वेद वाणी
सत्सङ्ग का महत्व है कि – हम पृथ्वी को यज्ञ करने का स्थान समझे हम वनस्पति की हिंसा करने वाले न हो! सत्सङ्ग हम पर ज्ञान वर्षा करे, हम सत्सङ्ग में अवश्य जाये इनसे तो हमारा शत्रु भी वञ्चित न हो!
(पृथिवी देवयजन्योषध्यास्ते
मूलं मा हिंसिषं व्रत गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव सवित: परमस्यां पृथिव्याम शतेन पाशैर्योऽस्मान्द्वेष्टि यं च
वयं द्विष्मस्तमयो मा मौक्
यजुर्वेद १-२५
व्याख्या संसार की वस्तुओं का प्रयोग स्वार्थ की भावना से उपर उठकर करना ही श्रैयस्कर है! इस स्थिति में पर – मांस से स्वमांस के संवर्धन का प्रश्न ही नहीं उठता है! और वनस्पतियों में ही जीव है, अत: उनके पत्रं, पुष्पं फलम्
का प्रयोग हो सकता है! क्योंकि ये हमारे नख लोगों की भांति वनस्पतियों के मल है! उनके मूल की हिंसा तो हिंसा ही हो जायेगी! अत: भक्त प्रार्थना करता है कि- हे
देवयजनि पृथिवी ते ओषध्या: मा हिंसिषम् देवताओं के यज्ञ करने की आधारभूत पृथिवी! मै तेरी इन औषधियों के भी मूल को हिंसित न करूँ! हाँ जिस प्रकार मृत्यु के चमड़े आदि का प्रयोग निषिद्ध नहीं है, उसी प्रकार मृत वनस्पतियों के भी जड़ त्वगादि का औषधियों में प्रयोग हो सकता है!
२- इस ऊचे दर्जे की अहिंसा की भावना हममें उत्पन्न हो सके! इसके लिए कहते हैं कि जिससे मनुष्यों के ज्ञान का वर्धन होता है उस सत्सङ्ग को तुम प्राप्त करो
जो (गोष्ठानम्)वेद वाणी का प्रतिष्ठा स्थान है जिससे सदा ज्ञान वाणियों का प्रचार होता है! (ख) इन सत्सङ्गो में द्यौ: ते विद्या का प्रकाश तेरे लिए ज्ञान की वर्षा करे! हम सत्सङ्गो में जायें और ज्ञान की वर्षा से आध्यात्मिक संताप को दूर करके शांति का लाभ करें!
३- अब प्रार्थना करते हैं कि
हे सवित:देव परमस्यां पृथिव्याम शतेन पाशै: बधान सबके प्रेरक दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु! आप हमें इस सत्सङ्ग की आधारभूत उत्कृष्ट भूमि में पृथिवी के प्रदेश में सैकड़ों बंधनों से बांधने की कृपा कीजिये! हमारी सत्सङ्ग में रुचि बनी रहे, न चाहते हुए भी सत्सङ्ग में हम जाये और माता पिता की आज्ञा पालन
आदि सद्गुण हमें सत्सङ्ग में पहुचने का कारण बनती रहे! हे प्रभु! आप ऐसी व्यवस्था कीजिये कि- यथा न: सर्व इज्जन: संगत्या सुमना असत् जिससे हमारे सभी लोग उत्तम सत्संगति से उत्तम मनों वाले बनें! (ख) हे प्रभु! आप ऐसी कृपा कीजिये कि य: अस्ताना द्वेष्टि च यं वयं द्विष्म: तम् अत: मा मौक्
जो एक व्यक्ति हम सब के साथ द्वेष करता है और परिणामतः जिसे हम अप्रिय समझते हैं उसे भी इस उपदेश से रहित मत कीजिये ! यह भी सत्सङ्ग में होने वाले इन उपदेशों से वञ्चित न हो! सत्सङ्गो से वह भी पवित्र मन वाला होकर द्वेष आदि मलों से रहित हो जाये! मन्त्र का भाव है कि- हम इस पृथिवी पर यज्ञ करके इसे पवित्र बनायें सत्सङ्ग के महत्व को समझे, इससे हमारा ज्ञान बढेगा और हमारा शत्रु भी सत्सङ्ग से वञ्चित नहो
सुप्रभात सुमन भल्ला
बहुत से लेख हमको ऐसे प्राप्त होते हैं जिनके लेखक का नाम परिचय लेख के साथ नहीं होता है, ऐसे लेखों को ब्यूरो के नाम से प्रकाशित किया जाता है। यदि आपका लेख हमारी वैबसाइट पर आपने नाम के बिना प्रकाशित किया गया है तो आप हमे लेख पर कमेंट के माध्यम से सूचित कर लेख में अपना नाम लिखवा सकते हैं।