……तो क्या इतिहास मिट जाने दें ? अध्याय 1 इतिहास का विकृतिकरण और सर्वोच्च न्यायालय
अभी हमारे सर्वोच्च न्यायालय की ओर से एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय आया है। जिस पर समाचार पत्रों में जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी हो नहीं पाई है। इससे पता चलता है कि हम घटनाओं के प्रति कितने उदासीन और तटस्थ हो गए हैं ? माना कि सर्वोच्च न्यायालय पर हम बहुत अधिक टीका टिप्पणी नहीं कर सकते। पर राजा और न्यायाधीश दोनों को ही जनता की ओर से उचित परामर्श देने की भारत की प्राचीन परंपरा रही है। इसका कारण यह है कि राजा और न्यायाधीश दोनों ही एक व्यक्ति पहले होते हैं, संस्था बाद में, और व्यक्ति से किसी भी प्रकार की गलती होने की पूरी संभावना होती है।
अब अपने मूल विषय पर आते हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शहरों और कस्बों के प्राचीन नामों की पहचान के लिए ‘रिनेमिंग कमीशन’ बनाए जाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी है। इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि देश अतीत का कैदी बन कर नहीं रह सकता। धर्मनिरपेक्ष भारत सभी का है। देश को आगे ले जाने वाली बातों के बारे में सोचा जाना चाहिए।
औपनिवेशिक इतिहास को सभी देशों ने बदला है
हमारा मानना है कि भारत अतीत की जेल में आज उस समय भी कैदी है जब वह विदेशी आक्रमणकारियों की गुलामी के प्रतीक चिन्हों को ढोने के लिए अभिशप्त है। सोने पर यदि धूल आ जाए तो क्या उसे आप लोहे के कबाड़ के ढेर में यह मान कर फेंक देंगे कि हमें अतीत की जेल की कैद में नहीं रहना है और चूंकि सोने पर मैल या धूल की चादर मोटी हो गई है, इसलिए इसे अब धोना या साफ करना उचित नहीं । अतः इसे लोहे के कबाड़ में फेंक कर कबाड़ के भाव बेच दिया जाए ? यदि ऐसी मानसिकता प्रत्येक स्थिति परिस्थिति, वस्तु और वस्तुस्थिति के प्रति अपना ली जाएगी या अपना ली जाती है तो फिर हिंदी संस्कृत साहित्य में निरीक्षण, परीक्षण ,समीक्षण, परिमार्जन और परिष्कार जैसे शब्दों का कोई औचित्य नहीं। न्यायालयों के निर्णयों में आदेश का भाव नहीं होना चाहिए अपितु वैसे दिखने भी चाहिए, जिससे न्याय होता हुआ भी लगे।
इस संदर्भ में क्या यह उचित नहीं है कि अनेक विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के मौलिक स्वर्णिम स्वरूप को विकृत और अपभ्रंशित करने का अथक और दंडनीय अपराध किया ?
यदि किया है तो क्या उस किए हुए की क्षतिपूर्ति नहीं होनी चाहिए? यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब रूस जैसे देश ने भी 1928 में अपना इतिहास लिखकर इतिहास की कलंकित विचारधारा को मिटाने का सफल प्रयास किया। इसी प्रकार अन्य देशों ने भी किया है। पाकिस्तान ने तो अपना सारा हिंदू इतिहास बदल कर उसे इस्लाम के रंग में रंग दिया है। दुनिया का यह सर्वमान्य और सर्व स्वीकृत सिद्धांत है कि उपनिवेशवादी व्यवस्था के काल में प्रत्येक उस देश ने अपने उपनिवेश देश का इतिहास बदलने का प्रयास किया, जिसने उपनिवेशवादी व्यवस्था में विश्वास रखते हुए दूसरों की स्वतंत्रता का हनन किया था। संसार के देश जैसे-जैसे स्वतंत्र होते गए वैसे वैसे ही उन्होंने अपने अपने इतिहास को लिखने और उसे अपनी आने वाली पीढ़ियों को समझाने का प्रयास किया।
भारत को भी इतिहास का सच सामने लाना होगा
क्या भारत की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा भारत को अपने इतिहास और ऐतिहासिक स्थानों के बारे में कुछ भी ऐसा करने से रोकती है जो उसके इतिहास के सच को उसकी आने वाली पीढ़ियों के सामने लाने में सहायक हो सकता है? यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्षता भारत के पैरों की एक बेड़ी है और यह केवल आततायियों के मानस पुत्रों को संरक्षण देने वाला एक आत्मघाती सिद्धांत ही माना जाना चाहिए। भारत के बहुसंख्यक समाज की उदारता का अभिप्राय यह नहीं कि वह अपने आप को सभ्यताओं की दौड़ में मार ले या जानबूझकर अपने आप को इस दौड़ से बाहर कर ले। यदि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यही है कि भारत अपने आपको ना तो समझ पाए और ना अपने आप को गौरव पूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर पाए तो माना जाना चाहिए कि इस विचार या विचारधारा को भारत में मजबूत करने वाले सभी लोग और संस्थान भारत की आत्मा के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। हमारे विचार से धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत वास्तव में पंथनिरपेक्षता का सिद्धांत है जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने मजहब की आस्था के प्रति निष्ठावान रहने और अपने मजहबी कर्तव्यों को पूर्ण करने की गारंटी देता है। हमारे देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज पंथनिरपेक्षता के इस सिद्धांत का न केवल समर्थन करता है अपितु इस विचार को संसार को देने वाला सबसे पहला धर्म वैदिक धर्म ही है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
लेखक की नई पुस्तक …..तो क्या इतिहास मिट जाने दें, से साभार