लेखकीय निवेदन
मंदिरों में रखी जाने वाली मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करने की भारत की पौराणिक परंपरा कितनी वैज्ञानिक है और कितनी अवैज्ञानिक है ?- इस पर हमें कोई चर्चा नहीं करनी है। पर आज हम इतना अवश्य कहना चाहते हैं कि हिंदू समाज की राष्ट्र और धर्म के प्रति बढ़ती जा रही निष्क्रियता और तटस्थता की आपराधिक भावना (अपवादों को छोड़कर )अतीत में देश के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुई है। यदि इस प्रकार की आपराधिक तटस्थ भावना को रोका नहीं गया तो यह भविष्य में और भी अधिक घातक सिद्ध होगी। अतः मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले लोग हिंदुओं की इस निष्क्रियता और तटस्थता की भावना को समाप्त करने के लिए अर्थात मरती हुई हिंदू जाति में प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए आगे आने चाहिए।
खूनी खेल का नाम राष्ट्र नहीं
देश, धर्म और समाज में छाई हुई निष्क्रियता को समाप्त करने के लिए समाज के जागरूक लोग राष्ट्र की गति को सतत प्रवाहित रखते हैं। हमारे इतिहास में भी ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने समाज में किसी भी प्रकार की छा रही निराशा, उदासीनता या निष्क्रियता की भावना को मिटाने का समय- समय पर उल्लेखनीय और सराहनीय कार्य किया है। जो राष्ट्र जागरूक होते हैं, वही समय की धारा की चुनौती का सामना करने का साहस कर पाते हैं और विपरीत परिस्थितियों की धारा को मोड़ने में सफल होकर अपने राष्ट्र की रक्षा कर पाते हैं। राष्ट्र का निर्माण युद्ध से नहीं होता। ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र का निर्माण सदविचारों की पवित्रता और उत्कृष्टता से होता है।
मुसलमान और ईसाई लोगों ने जबरन दूसरे देशों के साथ युद्ध कर उनके इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा को मिटाकर युद्ध के बल पर राष्ट्र खड़े करने का प्रयास किया, पर ऐसा हो नहीं सका।
यदि कहीं जनसंख्या में भारी परिवर्तन कर इन संप्रदायों ने सफलता प्राप्त कर भी ली है तो वहां पर आज तक खूनी खेल खेला जा रहा है। खूनी खेल का नाम भी राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र के लिए देशवासियों में पारस्परिक सद्भाव और एक दूसरे के प्रति करुणा का भाव होना भी आवश्यक होता है। यदि ऐसा नहीं है तो समझा जाना चाहिए कि ऐसे देशवासी अभी भी राष्ट्र का निर्माण नहीं कर पाए हैं।
श्रेष्ठ ब्राह्मण समाज करता था राष्ट्र निर्माण
राष्ट्र निर्माण के लिए हमारे देश में एक बुद्धिजीवी वर्ग को मान्यता दी गई थी, जिसे ब्राह्मण कहा जाता था। ब्राह्मण राष्ट्र के निर्माण के लिए सतत क्रियाशील रहता था। वह अपवित्रता, छुआछूत, ऊंच-नीच आदि की समाजविरोधी और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को पनपने तक नहीं देता था। ब्राह्मण अर्थात विद्वानों की पवित्रता उनकी निष्पक्षता और उनका समाज के प्रति पवित्र दृष्टिकोण समरस समाज की स्थापना कर समरसतावादी राष्ट्र का निर्माण करता था। जिसकी रक्षा करने का दायित्व क्षत्रिय पर होता था । इस राष्ट्र की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वैश्य समाज अपने आप को समर्पित करता था। जबकि सेवा भाव के लिए शुद्र समाज अपनी सेवाएं प्रदान करता था । