शिवरात्रि / महाशिवरात्रि
Part-1
डॉ डी के गर्ग
भारतीय पर्व एवं परम्पराओ का वैज्ञानिक विश्लेषण पुस्तक से साभार
पौराणिक मान्यताः
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि मनाया जाता है कहते है कि सृष्टि का प्रारंभ इसी दिन से हुआ। और इसी दिन भगवान शिव का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था। शिवरात्रि तो हर माह को आती है लेकिन शिवरात्रियों में से महाशिवरात्रि को सबसे महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है जो फरवरी-मार्च माह में आती है। इस दिन शिव भक्ति और देर रात्रि तक उपवास रखने का प्रावधान है।
कई लोग महाशिवरात्रि को ही शिवरात्रि भी बोलते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। ये दोनों ही पर्व अलग-अलग हैं। शिवरात्रि हर महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि पर आती है।
विश्लेषण:
शिव रात्रि पर्व के सम्बन्ध में शिव के विषय में जानने व समझने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।शिव किसे कहते है ? शिव के विषय में दो मुख्य तथ्य है जो समझ लेनी चाहिए
१। शरीरधारी राजा शिव :
प्राचीन काल में हिमालय पर्वत क्षेत्र में शिव नाम के एक राजा हुए है जिनके दो पुत्र गणेश और कार्तिकेयन थे और पत्नी का नाम उमा था ,लेकिन परवर क्षेत्र की महारानी होने के कारन उनको पार्वती भी कहा जाता है।
२ दुसरे शिव जो निराकार है और जिनके लिए शिव शब्द का प्रयोग वेदो में अनेको बार परमपिता ईश्वर के लिए किया गया है। यहाँ शिव का भावार्थ है कल्याणकारी। ये दूसरा शिव ईश्वर तो अजन्मा, अनंत, निराधार, सर्वव्यापी है।
(राजा ) शिव और (ईश्वर ) शिव की तुलना : पहले शिव यानि महायोगी शिव और दुसरे ईश्वर शिव को एक ही मान लेना अविद्या है। दोनों एक हो ही नहीं सकते। पहले शिव शरीरधारी थे जो जन्म मरण के बंधन में थे।अपनी आयु पूर्ण करके, कर्मो का फल भोगते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए ,जब वह स्वयं अपने जन्म मरण के बंधनों को नहीं काट सके, तो फिर दूसरों के बंधनों को कैसे काटेंगे? इसी प्रकार ईश्वर का एक नाम शंकर भी है, शंकर अर्थात जो ईश्वर सुख देने हारा है, उस ईश्वर का नाम शंकर है। दूसरी तरफ यदि किसी शरीरधारी व्यक्ति का नाम शंकर हो तो उसकी तुलना ईश्वर से नहीं करनी चाहिए ,क्योकि वह ईश्वर नहीं है । कृपया इस भ्रांति से निकले।
शंकर = वैसे तो ईश्वर के १०० से अधिक नाम है ,जिनमे ईश्वर शिव का एक अन्य नाम शंकर भी है लेकिन ये शंकर नाम ईश्वर शिव से जुड़ा है ,राजा शिव से नहीं। यदि ईश्वर का नाम है तो वह शंकर कभी नष्ट नहीं होता, परंतु जो व्यक्ति का नाम शंकर है वह नष्ट होने वाला है। इसलिए ईश्वर के नाम के पर्यायवाचियों के आधार पर भ्रमित होने की आवश्यकता नहीं है। इस पर्व का मूल उद्देश्य शिव ईश्वर से सम्बंधित है, और उसी की उपासना के साथ ये पर्व मनाना चाहिए।
वेदों के शिव–
वेदों में शिव ईश्वर का एक नाम है जिसका अर्थ कल्याणकारी है एवं एक नाम रूद्र है जिसका अर्थ दुष्ट कर्मों को करने वालो को रुलाने वाला है। वेदों में एक ईश्वर के अनेक नाम गुणों के आधार पर बताये गए हैं।
हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत
ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च(यजु० १६/४१)के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।
अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं,वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।
इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है–जिसे महा मृतुन्जय मंत्र का नाम दिया गया है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। -यजुर्वेद ३/६० , ऋग्वेद ७.५९.१२ का मंत्र है,
गायत्री मंत्र की तरह यह मंत्र भी परमात्मा की स्तुति प्रार्थना व उपासना का मंत्र है । इस मंत्र का जाप मात्रा से मोक्ष्य मिलना केवल अंधविस्वास और भरम है। इसमे भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता है कि – हे ईश्वर ! आप निराकार, सर्वव्यापक, तीनों लोकों के स्वामी, सर्वज्ञ और सब जगत को पुष्टि प्रदान करने वाले हो, सबके पालनहार हो । जिस प्रकार खरबूजा सुगन्धि व रस से पक कर बेल रुपी बन्धन से स्वत: ही अलग हो जाता है उसी प्रकार हम भी आपकी भक्ति द्वारा ज्ञान बल व आनन्द में परिपक्व होकर इस संसार रुपी बन्धन से छूट कर मोक्ष को प्राप्त हो जावें !
