि का बकरा बनने दिया। उन्हें सत्ता उतनी प्यारी नहीं थी, जितना देश प्यारा था। उन्होंने देश के लिए जीने मरने की प्रतिज्ञा की थी और जब समय आया तो अपनी इस प्रतिज्ञा का ध्यान करते हुए देश के उस ‘महाराणा’ ने परिस्थितियों के सामने झुकने से इनकार कर दिया। वह सत्ता का सौदा कर सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने से अच्छा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखना मान रहे थे। सरदार वल्लभभाई पटेल 1909 ई0 में विधुर हो गए थे। जब कैंसर से उनकी धर्मपत्नी झावेर बा का देहांत हो गया था। उस समय सरदार पटेल की अवस्था 34 वर्ष की थी। 34 वर्ष की भरी जवानी में विधुर होने के उपरांत भी उन्होंने अपने चरित्र की रक्षा की थी।
उनके किसी धुर विरोधी ने भी उन पर आज तक यह आरोप नहीं लगाया कि उन्होंने अमुक महिला के साथ अपने संबंध बनाए थे,? जबकि नेहरू और गांधी पर उनके समर्थकों ने भी ऐसे गंभीर आरोप लगाए हैं, जिनसे उनकी चरित्रहीनता अपने आप स्पष्ट हो जाती है। बस, यही सरदार पटेल की महानता थी।
उन्होंने अपने आप को जीता। यही कारण था कि समय आने पर उन्होंने अनेक परिस्थितियों को भी जीत लिया। उनके सामने सरदार पटेल ने हथियार नहीं फेंके। इसके विपरीत गांधी और नेहरू अपने आप से ही पराजित हो गए थे। 1936 में कमला नेहरू का देहांत हुआ। पर उससे पहले ही नेहरू और कमला नेहरू के बीच संबंध बहुत अधिक अच्छे नहीं थे। इसका कारण केवल यही था कि नेहरू अन्य महिलाओं के प्रति आकर्षित रहते थे। जबकि नेहरू के गुरु गांधी जी की स्थिति तो और भी अधिक खराब थी । अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी के रहते हुए ही गांधी अनेक महिला मित्रों के बीच रहकर अपने ब्रह्मचर्य का बेतुका परीक्षण करते रहते थे। कहने का तात्पर्य है कि गांधी और नेहरू अपने आप से हार गए तो वह देश की बाजी भी हार गए। यद्यपि ऊपरी तौर पर वह जीते हुए घोषित किए गए पर कटे हुए देश को लेकर वह विजेता हीरो नहीं थे बल्कि पराजित कायर थे। कहा यह भी जा सकता है कि सरदार पटेल ने नेहरू और गांधी से पहले विभाजन को स्वीकार किया था। यह बात सही भी है। पर इसके उपरांत भी वह पराजित योद्धा नहीं थे। कारण यही था कि उन्होंने नेहरू और गांधी के बोए हुए पापों के सामने समर्पण किया था, अपनी आत्मा के सामने नहीं। जबकि नेहरू और कथित महात्मा अपनी आत्मा के सामने ही हथियार फेंक चुके थे।

आजादी और डोमिनियन स्टेटस

भारत को आजाद करते समय ब्रिटिश सरकार ने डोमिनियन स्टेटस क्यों दिया? इसका उत्तर यह है कि वह अपने द्वारा भेजी गई विषकन्या लेडी माउंटबेटन के प्रभाव में फंसे नेहरू के शासनकाल में अपनी अरबों खरबों की पूंजी को भारत से बड़े आराम से अपने देश ले जाने के लिए समय चाहते थे। यही कारण था कि भारत के विधुर और व्यभिचारी प्रधानमंत्री नेहरू को विषकन्या के मोहजाल में फंसाए रखने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन को लेडी माउंटबेटन सहित अभी भारत में और कुछ समय तक प्रवास करने का परामर्श दिया गया। ब्रिटिश सरकार की नीति के अंतर्गत इस प्रकार का प्रस्ताव स्वयं नेहरू ने ही रखा कि लॉर्ड माउंटबेटन को अभी कुछ समय और भारत में रहना चाहिए। इसके लिए उन्हें स्वतंत्र भारत का पहला गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। इस दौरान भारत की शक्ति सत्ता पर अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश पार्लियामेंट और ब्रिटिश राजा का ही नियन्त्रण चलता रहा। यह नियन्त्रण 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू होने के पश्चात समाप्त हुआ। इस काल में ब्रिटिश लोग अपने आपको पूर्णतया सुरक्षित रखते हुए भारत से ब्रिटेन ले जाकर स्थापित करने में सफल हो गए। भारत से अपनी अरबों खरबों की पूंजी को भी समेटने में सफल रहे।

यदि उस समय देश का प्रधानमंत्री सरदार पटेल को या नेताजी सुभाष चंद्र बोस को बनाया जाता तो क्या यह संभव होता कि ब्रिटिश अंग्रेज लोग भारत से को स्वतंत्र करने के पश्चात भी भारत की अरबों खरबों की पूंजी को यहां से उठाकर ले जाने में सफल हो जाते ? संभवत: कदापि नहीं। बस, यही वह कारण था जिसकी वजह से सरदार पटेल को स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया।
इतिहास के इस गहरे सच को सही संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। इस इतिहास को मिटने नहीं देना है, बल्कि आने वाली पीढियों को बताने के लिए और भी अधिक अच्छे ढंग से लिखने की आवश्यकता है। जिससे आने वाली पीढ़ियां किसी प्रकार के अंधेरे में ना रहें और उन्हें पता रहे कि विषकन्या के मोह में डूबा देश का पहला प्रधानमंत्री देश के बंटवारे के समय क्या कर रहा था? कथित महात्मा की क्या भूमिका थी ? और सरदार पटेल उस समय कौन सा इतिहास लिख रहे थे?

डॉ राकेश कुमार आर्य

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