अध्याय 7 …..तो क्या इतिहास मिट जाने दें कांति ,शांति, क्रांति और हिंदू
भारत की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है। इसी सभ्यता को यदि ‘विश्व सभ्यता’ कहा जाए तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसमें दो राय नहीं कि संपूर्ण विश्व समाज ने भारत की संस्कृति और सभ्यता से ही शिक्षा लेकर आंखें खोलीं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियां हमारे इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को स्पष्ट करती हैं :-
उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया॥
वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;
मानो प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया ।
चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,
हैं किन्तु निश्चल एक-से सिद्धान्त उनके सब कहीं॥
एक समय ऐसा था जब सर्वत्र भारत के सत्य सनातन वैदिक धर्म का सूर्य भासता था और उसी के आलोक में संपूर्ण विश्व समाज अपने धर्म का संपादन करता था। भारत विश्वगुरु इसीलिए था कि भारत की सभ्यता और संस्कृति ने विश्व के लोगों का प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व और मार्गदर्शन किया। भारत को समझने का अर्थ है – हड़प्पा और मोहनजोदड़ो का सच अपने आप समझ में आ जाना।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात में अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो – का संदेश वैसे तो बहुत छोटा सा लगता है पर जब इसे व्यवहार में उतारा जाता है तो पता चलता है कि इसकी साधना में पूरा जीवन खप जाता है। जबसे संसार ने अंधकार से प्रकाश की ओर चलने की इस भारतीय संस्कृति की इस पवित्र साधना का परित्याग किया है, तब से संसार की सारी गति उल्टी हो गई है। जिन संप्रदायों या पंथों ने भारत की इस जीवन निर्माण परंपरा का हास – परिहास – उपहास किया है वे स्वयं तो डूबे ही हैं, साथ ही समस्त मानवता को लेकर डूबने का भी काम कर रहे हैं। उनके इस प्रकार के अधोगामी कृत्यों की दिशा को बदलने के लिए यह आवश्यक है कि भारत अपने आप को पहचाने। ‘भारत को समझो’ अभियान चलाने का हमारा यही उद्देश्य है। मैथिली शरण गुप्त जी ने हमारे आर्य पूर्वजों के बारे में लिखा है :-
वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे;
वे स्वार्थ-रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी?॥
भारत को समझने के लिए वैदिक वांग्मय को समझना और वैदिक वांग्मय के रचयिता ऋषि महात्माओं के पुण्य योगदान को स्मरण करना, उनके विभिन्न आविष्कारों ,समाज सुधार आंदोलन और वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ किए गए पुरुषार्थ को समझना अति आवश्यक है। अपनी देव भाषा संस्कृत और देव संस्कृति वैदिक संस्कृति को समझना आवश्यक है। जिन ऋषि महात्माओं ने भारत की वैदिक संस्कृति के प्रचार – प्रसार के लिए जीवन होम किए , उनके उस त्यागी और बलिदानी पुरुषार्थ को हमें अपनी जीवन निर्माण योजना के रूप में देखना चाहिए। उनका एक-एक कार्य हमारे लिए अनुकरणीय होना चाहिए। उनकी लेखनी से निकला एक-एक शब्द हमारे लिए मोती होना चाहिए और उनकी दिव्य वाणी हमारे लिए अमृतोपम होनी चाहिए।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि जीवन साधना से बनता है और साधना भंग होने पर जीवन की कांति भंग हो जाती है। कांति शांति का सूत्रपात करती है और शांति जीवन को क्रांतिकारी बना देती है। कांति ब्रह्मचर्य की शक्ति का नाम है। इसी से ध्यान और एकाग्रता की शक्ति बढ़ती है, उसी को शांति कहा जाता है। जब यह कांति शांति में परिवर्तित हो जाती है तो अनेक प्रकार के आविष्कार कराकर मनुष्य जीवन को क्रांतिकारी बना देती है। मनुष्य का इस प्रकार क्रांतिकारी हो उठना ही उसके जीवन की उन्नति का ठोस प्रमाण है।
हमें इस बात पर गर्व है कि हमारे ऋषियों ने कांति ,शांति और क्रांति के इसी मार्ग का अनुकरण किया। जब जब इस मार्ग में कहीं किसी भी प्रकार का व्यवधान या बाधा आई तो उन्होंने समाज सुधारक के रूप में उस बाधा या गतिरोध को दूर करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। इसी समर्पण का नाम भारतीय संस्कृति है। यह समर्पण सर्वस्व का समर्पण है और सर्वस्व की प्राप्ति के लिए अर्थात पूर्णत्व की प्राप्ति के लिए किया गया समर्पण है।
बात सही है कि :-
मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी,
राज ये गहरा बात जरा सी।
यदि इस राज को जानना चाहते हो तो वैदिक संस्कृति रूपी नदिया में स्नान करना सीखो। उसका अभ्यास डालो। संध्या हवन से नाता जोड़ो और धीरे-धीरे अपने आपको ऋषियों का अनुगामी बनाकर परमपिता परमेश्वर के प्रति समर्पित करते चलो। कल्याण होगा। यह कल्याण पश्चिमी जगत की अंधी नकल करने से नहीं होगा। कल्याण सदा मूल को खोजने में होता है।
