- सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
भारतवर्ष में वनसंपदा का बहुत महत्व है। मान्यता है कि सघन वनों की छाया में ही भारतीय संस्कृति पनपी है। भारतीय जनमानस को इन्हीं वनों की छाया में साधनारत महापुरुषों से समय समय पर आदर्श जीवन संदेश प्राप्त होता रहा है। वृक्षों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्ता के अतिरिक्त भारतीय जन जीवन में वृक्षों का अधिकाधिक महत्व भी हैं। लकड़ी की उपयोगिता तो रही ही है, साथ ही पत्तियों, फूलों और फलों आदि का भी विशेष महत्व रहा है। वैद्यक शास्त्र में इन वस्तुओं की बड़ी महिमा तथा उपयोगिता बताई गई है।
भारत वर्ष के अविभाजित मध्यप्रदेश (छत्तीसगढ़ सहित) का यह भू-भाग, काफी पहले से अपने वनाच्छादित सौदर्य के लिये प्रसिद्ध रहा है! विंध्य पर्वतमाला के दक्षिण में ही स्थित रहा है! वह गहन वनक्षेत्र वही स्थित रहा है! उस गंभीर वनक्षेत्र का काफी बड़ा भाग जो दण्डक वन अथवा दण्डक अरण्य कहलाता था! आज भी प्रदेश का सत्ताईस प्रतिशत भू भाग वनाच्छादित है! वास्तव में प्रदेश का वन परिवेश अनुपम अदभूत हैं! वनसंपदा की दृष्टि से प्रदेश देश का सर्वाधिक समृद्धिशाली राज्य हैं। इस राज्य को प्रकृति ने विशाल वनसंपदा प्रदान की हैं! प्रदेश में लगभग हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन हैं, जो राज्य में भू भाग का लगभग पैंतीस प्रतिशत पर्यावरण, भूमि तथा जलीय दृष्टि से हमारे वन देश के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण हैं! संपूर्ण देश की आदिवासी जनसंख्या का बीस प्रतिशत मध्यप्रदेश में हैं! और उनमें से अधिकांश वनक्षेत्र में निवास करते हैं! इनके हित वनों से जुड़े हुये हैं! सात प्रमुख नदियों का जल स्त्रोत एवं पर्यावरण का आधार होने के साथ साथ हमारे जंगलों पर बढ़ती हुई आबादी का प्रभाव तो हैं ही साथ ही साथ आबादी की बढ़ती हुई जरूरतों से भी कम प्रभावित हो रहे हैं।
वनों के बिना प्रदेश की कल्पना नहीं कर सकते हैं! प्रदेश के विकास, आर्थिक संपन्नता का आत्मनिर्भरता की कुंजी प्रदेश के निहित है! यह न केवल अपनी बल्कि अपने पड़ोसी राज्यों की भी जरूरतों को पूरा करता रहा है। स्पष्ट है कि पर्यावरण और सामाजिक मनुष्य की आर्थिक विकास की पूर्ति के राष्ट्रीय संदर्भ में प्रदेश का बहुत बड़ा महत्व है। लगभग 15 लाख घन मीटर लकड़ी तीन करोड़ बांस, 50 लाख मानक बोरा तेंदूपत्ता, चालीस हजार टन साल बीज, दस हजार टन हरी और अनेक महत्वपूर्ण यनोपज का उत्पादक यह प्रदेश सामाजिक, व्यापारिक और औद्योगिक आवश्यकताओं पूर्ति में महत्वपूर्ण योगदान देता है। समय के साथ वानिकी की सोच में परिवर्तन आया हैं। अब जनकल्याण और सहयोग की विचारधारा प्रबल हुई हैं। अनेक प्रयास भी हो रहे हैं, जिसके माध्यम से वानिकी ग्राम विकास का पर्याय बन रही है। सामाजिक वानिकी कार्यक्रम का उददेश्य उजडे और वनस्पति विहीन क्षेत्रों को समाज के लाभ के लिये फिर से हरा भरा बनाना है।
हमारा देश, चूंकि कृषि प्रधान देश है इसलिये देश के किसानों की आर्थिक उन्नति पर ही देश की प्रगति निर्भर करती है। किसानों तथा ग्रामीणों को आये दिन वनोपज की आवश्यकता पड़ती है। किसानों की वनोपज संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति वन निस्तार की सुविधाओं द्वारा की जाती है। वन विनाश के भयंकर परिणाम आज हमारे सामने है। लगभग दो तिहाई प्रदेश वन विहीन हैं। पर्यावरण के संरक्षण को भले ही एक सुदूर समस्या के रूप में देखा जाये, लेकिन ईंधन और चारे की समस्या तो आम जनता के लिये हकीकत बन चुकी है। अत: आवश्यकता के अनुरुप ग्रामीणजनों का वृक्षारोपण के लिये आगे आना आवश्यक है। इस संदर्भ में सामाजिक वानिकी का बड़ा महत्व है। इस गतिविधि की सफलता जनता के सहयोग पर ही निर्भर करती है।
