भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अनेक ऐसे वीरों ने भी बलिदान दिया, जिन्हें गलत समझा गया। 1981 में ग्राम बड़ी मढ़ौली (अम्बाला, पंजाब) में पण्डित गंगाराम के घर में जन्मे काशीराम ऐसे ही क्रान्तिवीर थे, जिन्हें डाकू समझ कर अपने देशवासियों ने ही मार डाला।
शिक्षा पूरी कर काशीराम ने भारत में एक-दो छोटी नौकरियाँ कीं और फिर हांगकांग होते हुए अमरीका जाकर बारूद के कारखाने में काम करने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने एक टापू पर सोने की खान का ठेका लिया और बहुत पैसा कमाया। जब उनके मन में छिपे देशप्रेम ने जोर मारा, तो वे भारत आ गये। वे अपने गाँव थोड़ी देर के लिए ही रुके और फिर यह कहकर चल दिये कि लाहौर नेशनल बैंक में मेरे 30,000 रु. जमा हैं, उन्हें लेने जा रहा हूँ। इसके बाद वे अपने गाँव लौट कर नहीं आये।
विदेश में रहते हुए ही उनका सम्पर्क भारत के क्रान्तिकारियों से हो गया था। पंजाब में जिस दल के साथ वे काम करते थे, उसे हथियार खरीदने के लिए पैसे की आवश्यकता थी। सबने निश्चय किया कि मोगा के सरकारी खजाने को लूटा जाये। योजना बन गयी और 27 नवम्बर, 1914 को दिन के एक बजे 15 नवयुवक तीन इक्कों में सवार होकर फिरोजपुर की ओर चल दिये।
रास्ते मे मिश्रीवाला गाँव पड़ता था। वहाँ थानेदार बशारत अली तथा जेलदार ज्वालसिंह कुछ सिपाहियों के साथ पुलिस अधीक्षक की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब उन्होंने तीन इक्कों पर सवार अलमस्त युवकों को देखा, तो उन्हें रुकने को कहा। जब वे नहीं रुके, तो थानेदार ने एक पुलिसकर्मी को इनके पास भेजा। इस पर वे सब लौटे और बताया कि हम सरकारी कर्मचारी हैं और सेना में रंगरूटों की भर्ती के लिए मोगा जा रहे हैं।
थानेदार ने उन्हें रोक लिया और कहा कि पुलिस अधीक्षक महोदय के आने के बाद ही तुम लोग जा सकते हो। इन नवयुवकों को इतना धैर्य कहाँ था। उनमें से एक जगतसिंह ने पिस्तौल निकाल कर थानेदार और जेलदार दोनों को ढेर कर दिया। बाकी पुलिसकर्मी भागकर गाँव में छिप गये और शोर मचा दिया कि गाँव में डाकुओं ने हमला बोल दिया है।
गोलियों और डाकुओं का शोर सुनकर मिश्रीवाला गाँव के लोग बाहर निकल आये। थोड़ी ही देर में सैकड़ों लोग एकत्र हो गये। उनमें से अधिकांश के पास बन्दूकें, फरसे और भाले जैसे हथियार भी थे। अब तो क्रान्तिवीरों की जान पर बन आयी। उन्होंने भागना ही उचित समझा। छह युवक ‘ओगाकी’ गाँव की ओर भागे और शेष नौ वहीं नहर के आसपास सरकण्डों के पीछे छिप गये।
अब गाँव वाले सरकण्डों के झुण्ड में गोलियाँ चलाने लगे। पुलिस वाले भी उनका साथ दे रहे थे। एक युवक मारा गया। यह देखकर सभी क्रान्तिकारी बाहर आ गये। उन्होंने चिल्लाकर अपनी बात कहनी चाही; पर गाँव वालों की सहायता से पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। फिरोजपुर के सेशन न्यायालय में मुकदमा चला और 13 फरवरी, 1915 के निर्णय के अनुसार सात लोगों को फाँसी का दण्ड दिया गया। वीर काशीराम भी उनमें से एक थे।
उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। इन सबको तीन समूहों में 25, 26 और 27 मार्च, 1915 को फाँसी दे दी गयी। काशीराम को फाँसी 27 मार्च को हुई। यह उनका दुर्भाग्य था कि उन्हें डाकू समझा गया, जबकि वे आजादी के लिए ही बलिदान हुए थे।