*माता सत्यवती जी की 18वीं पुण्यतिथि पर ‘ विशेष ‘* ‘ माँ ‘ शब्द नहीं अनुभूति है,
" माँ "
‘ माँ ‘ शब्द नहीं अनुभूति है,
उसका जीवन ही आहुति है।
उसके आगे सब बौने हैं,
वह प्रभु- प्रदत्त विभूति है।
माँ शब्द नही अनुभूति है ,
उसका जीवन ही आहुति है।
माँ प्रतिरूप है ईश्वर का,
बच्चों के लिये फरिश्ता है।
सब रिश्तों का है मूल यही ,
रिश्तो में श्रेष्ठ ये रिश्ता है,
मुक्त कंठ से वेदों में,
गाई माँ की स्तुति है।
माँ शब्द नहीं अनुभूति है,
उसका जीवन ही आहूति है।
बिन माँ के आंगन सूना है,
माँ हो तो आन्नद दुगना है।
माँ गर्व की रसानुभूति है,
माँ शब्द नही अनुभूति है ,
उसका जीवन ही आहूति है।
विशेष :- आत्मवान कौन ?
हर व्यक्ति में आत्मा ,
बिरला आत्मवान ।
आत्मवान तो है वहीं,
जो सबका राखे ध्यान॥2580॥
भावार्थ :- आत्मवान से अभिप्राय है – जो अपनी आत्मा का स्वामी है, जिसका हृदय इतना विशाल है कि परमपिता परमात्मा की बनायी हुई सृष्टि में अन्य प्राणियों का भी ध्यान रखे।
उनके कष्टों का निवारण करें , केवल अपने तक ही सीमित न रहे बल्कि परहित और देश के लिए सर्वदा उद्यत रहे। संसार में ऐसे लोग बिरले ही मिलते हैं। ध्यान रहे ऐसे लोगों का चित्त बड़ा उदार और निर्मल होता है। वे परमपिता परमात्मा के बहुत समीप होते हैं। परम पिता का संदेश है: – जो सबको मुझ में देखता है, मैं उसमें सबको देखता हूं ।आत्मा तो हर व्यक्ति के अंदर है, किंतु आत्मवान कोई बिरला की होती है।
विशेष:ब्रह्मभूत कौन है: –
ब्रह्मभूत को ही मिले,
शरणागति को धाम ।
हरि-भजन में लीन हो ,
कर्म करे निष्काम॥2581॥
भावार्थ:- ब्रह्मभूत से अभिप्राय है जो सबमें ब्रह्म को देखता है, यानि कि अपनी आत्मा को ब्रह्म में सर्वदा लीन रखता है ।प्रभु के भजन में तन्मय रहता है तथा निष्काम भाव से दिव्य कर्म करता है, दिव्य – कर्म से अभिप्राय है-ऐसे कर्म करना जिनसे परम पिता परमात्मा प्रसन्न होते हैं। निष्काम भाव से किए गये कर्मों को प्रभुकोसमर्पित करता है। ऐसा व्यक्ति शरणागति अर्थात मोक्ष को प्राप्त है और ब्रह्मभूत कहलाता है।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंदर सिंह आर्य