होली अधर्म के विनाश का प्रतीक है इस्लामिक समभाव का नहीं
- दिव्य अग्रवाल (लेखक व विचारक)
होली का पर्व सेक्युलरिज्म या सद्भाव का नहीं अपितु दुष्टो के संहार और सनातनी शक्ति का पर्व है –
सनातन समाज का दुर्भाग्य है की इस पर्व में मुस्लिम भाईचारे का विष घोल दिया है । प्रह्लाद की सौम्य भक्ति के परिणाम स्वरूप नारायण ने नरसिंह भगवान का उग्र रूप धारण कर अधर्म का नाश किया लेकिन आज का सनातनी समाज इस पर्व में उन लोगो को अपने घर बिठाते हैं । जिनका इस पर्व से कोई सम्बन्ध ही नहीं । मुस्लिम समाज के लोग जो घर के पुरुषों के मित्र हैं वो सनातनियो के घर जाकर , सनातनियों की माताओं , बहनों , बेटियों को तो रंग लगाते हैं लेकिन कभी सनातनियों को अपने घर ले जाकर अपनी, आपा , खाला , फूफी , व बहनों के रंग नहीं लगवाते यह कैसा आपसी समभाव है।
समाज क्या मूर्ख है-
जब इस्लामिक समाज बुर्के या परदे के नाम पर अपने परिवार को मजहबी सुरक्षा घेरे में रखता है तो क्या आवश्यकता है की सनातनी समाज अपनी परिवार की महिलाओं से कटटरपंथियों के समक्ष , गुंजिया , कांजी बड़े , दही भल्ले आदि पुरसवायें व्यंजन जाएँ । सभ्य समाज को शायद अंदाज़ा भी नहीं होगा की क्षेत्रीय मजहबी स्थलों से मजहबी समाज को न सिर्फ शिक्षा अपितु आर्थिक मदद इसलिए दी जाती है की गैर इस्लामिक समाज से मित्रता करो ,उनकी महिलाओं को यह विश्वास दिलाओं की इस्लाम सभी धर्मों का सम्मान करता है । तत्पश्चात सनातनी महिलाओं,बेटियों को प्रेम जिहाद में फंसाकर उन्हें बगावती कर इस्लाम में ले आओ । अतः सनातन समाज को इस आपसी समभाव के षड्यंत्र से बाहर निकलकर अपने धार्मिक पर्वों को अपने ही लोगों के साथ मनाकर अपने परिवार की सुरक्षा और मान सम्मान को सुनिश्चित करना चाहिए ।
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