मुगल वंश और राम भक्तों के बीच संघर्ष
मुगल थे शत्रु भारत के जो आए नाश करने को,
करी इस्लाम की खिदमत मिटाके सनातन को।
करें गुणगान मुगलों के खाकर अन्न भारत का,
वह भी शत्रु भारत के ना समझे हैं सनातन को।।
बाबर के पश्चात उसके साम्राज्य का उत्तराधिकारी उसका बड़ा बेटा हुमायूं बना। हुमायूं से बाबर कहकर मरा था कि वह भारत के लोगों की आस्था के प्रतीक राम मंदिर की ओर आंख उठाकर भी ना देखे अन्यथा हिंदुस्तान के लोग उसके प्राणों के शत्रु बन जाएंगे। बाबर ने यह निर्देश तभी दिया होगा जब उसने यह देख लिया होगा कि राम मंदिर को तोड़ने के पश्चात उसे हिंदुओं के किस प्रकार के विरोध और प्रतिकार का शिकार बनना पड़ा था?
कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने हमें बताया है कि हुमायूं ने अपने पिता के द्वारा दिए गए निर्देश का पालन किया ? उसने अयोध्या की पवित्र भूमि पर कभी हमला नहीं किया और यह प्रयास किया कि हिंदुस्तान के लोग पुरानी शत्रुता को भूल जाएं। यही कारण है कि हुमायूं की बेटी गुलबदन द्वारा लिखे गए ‘हुमायूंनामा’ में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि हुमायूं और तत्कालीन हिंदू समाज के बीच अयोध्या में राम जन्म भूमि को लेकर कभी कोई संघर्ष हुआ था।
यद्यपि सच यह है कि 1530 से 1556 ई. के मध्य हुमायूं एवं शेरशाह के शासनकाल में अयोध्या स्थित राम जन्मभूमि को लेकर हुए 10 युद्धों का उल्लेख मिलता है। हम सब भली प्रकार जानते हैं कि हिंदुओं की ओर से इन युद्धों का नेतृत्व हंसवर की रानी जयराज कुंवरि एवं स्वामी महेशानंद ने बड़ी वीरता के साथ किया था। 25000 वीर वीरांगनाओं की सेना के साथ युद्ध के मैदान में आकर मुगलों के छक्के छुड़ाने वाली रानी भारत की वीरांगनाओं के द्वारा बनाई गई सेना का नेतृत्व कर रही थी तो महेशानंद साधु सेना का नेतृत्व कर रहे थे। राम मंदिर के प्रति रानी की निष्ठा सर चढ़कर बोल रही थी। जितने शत्रु युद्ध के मैदान में गिरते जाते थे रानी उतनी ही अधिक आनंदित होती जाती थी। युद्ध के मैदान में जहां रानी के हजारों सैनिकों ने अपना बलिदान दिया वहीं रानी ने शत्रु के भी हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतारने में सफलता प्राप्त की। मां भारती के प्रति अपने ऋण को चुकता करते हुए रानी स्वयं भी अपना बलिदान दे गई।
युद्ध के क्षेत्र में रानी ने, शत्रु को मिटाया था,
दिए बलिदान रानी ने मां का ऋण चुकाया था।
हैरत में था दुश्मन भी समर में देख रानी को,
हमारी शेरनी ने शत्रु को, दोजख में डाला था।।
स्वामी महेशानंद की वीरता ने भी शत्रु के अनेक सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। स्वामी जी महाराज अपने अनेक शिष्यों को लेकर युद्ध के मैदान में मां भारती के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे थे। उनके सैनिक युद्ध भूमि में गिरते जाते थे पर गिरने से पहले शत्रु के अनेक सैनिकों को समाप्त भी करते जा रहे थे। जिन मूर्खों ने भारत के इतिहास को यह कहकर अपमानित किया है कि यहां के लोगों ने अपने सम्मान के लिए लड़ना नहीं सीखा, वे स्वामी महेशानंद जी और रानी जय राजकुंवरी की बलिदानी गाथा से कुछ सीख सकते हैं। स्वामी जी महाराज की कड़कती हुई आवाज उस समय अनेक लोगों को देश के लिए मर मिटने की प्रेरणा दे रही थी। युद्ध के मैदान में जाने से पहले स्वामी जी महाराज ने जन क्रांति करते हुए लोगों को देश धर्म के लिए कुछ करने का आवाहन किया था। स्वामी जी महाराज उस समय देश धर्म के नायक थे। यही कारण था कि उनके आवाहन पर अनेक लोगों ने जीवन का मोह त्याग कर देश धर्म के लिए युद्ध के मैदान में जाना उचित समझा था।
