होली-पर्व : क्यों और कैसे मनाये 2
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डॉ डी के गर्ग
पार्ट- २
पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है जो नितान्त मिथ्या है।
प्रश्न: क्या होली पर गोबर की बुरकली जलने से ,सामूहिक यज्ञ से ,चना और जौ की बलिया अग्नि में भुनने से पर्यावरण प्रदूषित होता है ?
जिनको लगता है कि होली जलाने से प्रदूषण होता है। प्रदूषण गलत वस्तुओं के जलने से होता है। होलिका दहन करने की परंपरा कारण गाँव-गाँव को संक्रमित रोगों से बचाने का था।
आयुर्वेद के अनुसार दो ऋतुओं के संक्रमण-काल में मानव शरीर रोग और बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार शिशिर ऋतु के प्रभाव से शरीर में कफ की अधिकता हो जाती है और बसंत ऋतु में तापमान बढने पर कफ के शरीर से बाहर निकलने की क्रिया में कफ दोष पैदा होता है, जिसके कारण सर्दी खांसी, सांस की बीमारियों के साथ ही गंभीर रोग जैसे खसरा, चेचक आदि होते हैं। इनका बच्चों पर प्रकोप अधिक दिखाई देता है। इसके अलावा बसंत के मौसम का मध्यम तापमान तन के साथ मन को भी प्रभावित करता है। यह मन में आलस्य भी पैदा करता है। इसलिए स्वास्थ्य की दृष्टि से होलिकोत्सव को विधानों में आग जलाना, अग्नि परिक्रमा, नाचना-गाना, खेलना आदि शामिल किये गए। शरीर की ऊर्जा और स्फूर्ति कायम रहती है। शरीर स्वस्थ रहता है।
भारतवर्ष में होलिकादहन इन्हीं कारणों से होता था ताकि होलिका दहन से निकली वायु पूरे गांव को लाभान्वित कर सके। होलिका दहन से पूरे गाँव का वातावरण सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम हो सके।
होलिका दहन- होलिका दहन यज्ञ का ही दूसरा रूप है।इसकी सामग्री विशेष रूप से तैयार की जानी चाहिए।
वैज्ञानिक रूप से सामग्री तैयार की जाये: इस माह के पश्चात् वातावरण में कीट का प्रकोप प्रारंभ हो जाता है।इसके परिणामस्वरूप नई बीमारियां अपना रूप दिखाने लगती हैं। इसलिए यज्ञ सामग्री ऐसी हो जिसके द्वारा कीटाणुओं का नाश हो।
हवन सामग्री में गाय के सूखे गोबर, गाय का घी, कपूर कचरी, नीम के पत्ते, नागरमोथा सुगंध-कोकिला, सोमलता, जायफल, जावित्री, जटामांसी अगर तगर चिरायता, हल्दी, गिलोय, गूगल, जौं, तिल आदि जड़ी-बूटियों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया जाए।विभिन्न प्रकार के औषधीय जड़ी-बूटियाँ आदि सामग्री डालने से इनके अंदर के रसायन भी सूक्ष्म रूप में निकलते हैं जो पूरे गांव को वायु के कण के रूप में पोषण व सुगन्ध प्रदान करते है। होली के यज्ञ में जावित्री की आहुति वायरस का काल है। जावित्री केवल सुगंधीकारक ही नहीं रोग नाशक भी है। जब जावित्री को यज्ञ सामग्री में मिलाकर व खेतों में उगे हुए गेहूं, जौं की बालियों को मिलाकर यज्ञ किया जाए तो यह खतरनाक वायरस मानव शरीर तो क्या गाँव की सीमाओं में भी नहीं घुस सकते।
जावित्री कोई बहुत महंगा मसाला नहीं है 170 रूपए में 100 ग्राम मिलती है अर्थात् 1700 रूपए किलो है 1 किलो जावित्री से एक गांव को वायरस से मुक्त किया जा सकता है यदि विधिवत यज्ञ किया जाए । साथ ही ऋतु अनुकूल सामग्री इस्तेमाल में लाई जाए।
शायद गांव के बाहर मुहाने में यह होलिका दहन करने की परंपरा इन्हीं कारणों से थी ताकि इन से निकली हुई वायु पूरे गांव को लाभान्वित कर सके एवं पूरे गाँव का वातावरण सुगन्धिम पुष्टि वर्धनम हो सके, इस यज्ञ में लकड़ी का प्रयोग न करें तो अच्छा होगा।
होली के अगले दिन यज्ञ की राख को शरीर पर मलने की परम्परा: वर्ष में एक बार इस भस्म को हमारे शरीर में अच्छे से लगा लेने से शरीर के अंदर की नकारात्मक उर्जा भी समाप्त होती है। गौ के गोबर के उपलों की राख को शरीर पर मलने से शरीर शुद्ध होता है। इसमें छिपा बैक्टीरिया नष्ट होता है। चर्म-रोग ठीक होते हैं और शरीर को सर्दी ऋतु से गर्मी ऋतु में प्रवेश करना आसान हो जाता है।
शरीर पर रख मलने के उपरांत ढ़ाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी शुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।
होली के मौके पर अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल गंद मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है।