अशोक भाटिया
आज देश में भाजपा का परचम लहरा रहा है। उत्तर प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र तक भाजपा की सरकार है। पूर्वोत्तर में भी कमल खिल चुका है। उत्तर भारत के जिन राज्यों में अभी वह सत्ता में नहीं है, वहां प्रमुख विपक्षी दल है। पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही है लेकिन अभी भी भाजपा का विजय रथ दक्षिण में जाकर बार-बार रुक जा रहा है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा इस बार दक्षिण विजय के लिए सारे समीकरण साध रही है।
दक्षिण भारत के 6 राज्यों कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में इस समय भाजपा की अपने बूते कोई सरकार नहीं है। पुडुचेरी में भी भाजपा गठबंधन के साथ सत्ता में है।
गौरतलब है कि दक्षिण भारत के इन राज्यों में 130 लोकसभा सीटें हैं जिसमें से अभी केवल 29 सीटें भाजपा के पास हैं। इसमें 25 अकेले कर्नाटक से ही हैं। जबकि 2019 में चार सीट तेलंगाना में जीती थी। इससे समझा जा सकता है कि बाकी के राज्यों में भाजपा की स्थिति कैसी है। दक्षिण को प्रमुखता से लेने की एक वजह और भी है। उत्तर भारत के प्रमुख राज्यों में पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा को बंपर सीटें मिली हैं। ऐसे में भाजपा इस बात का ध्यान रख रही है कि अगर यहां पर सीटें कम हों तो इसकी भरपाई दक्षिण से की जा सके।
भाजपा के दक्षिण प्लान का टेस्ट कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भी लगभग फेल हो गया । भाजपा के लिए दक्षिण के अपने इकलौते दुर्ग को बचाए रखने की चुनौती थी तो साथ ही यहां के नतीजों का असर दूसरे राज्यों पर भी पड़ना था जहां इस साल चुनाव होने हैं। तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भाजपा इस बार बड़ी उम्मीद लगाए हुए थी पर उसे विधानसभा की 8 सीटों से ही संतोष करना पड़ा । उल्लेखनीय यह है कि उसका वोट प्रतिशत पहले से डबल हो गया । यह प्रदर्शन 2024 लोकसभा चुनावों के लिए तेलंगाना में उसकी संभावनाओं को और बल दे सकता है।
दक्षिण में जमीन मजबूत करने में जुटी भाजपा के लिए मुश्किल है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में भाजपा का आधार बहुत कमजोर है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश व केरल में भाजपा के पास एक भी लोकसभा सीट नहीं है। वहीं, आंध्र प्रदेश और केरल में तो पार्टी का एक विधायक भी नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनाव में आंध्र प्रदेश में भाजपा को महज 1 फीसदी वोट मिले थे।
आंध्र प्रदेश की तरह ही भाजपा के सामने तमिलनाडु में भी चुनौती बड़ी है। भाजपा की छवि हिंदूवादी पार्टी की है और तमिलनाडु द्रविड़ आंदोलन की जमीन रही है। इसके साथ ही भाजपा के लिए हिंदी पार्टी का टैग ज्यादा मुश्किल पैदा करता है। भाजपा की आहट को देखते हुए हाल के दिनों में डीएमके ने हिंदी के मुद्दे को एक बार फिर से हवा देना शुरू कर दिया है।तमिलनाडु में हिंदी पार्टी और द्रविड़ आंदोलन के मुकाबले मंदिरों के आस-पास राजनीति को लाने की कोशिश कर रही है। मंदिरों पर किसका कब्जा हो इसे लेकर भाजपा सवाल उठा रही है। भाजपा के साथ समान विचारधारा वाले वीएचपी जैसे संगठन इसमें आगे हैं। भाजपा के साथ एक और प्लस फैक्टर है कि वह एआईएडीएमके के साथ अच्छे रिश्ते में है और गठबंधन में उतर कर पार्टी आधार बढ़ा सकती है। 2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने क्षेत्रीय दल ‘आइजेके’ के साथ मिल कर सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ा था। भाजपा को 2.86 फीसदी वोट मिले थे और उसे एक भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली थी।