इस मंत्र का शिवलिंग, महाकाल वा ज्योतिर्लिंग से दूर दूर का भी कोई वास्ता नहीं है। इस मंत्र के उल्टे पुल्टे अर्थ करके पण्डे पुजारियों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है।
महामृत्युंजय मंत्र में किसी ने ‘जय श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग नमो नम:’ वाली लाईन अपनी ओर से जोड दी है, ये भस्माती श्रृंगार दर्शन कोरा पाखंड है, वेदों में कहीं भी ऐसी बात नहीं कही गई है। भला परमात्मा को हार श्रृंगार की क्या आवश्यकता है ? पूरी सृष्टि ही उसका श्रंगार है, रात्रि को चांद तारों से सजे आकाश को देखो ! कल कल करती बहती नदियों को देखो ! हिम से ढकी पर्वत मालाओं को देखो ! रिमझिम वर्षा करते बादलों को देखो ! …..ये सब अनगिनत श्रंगार ही तो हैं, हम तुच्छ जीव क्या उसका श्रृंगार करेंगे जिसने इस सुन्दर संसार का श्रृंगार किया है ? महाकाल की भद्दी सी शक्ल बना कर उसका श्रृंगार करना पागलपन नहीं तो और क्या है ? गायत्री आदि वेद मंत्रो का अर्थ सहित जप करों व नित्य यज्ञ ( हवन ) करों – यही सब ऋषि मुनियों का उपदेश है ।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि। –यजुर्वेद १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।।
-यजुर्वेद १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।
या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।।-यजुर्वेद १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।
उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-
स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।। -कैवल्योपनिषद् १/८
वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।।
-माण्डूक्य उपनिषद्
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।
सर्वाननशिरोग्रीव: सर्वभूतगुहाशय:।
सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव:।।–श्वेता. ४/१४
जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कर्ता एक ही है, जो सब प्राणियों के हृदयाकाश में विराजमान है, जो सर्वव्यापक है, वही सुखस्वरूप भगवान् शिव सर्वगत अर्थात् सर्वत्र प्राप्त है।
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है-
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।।–श्वेता. ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।
नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।।–श्वेता.६/१
उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।
योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४
जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६
वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है,क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है–
(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय होने से ‘रुद्र’ शब्द सिद्ध होता है।’यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:’ जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।
यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।
यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।
जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।
(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शङ्कर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है।
‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो महतां देव: स महादेव:’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है।
(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्।’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याण स्वरूप और कल्याण करने हारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है।
एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। (श्वेता० ६/१२)
भावार्थ:-एक परमात्मा ही सब पदार्थों में छिपा हुआ है। वह सर्वव्यापक है और सब प्राणियों का अन्तरात्मा है। वही कर्मफल प्रदाता है। सब पदार्थों का आश्रय है। वही सम्पूर्ण संसार का साक्षी है, वह ज्ञानस्वरुप, अकेला और निर्गुण-सत्व, रज और तमोगुण से रहित है। जो परमपिता परमेश्वर सारे संसार को खिलाता- पिलाता है, क्या उसको हम खिला – पिला सकते है? कदाचित नही । जो सारे विश्व को प्रकाशित करता है, क्या उसे हम दीपक दिखाकर अपमानित नहीं करते?
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