भारत की स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने, भाग 2
बिहार स्थित महाबोधि मंदिर
भारतवर्ष वास्तव में सर्व संप्रदाय समभाव का देश रहा है। वैचारिक मतभेदों के उपरांत भी मानवता और धर्म के नाम पर हम सब एक रहे हैं । हमने कभी भी किसी की व्यक्तिगत पूजा पद्धति को अपने संबंधों के आड़े नहीं आने दिया। यही कारण रहा कि यहां पर विपरीत मत और विचार रखने वाले लोगों को भी फलने फूलने का भरपूर अवसर दिया गया। बिहार स्थित महाबोधि मंदिर बौद्ध धर्म में आस्था का एक विशेष केंद्र है। इस मंदिर को यूनेस्को (UNESCO) ने विश्व पुरातात्विक स्थलों की सूची में सम्मिलित किया है। भारत की सामासिक संस्कृति का बेजोड़ उदाहरण है यह मंदिर।
तिरुपति बालाजी मंदिर
कभी हमारे देश में मंदिर राष्ट्रवाद के केंद्र हुआ करते थे। इन मंदिरों की स्थापना के पीछे का उद्देश्य राष्ट्र जागरण ही होता था। जहां हमारे बड़े-बड़े ऋषि महात्मा, संत पुरुष बैठकर लोगों को राष्ट्र सेवा, धर्म सेवा और जनसेवा का पाठ पढ़ाया करते थे। यही कारण था कि इन मंदिरों को स्थापित कराने में राज्य शक्ति भी पूर्ण सहयोग किया करती थी।आंध्र प्रदेश के तिरुपति में स्थित श्री वैंकटेश्वर स्वामी का मंदिर ‘तिरुपति बालाजी’ के नाम से विश्व प्रसिद्ध है। इस मंदिर में वर्ष में सबसे अधिक भक्तों की भीड़ उमड़ती है।यह भारत का दूसरा सबसे धनी मंदिर है, जिसे राजा कृष्णदेव राय ने बनवाया गया था । यह उस समय की बात है जब शाहजहां जैसे कथित ताजमहल निर्माता का दूर-दूर तक भी अता-पता नहीं था।
उड़ीसा के पुरी मंदिर की विशेषता
उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ का मंदिर देश के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर के माध्यम से भी हमारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मजबूत हुआ। मंदिर से हमारे संत महात्मा लोगों को सन्मार्ग पर चलने और राष्ट्र सेवा को अपने जीवन का संकल्प बनाने की शिक्षा देते रहे। इस मंदिर की स्थापना 12वीं शताब्दी में हुई थी और यह भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के लिए भी जाना जाता है। जगन्नाथ का अभिप्राय उस परमपिता परमेश्वर से ही है जो संपूर्ण जगत का स्वामी है। सनातन संपूर्ण जगत के स्वामी और चराचर जगत के निर्माता एक परमेश्वर का ही उपासक है। जिसके लिए कहा जाता है कि वह परमपिता परमेश्वर तो एक ही है परंतु विप्रजन उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं।
अंकोरवाट का सूर्य मंदिर : हमारे गौरव का प्रतीक
हिंदू राजा मनुस्मृति और अन्य आर्ष ग्रंथों के आधार पर अपने प्रजाजनों को राजनीतिक , सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करते हुए अपने शासन को चलाते थे। ख्मेर साम्राज्य लगभग 9 वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक अपने उत्कर्ष पर था। अंकोर एक ‘महानगर’ था। अंकोर शब्द संस्कृत के नगर शब्द से बना है । यह नगर उस समय के विश्व के महानगरों में गिना जाता था । यही कारण है कि इसमें वर्ष 1010 से 1220 ई0 तक के काल में विश्व की जनसंख्या का कम से कम 0.1% निवास करता था। ऐसे स्थान पर हमारे पूर्वजों ने अंकोरवाट का यह सूर्य मंदिर निर्मित करवाया था । जिसने उस समय के विश्व जनसमुदाय को अपनी ओर बहुत तीव्रता से आकर्षित किया था । बड़ी संख्या में लोग इस मंदिर को देखने के लिए जाया करते थे । इतना ही नहीं , आज भी 20 लाख से अधिक पर्यटक इस मंदिर को देखने के लिए प्रतिवर्ष कंबोडिया पहुंचते हैं।