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने शुद्र समाज के प्रति सेवाभावी होते थे। इस प्रकार राष्ट्र निर्माण की पूरी प्रक्रिया चक्राकार में घूमती थी। किसी का शोषण नहीं, किसी का दमन नहीं, किसी के प्रति ईर्ष्या भाव नहीं, किसी के प्रति घृणा नहीं। प्रेम पूर्ण सृष्टि, प्रेमपूर्ण दृष्टि, प्रेम पूर्ति वृष्टि - यह था भारत के समतावादी राष्ट्र का आधार।
यह भारत का दुर्भाग्य रहा कि कालांतर में जाति आधारित ब्राह्मण समाज ने इसी प्रकार की अपवित्रता को प्रोत्साहित किया। इसी के लिए आर0एस0एस0 प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ समय पहले कहा था कि ब्राह्मणों ने जातिवाद और अस्पृश्यता को लेकर कई प्रकार की गलतियां की हैं।
हमारे देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब यहां के अनेक सम्राटों ने विश्व का नेतृत्व किया था ,सागर मंथन करने की परंपरा भी भारत के पुरुषार्थ की ओर संकेत करती है। बौद्धिक संपदा संपन्न हमारे ऋषि किस प्रकार उपनिषदों की व्यवस्था किया करते थे और उनकी रचना कर देश ,समाज व राष्ट्र को सृष्टि प्रलय पर्यंत जीवित और सुरक्षित रखने के लिए चिंतन दिया करते थे, यह कार्य भी भारत ने ही किया है।
विदेशी आक्रमणकारी और भारतीय समाज
जब विदेशी आक्रमणकारियों के गिद्धों के दल भारत को नोंचने लगे थे तो उस समय भी अनेक संस्कृति रक्षक महापुरुषों ने अपने आप को राष्ट्र रक्षा के महान कार्य के लिए प्रस्तुत किया था। राजा नागभट्ट द्वितीय ने अब से लगभग 1200 वर्ष पहले शुद्धि आंदोलन चलाकर लोगों की ‘घर वापसी’ सुनिश्चित की थी। इसी बात को आगे चलकर बाबर की मृत्यु के पश्चात राव लूणकरण भाटी ने संपन्न किया था । भारत के पराभव के उस काल में अनेक संतों ने भी इस महान कार्य को निरंतर जारी रखा, जिससे हिंदू जाति की रक्षा की जा सकी। भारतीय इतिहास में उन नकारात्मक बातों का उल्लेख तो किया जाता है जिसे भारतीय समाज की कमजोरी की जानकारी हो पर उन तथ्यों को जानबूझकर नजरों से ओझल किया जाता है जिनसे भारतीय हिंदू समाज की एकता को मजबूती मिले। देश के प्रति नकारात्मक सोच रखने वाले या काल विशेष में गद्दारी करने वाले लोगों का उतना उल्लेख किया जाना उचित नहीं जितना देश के प्रति वफादारी रखने वाले राष्ट्र भक्तों का उल्लेख किया जाना उचित है।
राव लूणकरण भाटी ने तो जबरन मुसलमान बनाए गए हिंदू भाइयों की ‘घर वापसी’ के अभियान को सफल बनाने का एक अनूठा ही प्रयोग कर डाला था। जैसलमेर के शासक राव लूणकरण भाटी ने जब यह कार्य संपादित किया था तो उस समय उसके संकेत पर बड़ी संख्या में मुसलमान बने हिंदू लोग ‘घर वापसी’ के लिए एक स्थान विशेष पर एकत्रित हो गए थे। राजा ने जब देखा कि बहुत बड़ी संख्या में लोग ‘घर वापसी’ के लिए आ गए हैं तो उन्होंने एक-एक व्यक्ति की शुद्धि न कराकर ऊंचे मंच से खड़े होकर आवाज लगाई थी कि “भाईयो ! कुछ समय पश्चात इस मंच से शंख ध्वनि होगी। शंख ध्वनि में गूंजते हुए ‘ओ३म’ की आवाज जिन- जिन लोगों के कानों में पहुंच जाए ,वही- वही लोग अपने आपको फिर से वैदिक धर्मी स्वीकार करें।
