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✍️मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
सम्पूर्ण भारत में होली का त्यौहार मनाया जा रहा है। इस अवसर पर दो तरह के लोगों से विशेषतौर पर सावधान रहने की परम आवश्यकता है।
पहले वह तमाम शराबी लॉबी जो होली पर शराब पीकर हुड़दंग मचाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती है।
और दूसरे वह तमाम “भाईजान” जो तमाशा घुसकर देखेंगे वाली कहावत पर अक्षरशः ख़रा उतरने की हरसम्भव कोशिश करते हैं।
दरअसल, शराब पीकर हर इंसान को अपनी मां-बहन-बेटी की तो पहचान रहती है, और उनकी इज़्ज़त का भी पूरा ख़्याल रहता है। लेकिन दूसरों की बहन-बेटियों पर कीचड़ उछालने, उनके साथ बदतमीज़ी करने, उनके सामने गाली-गलौच करने, उनकी इज़्ज़त को तार-तार करने और रंग लगाने के बहाने उनके नाज़ुक अंगों को सहलाने एवं अश्लीलता की समस्त हदें पार करने को, वह अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। उसे लगता है कि दो घूंट शराब पीने के बाद उसे किसी के भी साथ मारपीट करने अथवा छेड़छाड़ करने का संवैधानिक अधिकार मिल गया है।
प्रश्न यह है कि ऐसे “शराबी” अपनी मां-बहन-बेटियों को सन्दूक में क्यों बंद कर देते हैं, आखिर उनके साथ क्यों नहीं नाचते-गाते, उनके नाजुक अंगों पर रंग क्यों नहीं लगाते हैं, उनके साथ छेड़खानी क्यों नहीं करते??
दूसरे वह तमाम भाईजान जो ख़ास होली के दिनों में टिनोपाल से धुला उजला लंबा कुर्ता और छोटा पायजामा पहनकर हर उस गली-मौहल्ले में घूमते दिखाई देंगे, जिसमें हर ओर होली के रंग बिखेरे जा रहे होते हैं।
इन भाईजानों को जब यह मालूम है कि अगर रंग का एक छींटा भी उनके किसी अंग पर पड़ गया तो उसी अंग को कथिततौर पर जहन्नुम की आग में जलाया जाएगा, तो भला यह तमाम भाईजान तमाशा घुसकर देखने को क्यों लालायित रहते हैं।
अब अगर किसी “शराबी भाई” ने गंगा-जमुनी तहज़ीब का हवाला देकर “भाईजान” पर रंग डाल दिया तो फिर भाईजान गुस्सा क्यों होते हैं??
हम तो यही सलाह देंगे कि अगर होली के रंगों से दिक़्क़त है तो अपने घर में बैठो, सड़कों पर घूमोगे तो रंग तो लगेगा ही लगेगा।
भाईजान बुरा न मानो होली है।
✍️समाचार सम्पादक, हिंदी समाचार-पत्र,
उगता भारत
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