तमिलनाडु में भाजपा की इतनी खराब हालत की वजह क्या है ? दरअसल तमिलनाडु की स्थानीय राजनीति की बुनावट कुछ ऐसी है कि इसमें किसी राष्ट्रीय दल के लिए कोई गुंजाइश नहीं बनती। यहां की राजनीति में भाषा (तमिल) और संस्कृति (द्रविड़) की जड़े इतनी गहरी हैं कि उसे धर्म के आधार पर बांटना मुश्किल है। तमिल को सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है। यह आत्मगौरव तमिल लोगों को एकता के सूत्र में बांधे रखता है। यहां के लोग भाजपा को हिंदी पट्टी की पार्टी मानते हैं। जब कि हिंदी विरोध तमिलनाडु की राजनीति का मूल आधार है। इसलिए तमिलनाडु में हिंदुत्व और हिंदी, भाजपा के लिए रुकावट बन जाती है। तभी तो नरेन्द्र मोदी तमिलनाडु में तमिल भाषा नहीं जानने के लिए अफसोस जाहिर करते हैं। यह नरेन्द्र मोदी की स्थानीय लोगों से भावनात्मक जुड़ाव की कोशिश थी।
देखा जाय तो द्रविड़ सभ्यता भारत की बहुत पुरानी सभ्यता है। तमिलनाडु में द्रविड़ संस्कृति को राजनीति से जोड़ने का श्रेय ईवी रामास्वामी पेरियार को जाता है। वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे। धार्मिक कर्मकांडों का भी विरोध किया। 1944 में उन्होंने द्रविड़ कड़गम (द्रविड़ों का देश) नाम से एक सामाजिक संगठन बनाया। 1949 में पेरियार के करीबी अन्नादुरई उनसे अलग हो गये। अन्नादुरई ने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के नाम से अलग संगठन बनाया। 1969 तक तमिलनाडु को मद्रास स्टेट कहा जाता था। 1967 में मद्रास राज्य विधानसभा के चुनाव हुए तो द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (द्रमुक) ने 179 में से 137 सीटें जीत लीं। अन्नादुरई मद्रास के मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस को केवल 51 सीटें मिलीं। इसके पहले कांग्रेस सत्ता में थी। तमिलनाडु में राजगोपालाचारी और के कामराज जैसे कांग्रेस के पास दिग्गज नेता हुए लेकिन 1967 में द्रविड़ भावना की ऐसी लहर आयी कि कांग्रेस उसमें विलीन हो गयी। तमिलनाडु में द्रमुक का डंका बजने लगा। 14 जनवरी 1969 को मद्रास राज्य का नाम तमिलनाडु कर दिया गया। तमिलनाडु के नामकरण के 20 दिन बाद ही अन्नादुरई का निधन का हो गया। उस समय करुणानिधि अन्नादुरई के कैबिनेट में मंत्री थे। फिर करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने।
करुणानिधि तमिल फिल्मों के मशहूर पटकथा लेखक थे। एमजी रामचंद्रन उस समय तमिल फिल्मों के सुपर स्टार थे। वे भी द्रमुक से जुड़े थे। द्रमुक ने उन्हें 1962 में एमएलसी बनाया था। 1967 में एमजीआर द्रमुक के विधायक चुने गये थे। इसके बाद 1976 तक तमिलनाडु में या तो करुणानिधि सीएम रहे या फिर राष्ट्रपति शासन लागू रहा। 1972 में करुणानिधि जब अपने बड़े बेटे एम के मुथ्थू को राजनीति में बढ़ावा देने लगे तो द्रमुक की राजनीति बदलने लगी। तब एमजी रामचंद्रन ने आरोप लगाया था कि अन्नादुरई के बाद द्रमुक में भ्रष्टाचार ने जड़ जमा ली है। इससे खफा हो कर करुणानिधि ने एमजी रामचंद्रन को पार्टी से निकाल दिया। तब एमजीआर ने अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) के नाम से नय़ी पार्टी बनायी। बाद में इसका नाम ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम कर दिया गया। 1977 में एमजी रामचंद्रन सत्ता में आये। इसके बाद से तमिलनाडु में कभी द्रमुक तो कभी अन्नाद्रमुक के पास सत्ता रही। पिछले 53 साल से तमिलनाडु में यही हो रहा है। दक्षिण में मजबूत मानी जाने वाली कांग्रेस भी आज द्रमुक की बैसाखी पर ही राजनीति करती है। 2016 के चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके से गठबंधन कर 40 सीटों पर चुनाव लड़ था लेकिन उसे केवल 8 सीटों पर ही जीत मिली थी। इससे समझा जा सकता है कि तमिलनाडु में बिना द्रविड़ पहचान वाली पार्टियों की कितनी खराब स्थिति है। ऐसे भाजपा सिर्फ कोशिश ही कर सकती है। उसने अन्नाद्रमुक के साथ मिल कर चुनाव लड़ने की बात कही है। वैसे हाल ही में तमिलनाडु में के.अन्नामलाई जैसे युवा नेता ने भाजपा को एक नयी पहचान दी है।
