महर्षि दयानंद जी का स्वलिखित जीवन चरित्र, भाग 9 ओखीमठ का आडम्बर, ‘सत्य, योगविद्या व मोक्ष की खोज के लिये पागल ने ऐश्वर्य को यहां भी लात मारी-

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परन्तु इस यात्रा की लालसा मुझे ओखीमठ को फिर ले गई ताकि वहाँ गुफा निवासियों का वृत्तान्त जानू । सारांश यह कि वहाँ पहुंच कर मुझे ओखीमठ के देखने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ जो कि बाहरी आडम्बर करने वाले पाखंडी साधुओं से भरा हुआ था। यहां के बड़े महन्त ने मुझे अपना चेला करने का मनोगत (विचार) किया। उसने इस बात की दृढ़ता के लिये भी मुझे लालच दिखाया कि हमारी गद्दी के तुम स्वामी होगे और लाखों रुपए की पूंजी तुम्हारे पास होगी । मैंने उनको निःस्पृह भाव से यह उत्तर दिया कि यदि मुझे धन की चाह होती तो मैं अपने पिता की सम्पत्ति को जो तुम्हारे इस स्थल और धन दौलत से कहीं बढ़कर थी, न छोड़ता।

मेरा उद्देश्य

इसके अतिरिक्त मैंने यह भी कहा कि जिस ध्येय के लिये मैंने घर छोड़ा और सांसारिक सुख ऐश्वर्य से मुख मोड़ा, न तो मैं उसके लिये तुम्हें यत्न करते देखता हूं और न तुम उसका ज्ञान ही रखते प्रतीत होते हो; फिर तुम्हारे पास मेरा रहना किस प्रकार सम्भव हो सकता है ? यह सुनकर महन्त ने पूछा कि वह कौनसा ध्येय है जिसकी तुम्हें खोज है ? और तुम इतना परिश्रम कर रहे हो। मैंने उत्तर दिया कि मैं सत्य, योगविद्या और मोक्ष (जो बिना अपनी आत्मा की पवित्रता और सत्य न्यायाचरण के नहीं प्राप्त हो सकता है) चाहता हूं और जब तक यह अर्थ सिद्ध न होगा तब तक बराबर अपने देशवालों का उपकार, जो मनुष्य का कर्तव्य है-करता रहूंगा। यह सुनकर महन्त ने कहा कि यह बहुत अच्छी बात है और कुछ दिन और तुम हमारे पास ठहरो, परन्तु मैंने इस बात का कुछ भी उत्तर न दिया क्योंकि मैं जान गया कि यहां कुछ पूर्ति न होगी।

बद्रीनारायण के रावल जी से शास्त्र संलाप-

अतः दूसरे दिन प्रातः काल उठा और वहां से जोशीमठ को चल दिया। वहां कुछ दिनों दक्षिणी महाराष्ट्रियों और संन्यासियों के साथ जो संन्यासाश्रम की चतुर्थ श्रेणी के सच्चे साधु थे, रहा और बहुत से योगियों और विद्वान् साधु संन्यासियों से भेंट हुई और उनसे वार्तालाप में मुझको योग विद्या के विषय में और बहुत नई बातें विदित हुईं ,उनसे पृथक् होकर फिर मैं बद्रीनारायण को गया विद्वान् रावल जी उस समय उस मन्दिर का सबसे बड़ा महन्त था और मैं उसके साथ कई दिन तक रहा। हम दोनों का आपस में वेदों और दर्शनों पर बहुत-सा वादानुवाद हुआ। जब उनसे मैंने पूछा कि आसपास में कोई विद्वान् और सच्चा योगी भी है या नहीं, तो उसने बड़ा शोक प्रकट करते हुए कहा कि इस समय यहां आसपास में कोई ऐसा योगी नहीं है परन्तु उसने बतलाया कि मैंने सुना है कि प्रायः ऐसे योगी इसी मन्दिर को देखने के लिए आया करते हैं। उस समय मैंने यह दृढ निश्चय कर लिया कि सारे देश में और विशेषतया पर्वतीय स्थानों में अवश्य ऐसे पुरुषों की खोज करूंगा।