स्वामी जी के बोल पर, चले वीर रणक्षेत्र।
शत्रु को ललकारते, रहे युद्ध में खेत।।
इसी प्रकार 1556 से 1605 ई. के बीच अकबर के शासनकाल में राम जन्मभूमि को लेकर हुए 20 युद्धों का उल्लेख मिलता है। इन युद्धों में अयोध्या के ही संत बलरामाचार्य सेनापति के रूप में मुगलों की क्रूर सत्ता से लड़ते रहे। उन्होंने भी साधु के वेश में देश धर्म का पालन किया। स्वामी महेशानंद की भांति ही उन्होंने भी लोगों के बीच जाकर राष्ट्र जागरण का पवित्र कार्य किया। लोगों के भीतर वैदिक संस्कृति के दिव्य और वीर भावों का संचार किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि लोग देश धर्म की रक्षा के लिए उत्साहित होकर रण क्षेत्र की ओर चल दिए।
स्वामी जी महाराज ने अपने अनेक सैनिकों के साथ युद्ध क्षेत्र में जाकर शत्रु को चुनौती दी। अंत में उन्होंने अपने अनेक सैनिक साथियों के साथ वीरगति प्राप्त की। उनके इस प्रकार के देशभक्ति भरे कार्यों को देखकर शत्रु अकबर की आंखें खुल गई थीं। जिसने भली प्रकार यह समझ लिया था कि सनातन को उखाड़ना इसीलिए असंभव है कि यहां के साधु भी शत्रु को मिटाने के लिए हथियार उठाने में देर नहीं करते हैं।
साधु सन्यासियों के इस प्रकार के वीरता पूर्ण कृत्यों को देखकर अकबर ने हिंदुओं को प्रसन्न करने का भी प्रयास किया।
उसने समझ लिया था कि यहां के साधु सन्यासी भी जब देश की रक्षा का संकल्प लेकर युद्ध के मैदान में उतरते हैं तो वह भी किसी राजा के प्रशिक्षित सैनिकों से कहीं अधिक ही अपना कर्तव्य निभाते हैं । मुगल अकबर ने यह भी समझ लिया था कि राजा के सैनिकों से लड़ना कहीं सरल है, पर साधु सन्यासियों के वेश में घूमते ‘फिदायीन’ ( हमें आज के फिदायीन आतंकवादियों से पहले अपने देश धर्म के दीवानों को देखना चाहिए। उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए और समझना चाहिए कि उनका फिदायीन हो जाना कितना सार्थक, गंभीर और सात्विक था ? ) लोगों से लड़ना बड़ा कठिन है।
‘फिदायीन’ इस देश में, हुए बहुत से लोग।
आओ दें सम्मान हम, नहीं मनावें शोक ।।
अपनी इस योजना को सिरे चढ़ाने के लिए अकबर ने बीरबल और टोडरमल के साथ परामर्श किया। परामर्श के उपरांत अकबर ने बाबरी मस्जिद के सामने चबूतरे पर राम मंदिर बनाने की अनुमति दी। अकबर यदि उस समय चबूतरे पर राम मंदिर बनाने की अनुमति देने के लिए झुका तो इस झुकने के पीछे हमारे साधु संन्यासियों और वीर क्षत्रिय क्षत्राणियों के बलिदानों की अमर गाथा है। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम अकबर की कथित उदारता के गीत न गाकर अपने बलिदानियों के बलिदानों की सामने शीश झुका कर खड़े हो जाएं। कम्युनिस्टों का वह इतिहास वर्णन थूकने योग्य है जो हमें अकबर के कथित उदार स्वरूप के सामने मतिभ्रम का शिकार बनाकर अपने वीर वीरांगनाओं के बलिदानों से दूर कर देता है।