दक्षिण के एक और महत्वपूर्ण राज्य केरल में भाजपा पूरा जोर लगा रही है लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही है। भाजपा का यहां पर कोई विधायक नहीं है। ऐसा तब है जब उसके मातृसंगठन आरएसएस की यहां पर 4500 से ज्यादा शाखाएं लगने का दावा किया जाता है। केरल में भी हिंदूवादी पार्टी होने का तमगा भाजपा के लिए मुश्किल बन रहा है। राज्य में एक प्रभावी आबादी ईसाई समुदाय की है और भाजपा की नजर इसी पर है। हाल ही में कांग्रेस नेता एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी के पार्टी में शामिल होने से भाजपा को उम्मीद है कि वह इस समुदाय को अपने पाले में खींचने में सफल होगी। केरल और तेलंगाना में भाजपा के वोट शेयर बढ़े हैं। कर्नाटक में उसकी सरकार नहीं है पर वह प्रभावशाली विपक्ष है। भाजपा ने 2016 में केरल की 98 सीटों पर चुनाव लड़ा था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे ओ राजगोपाल ने नेमोम सीट से जीत हासिल की थी। राजगोपाल के आलावा भाजपा का कोई दूसरा उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। राजगोपाल केरल भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। 1999 में वे राज्यसभा के सदस्य थे। भाजपा ने केरल में अपने विस्तार के लिए ही राजगोपाल को वाजपेयी मंत्रिपरिषद में शामिल किया था लेकिन इस काम में वह सफल नहीं हो सकी।
2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केरल में 12.93 फीसदी वोट मिले थे। उसके वोट प्रतिशत में करीब दो फीसदी का इजाफा तो हुआ लेकिन चुनावी सफलता अभी भी दूर की कौड़ी है। अब भाजपा मेट्रोमैन ई श्रीधरन के जरिये केरल में नयी पारी खेलना चाहती है। केरल में आरएसएस 1942 से सक्रिय है लेकिन उसका फायदा कभी भाजपा के नहीं मिल सका । केरल में अगर 55 फीसदी आबादी हिन्दुओं की है तो 45 फीसदी आबादी ईसाई और मुस्लिम समुदाय की है। केरल भारत का सबसे ज्यादा पढ़ालिखा राज्य है। यहां के लोग धर्म की बजाय मुद्दों के आधार पर वोट करते रहे हैं। इसकी वजह से केरल में हिंदू कार्ड सफल नहीं हो पाया। यहां की राजनीति भी दोध्रुवीय है। सीपीआइ के नेतृत्व वाले एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच सत्ता के लिए संघर्ष चलते रहता है। कभी सत्ता इधर तो कभी उधर। ऐसे में भाजपा के लिए जगह बनाना मुश्किल रहा है। लेकिन 2021 में जिस तरह से भाजपा ने केरल में अपनी ताकत झोंकी है उससे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।
दक्षिण भारत की प्राथमिकता को ध्यान में रखते हुए इस वर्ष 22 जनवरी को राम मंदिर उद्घाटन के बाद साउथ इंडिया से अयोध्या के लिए अधिक से अधिक विशेष ट्रेनों के चलाने की योजना बनाई जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व गृह मंत्री अमित शाह उत्तर भारत के साथ सामान ध्यान दक्षिण भारत पर भी दे रहे है । गृह मंत्री अमित शाह ने बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए दक्षिण में पार्टी के प्रचार-प्रसार का जो सपना देखा था अब उसके लिए पुरजोर कोशिश की जा रही है।दक्षिण भारत में बीजेपी को मजबूत करने की कड़ी में गृह मंत्री अमित शाह आज कल दक्षिण भारत में लगातार संगठन की बैठक ले रहे हैं। बीजेपी अब अपना ध्यान कर्नाटक से आगे तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु के साथ-साथ केरल की तरफ भी लगा रही है। इन पांचों राज्यों में कुल मिलाकर लोकसभा की 129 सीटें हैं और भाजपा जानती है कि अबकि बार 400 के पार जाने के लिए यहां के सांसदों की भूमिका काफी अहम रहने वाली है।
साभार
अशोक भाटिया