राव लूणकरण भाटी और घर वापसी का यज्ञ
हमें ज्ञात है कि इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जब मुसलमानों ने मस्जिदों से आ रही कलमे की आवाज को सुना – सुनाकर ही लोगों को हिंदू से मुसलमान बना दिया था। राजा लूणकरण भाटी ने बड़ी संख्या में लोगों को शंख की ध्वनि के माध्यम से 'ओ३म' का संगीत सुनाकर मुसलमानों के इन अत्याचारों का तुर्की ब तुर्की जवाब दिया था। निश्चित रूप से ऐसे महापुरुषों के इस प्रकार के महान कार्यों को स्मरण रखने की आवश्यकता है। यदि राव लूणकरण भाटी जैसे लोग उस समय 'घर वापसी' के इन बड़े-बड़े यज्ञों को ना रचते तो क्या होता ? निश्चित रूप से तब आज का भारतवर्ष हिंदुओं की शरणस्थली के रूप में दिखाई न देता। राम लूणकरण भाटी को आज हम केवल इसलिए नहीं भूल सकते कि धर्मनिरपेक्षता के इस कल में उन लोगों को याद नहीं किया जाना चाहिए जिन्होंने हिंदू और मुस्लिम के बीच खाई पैदा की थी। जब ऐसी मूर्खतापूर्ण बात कहीं आपके सामने की जाएं तो उस समय ऐसा कहने वाले लोगों को यह बताया जाना चाहिए कि राव लूणकरण भाटी जैसे लोग तो हिंदू मुस्लिम के बीच पैदा की गई खाई को पाट रहे थे। वास्तविक अपराधी वे लोग हैं जिन्होंने इस देश के मौलिक धर्म और संस्कृति के साथ छेड़छाड़ करते हुए उसे मिटाने का अपराध किया और बड़ी संख्या में लोगों को अपने धर्म और संस्कृति को छोड़ने के लिए मजबूर किया। उन्होंने हिंदू मुस्लिम के बीच जिस खाई को पैदा किया था उसे पाटने का काम करते हुए राव लूणकरण भाटी जैसे लोगों ने घर से बाहर चले गए लोगों को घर में फिर से बुलाया। ऐसा करके उन लोगों ने बड़ा कार्य किया था।
श्रद्धानंद जी महाराज और घर वापसी का यज्ञ
हमारे लिए सौभाग्य की बात है कि स्वामी श्रद्धानंद जी जैसे महानायक ने अपने पूर्वजों की इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए 'शुद्धि आंदोलन' को नई गति और नई दिशा प्रदान की थी। उस समय कांग्रेस और कांग्रेस के नेता गांधीजी किसी भी स्थिति में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज द्वारा चलाए जा रहे 'शुद्धि आंदोलन' के समर्थक नहीं थे। वह नहीं चाहते थे कि इतिहास की बीमारियों का इलाज किया जाए। वह रोगी को रोगी ही बने देखना चाहते थे। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि अतीत में मुसलमान ने जिस प्रकार जनसांख्यिकीय आंकड़ों को गड़बड़ाकर वैदिक सत्य सनातन धर्म विश्वास रखने वाले हिंदू समाज का भारी अहित किया था उसकी ओर से गांधी जी और उनकी कांग्रेस पीठ पर खड़े हो गए थे। वह नए विभाजन की मांग की ओर बढ़ते मुस्लिम समाज को रोकना भी नहीं चाहते थे। उन्होंने यह मन बना लिया था कि यदि इतिहास मिट गया है तो मिट जाने दो। हम हम उसकी ओर देखेंगे भी नहीं। जबकि स्वामी श्रद्धानंद जी की दृढ़ धारणा थी कि इतिहास मिट रहा है तो हम उसे मिटने नहीं देंगे बल्कि फिर से जीवित करेंगे और उससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ेंगे।