प्रचलित इतिहास में हमें कुछ इस प्रकार पढाया समझाया जाता है कि बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को हिंदुओं के साथ समन्वय स्थापित करके चलने का निर्देश दिया था। जिसे हुमायूं ने जीवन भर निभाया। ‘गंगा जमुनी संस्कृति’ के नाम पर इस प्रकार के झूठ को प्रस्तुत कर बड़ी सावधानी से इस सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाता है कि उस समय के हिंदू समाज के लिए राम जन्मभूमि प्राण प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था।
हमें यह नहीं बताया जाता कि बाबर ने हिंदुओं के पराक्रम और वीरता को युद्ध के मैदान में देखा था। वह जानता था कि जिस प्रकार हिंदुओं ने युद्ध के मैदान में उसकी सेना के छक्के छुड़ाए थे, यदि वही इतिहास उन्होंने हुमायूं जैसे उसके दुर्बल उत्तराधिकारी के विरुद्ध दोहराया तो निश्चित रूप से उसके द्वारा स्थापित किया गया साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो जाएगा। इस प्रकार हुमायूं द्वारा अयोध्या पर कभी हमला न करना इस बात का संकेत है कि वह हिंदुओं की वीरता को छेड़ना नहीं चाहता था। यद्यपि बाबर के चले जाने के पश्चात हुमायूं के साथ ऊपरिलिखित युद्ध हुए।
देख हिन्द की वीरता, बाबर था भयभीत।
बेटे को समझा गया , नहीं सकेगा जीत।।
अकबर के दरबारी अबुल फजल के द्वारा कुछ ऐसे संकेत दिए गए हैं जिनसे मुगल शासक फिर अयोध्या की ओर देखते या कुछ करते हुए पाए जाते हैं। उसके द्वारा लिखित 'आईने अकबरी' नामक पुस्तक में संकेत दिया गया है कि अयोध्या के रामकोट जन्म स्थान पर उस समय मेला लगता था। इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि अयोध्या में अकबर के समय में लोग अपने धर्मस्थल पर फिर एकत्र होने लगे थे और वहां पर परंपरागत रूप से मेला लगाकर अपनी धार्मिक आस्था का परिचय देते थे। यह तभी संभव हुआ होगा जब अकबर ने वहां चबूतरे पर राम मंदिर बनाने की अनुमति दे दी होगी। वैदिक धर्मी हिंदुओं ने अपने लाखों बलिदान देकर जिस राम जन्मभूमि को प्राप्त किया था उसका वह अब उपयोग कर रहे थे। अब मुगल शासकों की तीसरी पीढ़ी आ गई थी, परंतु कोई भी उनसे रामजन्म को भी फिर से छीनने में सफल नहीं हो पाया था। कुल मिलाकर अकबर ने भी अयोध्या से दूरी बनाकर रहने में ही अपना लाभ देखा।
1605 ईस्वी में अकबर का देहांत हुआ तो उसके उत्तराधिकारी के रूप में उसके बेटे सलीम ने शासन संभाला। अकबर का बेटा सलीम जहांगीर के नाम से गद्दी पर बैठा। उसने 1628 तक शासन किया। जहांगीर नशेड़ी किस्म का बादशाह था। उसे शासन संभालने अथवा चलाने का भी समय नहीं होता था। उसकी बेगम नूरजहां शासन कार्यों का संपादन करती थी। यद्यपि जहांगीर भी अन्य मुगलों की भांति ही हिंदुओं से विद्वेष का भाव रखता था। उसके शासनकाल में यूरोपियन यात्री फिंच 1608 में भारतवर्ष की यात्रा पर आया था। अपने भारत प्रवास के समय यह यात्री अयोध्या भी होकर आया था। अयोध्या का वर्णन करते हुए उसने वहां राम जन्मभूमि स्थल और स्थानीय राम भक्तों का वर्णन किया है।
विलियम फिंच नाम के इस यूरोपियन यात्री ने अयोध्या के बारे में लिखा है कि “अयोध्या यहाँ 50 ईसापूर्व से स्थित है। ये एक प्राचीन नगर है। ये एक पवित्र राजा का स्थल है। हालाँकि, अभी इसके अवशेष ही बचे हैं। यहाँ 400 वर्ष पूर्व बने रामचंद्र के महलों और घरों के खँडहर अभी तक हैं। भारतीय उन्हें भगवान मानते हैं, जिन्होंने दुनिया का तमाशा देखने के लिए शरीर धारण किया था।”
फिंच हमें बतला रहा, सच क्या था इतिहास?