मैं अक्सर एक बात सोचा करता हूं कि यदि हम समय रहते अपने आपको संभाल नहीं पाए तो फिर हम इतिहास के कूड़ेदान की वस्तु बन जाएंगे। याद रहे कि इतिहास कूड़ेदान में पड़ी वस्तुओं पर थूकता है, उन्हें सजाता संवारता नहीं है। इतिहास उन्हीं चीजों को संवारता है जिनका नाम लेने वाले संसार में जीवित रहते हैं। अपने इतिहास की रक्षा अपने आपको जीवित बनाए रखने में है और हम जीवित तभी रहेंगे जब इतिहास को मिटने नहीं देंगे। कितना रोचक तथ्य है कि इतिहास हमारी रक्षा करता है और हम इतिहास की रक्षा करते हैं। जो देश या जातियां अपने इतिहास को मर जाने देती हैं वे एक दिन स्वयं ही मर जाती हैं। संसार में जीवित वही देश और जातियां रहती हैं जो अपने इतिहास को मरने नहीं देती हैं।
पाकिस्तान में हिंदू मिट गया? पता है ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण केवल एक था कि जब पाकिस्तान ने अपना इतिहास लिखना आरंभ किया तो उसने गजनी और गौरी को अपना पूर्वज घोषित किया और श्री राम, श्री कृष्ण , राजा दाहिर सेन, सम्राट मिहिर भोज या पृथ्वीराज चौहान , राजा जयपाल या राजा आनंदपाल जैसे इतिहास पुरुषों को ‘काफिर’ कहकर संबोधित किया। वहां के हिंदुओं ने इस बात का विरोध नहीं किया और यह भी नहीं कहा कि पृथ्वीराज चौहान ,राजा जयपाल और आनंदपाल इस देश के इतिहास की एक अमिट पहचान हैं। उन्होंने अपना इतिहास मरने दिया तो 75 वर्ष में वे स्वयं भी मिट गए। जबकि इधर भारत में रहने वाले मुसलमानों ने 75 वर्ष में इतिहास में वह सब कुछ प्राप्त कर लिया जो उन्हें प्राप्त हो जाना चाहिए था। यहां के मुट्ठी भर मुसलमान आक्रामक होकर अपनी हकपरस्ती के आधार पर अपने अस्तित्व को बचाकर कई गुणा विस्तार देने में सफल हो गए और पाकिस्तान के हिंदू सुरक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाकर सब कुछ दूसरों के लिए छोड़ कर अपना सर्वस्व मिटाकर रह गए। आक्रामक होकर रहने और सुरक्षात्मक होकर रहने में यही अंतर है।
आज हम सुरक्षात्मक दृष्टिकोण अपनाकर अपने सिद्धांतों और अपने अस्तित्व से ही समझौता करने पर सहमत से हो गए हैं। हम यह भूल गए कि हमारे पूर्वज कौन थे ? मैथिलीशरण गुप्त जी ने हमें हमारे पूर्वजों के बारे में बताया है :-
वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,
परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा ।
वे सत्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,
निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुख की नींद सोते थे सदा॥
पाकिस्तान के इतिहास लेखकों ने लिखा कि गजनी और गौरी ने इस्लाम की तलवार के बल पर इस्लाम का प्रचार प्रसार किया। उससे पहले यहां काफिर लोग रहते थे जो चरवाहे लोग थे और किन्ही वेद ,उपनिषद आदि की मूर्खतापूर्ण बातों को गाते रहते थे। उनकी परंपराएं बेहूदा थीं। उनके पर्व नितांत जहालत पर आधारित थे। उनकी जीवनशैली पूरी तरह बेहूदा थी। पाकिस्तान के लगभग तीन करोड़ हिंदुओं ने पाकिस्तान के इतिहासकारों की इस प्रकार की बातों का विरोध नहीं किया। वह आत्मरक्षा की मुद्रा में आते गए और परिणाम यह हुआ कि वे अपने अस्तित्व को खो बैठे। वे इतिहास की रक्षा नहीं कर पाए तो इतिहास ने भी उन्हें ‘इतिहास’ बना दिया अर्थात कूड़ेदान में फेंक दिया।
अब अपनी बात करो। अपने देश की बात करो। कुछ लोग हैं जो यहां भी वही तैयारी कर रहे हैं जो पाकिस्तान में हिंदू अस्तित्व को लगभग मिटा करके पूरी कर दी गई है। यदि हमें भी देर सवेर यही लिखवाना है कि इस देश में कभी 'काफिर' लोग रहते थे, जो बड़े जाहिल हुआ करते थे, जिनके धार्मिक ग्रंथ पूर्णतया जहालत से भरे हुए थे, जिनके पर्व जहालत को दिखाते थे, जिनकी मान्यताएं और सिद्धांत पूर्णतया मूर्खता पर आधारित थे ,जिनके पूर्वज जहालत भरी बातें करते थे
तो समझ लीजिए कि हम अस्ताचल की ओर जाते हुए सूर्य हैं।
इसके विपरीत यदि हम अपने आपको जीवंत राष्ट्र और उत्प्रेरक संस्कृति के संवाहक के रूप में स्थापित किए रखना चाहते हैं तो हमें अपने आपको जीवित रखने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा।
उस संघर्ष की प्रेरणा और जीवन शक्ति का अनंत स्रोत हमें अपने महान पूर्वजों की साधनापूर्ण जीवन शैली से प्राप्त होगा। जिसे हमने इस लेख में मैथिलीशरण गुप्त जी की महान और स्तुत्य लेखनी के माध्यम से ऊपर प्रस्तुत किया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य लेखक की पुस्तक “….तो क्या इतिहास मिट जाने दें “,से