सोमनाथ का मंदिर हमारे बलिदानों का स्मारक
सोमनाथ मंदिर की जीत को महमूद गजनवी के पक्ष में कुछ इस प्रकार दिखाया जाता है कि जैसे उसके जाते ही पाला उसी के पक्ष में हो गया था । अपने उद्देश्य अर्थात लूट में वह अवश्य सफल हुआ था , परंतु भारतीयों से बहुत बड़े संघर्ष के पश्चात उसे यह सफलता मिली थी । भारतीयों का वह संघर्ष और उनके द्वारा दिए गए बलिदान की गाथा को जानबूझकर इतिहास से मिटा दिया गया है । उसकी सफलता के गीत गाने से पूर्व इतिहास की उस मौन किंतु रोमांचकारी साक्षी पर विचार करना चाहिए जो केवल भारतीयों के बलिदानों व देशभक्ति का परचम लहरा रही है । यद्यपि उस समय कुछ ‘गद्दार’ भी सामने आए , परंतु यहां प्रश्न ‘गद्दार’ के कुकृत्यों पर दुख व्यक्त करने का या अपने भीतर आई किसी अकर्मण्यता पर पश्चाताप करने का नहीं है , यहां प्रश्न बलिदान और देशभक्ति के भावों को श्रद्धांजलि देने का है । हमारे संपूर्ण इतिहास को ही भारत के बलिदानों का व लोगों की देशभक्ति का स्मारक बनाकर प्रस्तुत करने का है ।
मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि का सच
अब से लगभग 350 वर्ष पहले 1670 ईस्वी में औरंगजेब ने मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि का विध्वंस किया था। उस समय बादशाह ने हिंदुओं के अनेक मंदिरों को तोड़ने का आदेश जारी किया था। उसके बाद आदेश का यथावत पालन किया गया। मंदिर तोड़कर इसके स्थान पर शाही ईदगाह मस्जिद बना दी गई।औरंगजेब के आदेश पर मंदिर तोड़े जाने की पुष्टि इतालवी यात्री निकोलस मनूची के लेख से भी होती है। मनूची यात्री लेखक मुगल दरबार में आया था। मुगलों के इतिहास का उल्लेख करते हुए उसने यह भी बताया कि रमजान के महीने में श्रीकृष्ण जन्मस्थान को नष्ट किया गया। मस्जिद बनने के बाद ये भूमि मुसलमानों के हाथ में चली गई और लगभग 100 वर्ष तक यहां हिंदुओं का प्रवेश वर्जित था। 1770 के मुगल-मराठा युद्ध में मराठों की जीत हुई तो उन्होंने यहां फिर से मंदिर बनवाया। उस समय तक यह केशवदेव मंदिर हुआ करता था।
द्वारकाधीश के मंदिर की भव्यता
द्वारकाधीश के मंदिर की भव्यता देखते ही बनती है। इसकी निर्माण शैली स्थापत्य कला आदि सब मन को मोह लेती हैं।मान्यता है कि इस स्थान पर मूल मंदिर का निर्माण भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने करवाया था। इस प्रकार यह मंदिर हजारों वर्ष पुराना है। बाद में समय समय पर मंदिर का विस्तार एवं जीर्णोद्धार होता रहा। मंदिर को वर्तमान स्वरूप 16वीं शताब्दी में प्राप्त हुआ था। द्वारकाधीश मंदिर द्वारका का मुख्य मंदिर है। जिसे जगत मंदिर (ब्रह्मांड मंदिर) भी कहा जाता है। बहुत संभव है कि इसमें श्री कृष्ण जी के ब्रह्मांड दर्शन को स्थान दिया गया हो। ब्रह्मांड दर्शन से अभिप्राय है कि उनके उस व्यापक और विराट स्वरूप को स्थापित किया गया हो जिसमें वह संपूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान अपने मुख में रखते थे। किवदंती है कि जगत मंदिर द्वारकाधीश मंदिर का मुख्य मंदिर लगभग 2500 वर्ष पुराना है।
डॉ राकेश कुमार आर्य