अलखनन्दा के उद्गम की ओर,अलखनन्दा के विकट मारक भंवर से प्रभु कृपा से छुटकारा-

एक दिन सर्वोदय के होते ही मैं अपनी यात्रा पर चल पड़ा और पर्वतों के मध्य में से होता हुआ अलखनन्दा नदी के तट पर जा पहुंचा। उस नदी के पार करने की तनिक भी इच्छा न थी क्योंकि मैंने उस नदी के दूसरी ओर एक 'मंग्रम' नामक बड़ा ग्राम देखा इसलिए अभी उस पर्वत की घाटी में ही चलता हुआ नदी के बहाव के साथ-साथ जंगल की ओर हो लिया। पर्वत, मार्ग और टीले आदि सब हिमाच्छादित थे और बहुत घनी बर्फ उनके ऊपर थी। इसलिये अलखनन्दा नदी के उद्गम स्थान तक पहुंचने में मुझको महान् कष्ट उठाने पड़े। परन्तु जब मैं वहां गया तो अपने आप को नितान्त अपरिचित और विदेशी और अपने चारों ओर ऊंची-ऊंची पहाड़ियां खड़ी देखी तो मुझे आगे जाने का मार्ग बन्द दिखाई दिया। थोड़े समय पश्चात् सड़क पूर्णतया अदृश्य हो गई और उस मार्ग का मुझ को कोई पता न मिला। मैं उस समय चिन्ता में था कि क्या करना चाहिये ?  विवश होकर मैंने अपने मार्ग की खोज के लिए उस नदी को पार करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। मेरे पहने हुए वस्त्र बहुत हल्के और थोड़े थे और सर्दी बहुत तीव्र थी। थोड़े ही समय पश्चात् ऐसी प्रबल सर्दी हो गई कि उसका सहन करना असम्भव था ।
भूख और प्यास ने जब मुझको बहुत ही सताया तो मैंने एक टुकड़ा बर्फ का खाकर उसको बुझाने का निश्चय किया परन्तु उससे कुछ शान्ति प्राप्त न हुई। फिर मैं नदी को पैदल ही पार करने लगा। किसी किसी स्थान पर नही बहुत गहरी थी और कुछ स्थान पर पानी बहुत कम था परन्तु एक हाथ अथवा आधे गज से कम गहरा कहीं न था परन्तु चौड़ाई अर्थात् पाट में दस हाथ तक था अर्थात् कहीं से चार गज और कहीं से पांच गज था। नदी बर्फ के छोटे और तिरछे टुकड़ों से भरी हुई थी। जिन्होंने मेरे पांव को अत्यन्त घायल कर दिया और मेरे नंगे पांवों से रक्त बहने लगा। मेरे पांव शीत के कारण बिल्कुल सुन्न हो गये थे। जिसके कारण बड़े-बड़े व्रणों का भी मुझे कुछ समय तक ज्ञान न हुआ। 
इस स्थान पर अत्यन्त शीत के कारण मुझको मूर्च्छा-सी आने लगी। यहां तक कि मैं सुन्न होकर बर्फ पर गिरने को था। मैंने अनुभव किया कि यदि मैं यहां पर इसी प्रकार गिर गया तो फिर यहां से उठना मेरे लिये अत्यन्त कठिन और दुष्कर होगा। अतः  बहुत दौड़धूप करके जिस प्रकार हुआ मैं बहुत कठिन चेष्टा करके वहां से सकुशल निकला और नदी की दूसरी ओर जा पहुंचा। यद्यपि वहां जाकर कुछ समय तक मेरी ऐसी दशा रही कि मैं जीवित की अपेक्षा मानो अधिक मृतकपन की अवस्था में था तथापि मैंने अपने शरीर के ऊपर के भाग को बिल्कुल नंगा कर लिया और अपने समस्त वस्त्रों से जो मैंने पहने हुए थे-घुटनों या पांव तक जंघाओं को लपेट लिया और वहां पर मैं नितान्त शक्तिहीन और घबराया हुआ आगे को हिल सकने और चल सकने के अयोग्य होकर खड़ा हो गया और इस प्रतीक्षा में था कि कोई सहायता मिले। जिससे मैं आगे को चलूं परन्तु इस बात की कोई आशा न थी कि सहायता कहीं से आवेगी। सहायता की प्रतीक्षा में था परन्तु बिलकुल अकेला था और जानता था कि कोई स्थान सहायता का दिखलाई नहीं देता। 

अन्त में फिर मैंने एक बार अपने चारों ओर देखा और अपने सामने दो पहाड़ी मनुष्यों को आते हुए पाया जो कि मेरे समीप आये और मुझको प्रणाम करके उन्होंने अपने साथ घर जाने के लिए बुलाया और कहा कि आओ हम तुमको खाने को भी देंगे। जब उन्होंने मेरे कष्टों को सुना और मेरे वृत्तान्त से परिचित हुए तो कहने लगे कि हम तुमको ‘सिद्धपत (जो कि एक तीर्थ स्थान है) पर भी पहुंचा देंगे परन्तु उनका मुझको यह सब कहना कुछ अच्छा प्रतीत न हुआ। मैंने अस्वीकार कर दिया और कहा कि महाराज ! खेद है कि मैं आपकी यह कृपायुक्त बातें स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि मुझमें चलने की बिलकुल शक्ति नहीं है। यद्यपि उन्होंने मुझको बड़े आग्रह से बुलाया और आने के लिए बहुत कुछ विवश किया परन्तु मैं उसी स्थान पर पांव जमाए हुए खड़ा रहा और उनके कथन तथा इच्छानुसार उनके पीछे चलने का साहस न कर सका। जब मैं उनको कह चुका कि मैं यहां से हिलने की चेष्टा करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझता हूं और इस प्रकार कहकर मैंने उनकी बातों की ओर ध्यान देना भी छोड़ दिया अर्थात् उनकी बातों को मैंने फिर न सुना। उस समय मेरे मन में विचार आता था कि अच्छा होता यदि मैं लौट गया होता और इस प्रकार मैंने अपनी शिक्षा और अध्ययन को चालू रखा होता। वे दोनों मनुष्य इतने में वहां से चले गये और थोड़े समय में पहाड़ियों के मध्य में अदृश्य हो गये। वहां पर जब मुझको कुछ शान्ति प्राप्त हुई तो आगे को चला और कुछ समय तक “बासोधा”” (जो एक तीर्थ-यात्रा का स्थान है) पर ठहर कर और ‘माना ग्राम’ के आसपास से होकर मैं उसी शाम को आठ बजे के लगभग बद्रीनारायण में पहुंचा।
क्रमशः

प्रस्तुति: डॉ राकेश कुमार आर्य

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