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने कांग्रेस और गांधी जी की 'अड़ंगा डालने' की नीति की तनिक भी परवाह नहीं की और वह निरंतर छाती तानकर अपने कार्य में लगे रहे। गांधीजी ने अनेक प्रयास किए कि स्वामी श्रद्धानंद जी 'शुद्धि आंदोलन' को बंद कर दें, परंतु उन्होंने इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। गांधी जी ने उस समय 'हरिजन पत्रिका' और 'यंग इंडिया' में स्वामी श्रद्धानंद के शुद्धि कार्यक्रम के विरुद्ध आलोचनात्मक लेख लिखे थे। उन्होंने स्वामी श्रद्धानंद जी को शुद्धि आंदोलन को बंद करने की सलाह देते हुए उन्हें इस प्रकार के कार्यों को लेकर बहुत बुरा भला कहा था। इस प्रकार कांग्रेस के नेता उपचारक और उपकारक को ही गाली देने पर उतर आए थे। गांधी जी द्वारा लिखे गए इन लेखों से प्रेरित होकर मुसलमानों ने एक योजना के अंतर्गत स्वामी श्रद्धानंद जी की हत्या करवा दी थी। उस पर भी गांधी जी ने स्वामी श्रद्धानंद जी के हत्यारे को भाई कह कर संबोधित किया था।
9 लाख लोगों ने की ‘घर वापसी’
स्वामी श्रद्धानंद जी और पंडित लेखराम जैसे शुद्धि आंदोलन के महानायकों के अथक प्रयासों के कारण 30 वर्षों में लगभग 9 लाख परिवार मुसलमान से हिंदू वैदिक धर्म में वापस आ गए थे। उस समय की परिस्थितियों में यह बहुत बड़ी सफलता थी। जब गांधी जी और उनकी कांग्रेस तक भी राष्ट्र के लिए किए जा रहे इस महत्वपूर्ण यज्ञ में साथ नहीं दे रहे थे, तब हमें समझना चाहिए कि हमारे धर्म योद्धाओं के लिए कितनी बड़ी-बड़ी समस्याएं सामने आई होंगी ? इतिहास में इस प्रकार के महान कार्यों का वंदन होना चाहिए था। परंतु वंदन, अभिनंदन या नमन की प्रक्रिया को न अपनाकर ऐसे कार्यों का कांग्रेस और कांग्रेस के इतिहास लेखकों ने बहिष्कार ही कर दिया। इसके पीछे गांधी जी की प्रेरणा काम कर रही थी। गांधी जी की प्रेरणा पर काम करते हुए उनके शिष्य जवाहरलाल नेहरू ने अपने प्रधानमंत्री काल में इतिहास को जानबूझकर मिटने दिया। उस समय मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे जल्लाद द्वारा कुचले जा रहे इतिहास ने कई बार आशाभरी नजरों से नेहरू की ओर देखा, पर नेहरू की आंखें उस समय पत्थर की हो चुकी थीं।
चमनलाल रामपाल वेदरतन की पुस्तक “धरातल पर स्वर्ग धाम :अपना राष्ट्र” के पृष्ठ संख्या 53 से हमें पता चलता है कि जिस समय स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज शुद्धि आंदोलन कर 'घर वापसी' के यज्ञ रचा रहे थे, उस समय 3 गांवों के मध्य में बहुत बड़ा हवन किया जाता था और हवन की पूर्णता पर शंखनाद द्वारा शंख ध्वनि की जाती थी । जहां – जहां यह ध्वनि सुनाई देती, वहां – वहां तक के लोग वैदिक धर्म में दीक्षित हुए मान लिए जाते थे। स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज दम तोड़ते इतिहास को ढूंढ ढूंढकर संजीवनी दे रहे थे, वह रोगी का सही उपचार कर रहे थे।
शेष कल
डॉ राकेश कुमार आर्य