वनोपज के बढ़ते हुये मूल्य एवं मांग और पूर्ति के बीच के बढ़ते हुये अंतर के कारण वनों की सुरक्षा दिन प्रतिदिन कठित होती जा रही है। विभाग गत डेढ वर्ष से इस दिशा में सशक्त अभियान चला रहा है। पूर्व में जहां सीमित वन कटाई निजी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये की जाती थी, वहां की वनों की अंधाधुन्ध कटाई भी शुरु हुई। वनसुरक्षा के लिये विशेष सघन अभियान के अंतर्गत हजारों घन मीटर इमारती, जलाउ लकड़ी, सहित बांस की लाखों बल्लियां जप्त की गई है। वैसे ही तेंदूपत्ता सहित करोड़ों के ही मत की वनोपज भी पकड़ी गई है। आरा मशीनों की सघन जांच के दौरान लगभग 889 आरा मशीन बंद कराई गई है। अवैध वनोपज के परिवहन के लिप्त लगभग 858 वाहन जप्त किये गये। वन अपराधों के नियंत्रण की दिशा में विगत वर्षों में की गई कार्यवाही एक कीर्तिमान हैं। वन सुरक्षा को और सुदृढ़ करने के लिये प्रदेश वनोपज व्यापार विनिमय अधिनियम 1969 में संशोधन करते हुये सभी वनाधिकारियों को जप्ती का अधिकार दिया गया है। इसके अतिरिक्त वन कर्मचारियों को वन सुरक्षा के लिये और अधिक कारगन बनाने के उद्योग से उन्हें पुलिस प्रशिक्षण संस्थान में शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है।
पुराणों, महाभारत, रामायण, मेघदूत इत्यादि ग्रंथों में मालवा, मध्यभारत, विंध्याचल और दंडक वन (छत्तीसगढ़) में प्रचुर मात्रा में वन पाये जाने की गाथाऐं मिलती हैं। ये सब क्षेत्र वर्तमान मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के ही हिस्से हैं। इसलिये प्रदेश में मौसम सुहाना रहता है। समय पर मानसून आता था। वर्षा अच्छी होती थी। वनवासियों व गरीब’ तबके के लोगों को वनों से रोजगार सुलभ था। प्रचुर मात्रा में जलाऊ लकड़ी, इमारती लकड़ी उपलब्ध थी। जड़ी-बूटियों के मामले में प्रदेश गौरवान्वित था। वन्य प्राणियों की संख्या अधिक थी। वनों में प्राकृतिक सौदर्य भरपूर था। पर्यावरण संतुलित था। विगत तीन चार दशकों में प्रदेश में औद्योगिकरण के विकास, नगरीयकरण, कृषि के लिये एवं आवास स्थलों के लिये, सड़के मार्ग बनाने, सिंचाई और विद्युत के लिये बड़े बड़े बांध बनाने, स्थानीय व अंतर्राज्यीय ठेकेदारों द्वारा वनों की अवैध कटाई से वनों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। वनक्षेत्रों में जहां कभी कोयल और बुलबुल के स्वर गुंजित होते थे, वन्य प्राणी निश्चिंतता के साथ घूमते थे, आज वहीं विरानियां हैं। निर्मम कटाई के कारण वनक्षेत्र कम होते जा रहे हैं।
देश-दुनिया में दिन पर दिन पर्यावरण के बिगडने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इस दृष्टि से पर्यावरण संरक्षण में सामाजिक वानिकी अहम भूमिका निभा रही हैं। प्रदेश के शहरों में भी लोग निजी भूमि पर वृक्षारोपण कर सकते हैं। जिन स्थलों पर उबड़ खाबड़ भूमि पड़ी थी, वहां पर हरे भरे वृक्ष लगाये जा सकते हैं। इस तरह के प्रयास करने से जो हरे भरे एवं विशाल वृक्षों की कतारें तैयार होंगी, जिसेस जन जन को प्राकृतिक वातावरण मिलेगा। शीतल सुखद छांव और मानवीय जीवन के वे बहुमूल्य आक्सीजन मिल सकेगी। तभी तो वानिकी की महत्ता पर सदियों पूर्व कहा गया था।
“”दस कुंऐ खोदना, एक तालाब बनाने, दस तालाब बनाना, एक झील बनाने, दस झील बनाना, एक गुणवान पुत्र प्राप्त करना, दस गुणवान पुत्र पाना, एक वृक्ष लगाने के बराबर पुण्य है।””
- सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"