राम जगत के देवता, था लोगों का विश्वास।।
यूरोपियन यात्री के इस वर्णन से स्पष्ट है कि अयोध्या में श्री रामचंद्र जी का महल और मंदिर उस समय खंडहर के रूप में पड़े हुए थे। विलियम फिंच ने यह भी स्पष्ट किया है कि अयोध्या में कई ब्राह्मण रहते हैं, जो आने जाने वाले श्रद्धालुओं के नाम पते की सूची रखते हैं। यह परंपरा भारत में कई मंदिरों में आज भी पाई जाती है। मंदिरों के कई पुजारी अपने श्रद्धालु भक्तों का नाम पता आदि सब अपने पास रखते हैं। इस यात्री के अनुसार उस समय भी सरयू की बहुत महत्ता थी। सरयू में स्नान करने के लिए दूर-दूर से चलकर हिंदू यात्री आया करते थे। उसे हिंदुओं ने बताया था कि सरयू में पवित्र स्नान की प्रक्रिया पिछले 4 लाख वर्षों से चली आ रही है , जिसे हिंदू लोग परंपरागत रूप से करते चले आ रहे हैं। इस यात्री ने ऐसा भी संकेत दिया है कि सरयू नदी से 2 कोस की दूरी पर कुछ गुफाएं हैं । ये गुफाएं बड़ी संकरी हैं। हिंदू श्रद्धालुओं से मिली जानकारी के आधार पर वह कहता है कि वहाँ भगवान श्रीराम के शरीर का भस्म भूमि को समर्पित किया गया था।
भारत के इतिहास पर, जमी है गहरी धूल।
साफ करें इस चित्र को, बहुत करी है भूल।।
कुल मिलाकर जहांगीर के शासनकाल में भी अयोध्या में शांति बनी रही और मुगल राम भक्तों की वीरता से भयभीत रहकर अयोध्या से दूरी बनाए रहे। जहांगीर के पश्चात उसका बेटा शाहजहां उसका उत्तराधिकारी बना। जिसने 1658 तक शासन किया। शाहजहां के जीवन काल में ही उसके साम्राज्य पर उसके बेटे औरंगजेब ने जबरन अधिकार कर लिया और उसे जेल में डाल दिया। बाबर और अकबर के वंशज औरंगजेब की नीतियां बहुत ही कट्टरवादी थीं। इसका स्पष्ट उद्देश्य था कि जैसे भी हो हिंदुस्तान को एक मुस्लिम देश बना दिया जाए। इसके लिए उसने जी भरकर हिंदुओं की हत्या की । उनके धर्म स्थलों को नष्ट करने के कई शाही फरमान भी जारी किए। वह हिंदू विरोधी कट्टरवादी नीतियों के लिए ही इतिहास में जाना जाता है। औरंगजेब ने 1658 से 1707 ई. तक शासन किया। उसके शासनकाल में राम मंदिर के लिए 30 बार युद्ध हुए। इन 30 युद्धों में हिंदुओं ने बड़े पैमाने पर अपने बलिदान दिए थे।
औरंगजेब के शासनकाल में सन् 1660 में मनूकी नामक एक इतावली यात्री भारत आया था।वह औरंगजेब की सेना में भर्ती हो गया था। औरंगजेब का कृपा पात्र बनकर यह यात्री एक सैन्य अधिकारी बनने में सफल हुआ। उसने भारत में अपने प्रवास के दौरान एक पुस्तक लिखी। उसकी इस पुस्तक का नाम “हिस्टोरिया आफ मुगल” था।इस पुस्तक में उसने स्पष्ट किया है कि किस प्रकार औरंगजेब के आदेश पर उज्जैन, मथुरा,काशी, हरिद्वार व अयोध्या के प्रमुखतम मंदिरों का ध्वंस किया गया था।साथ मे यह भी लिखा है कि अयोध्या में विध्वंस किए गए मंदिर वाले स्थान पर हिंदू फिर से अपना अधिकार स्थापित करने के पश्चात पूजा पाठ करने लगे हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य