दिव्य लोग परमात्मा की पूजा और उनका आह्वान् क्यों करते हैं?
हमारी वृत्तियों का नाश कौन करता है?
आर्चन्नत्र मरुतः सस्मिन्नाजौविश्वेदेवासोअमदन्ननुत्वा।
वृत्रस्य यद्भृष्टिमता वधेननित्वमिन्द्रप्रत्यानंजघन्थ।।
ऋग्वेद 1.52.15
(आर्चन् – नि आर्चन्) सदैव एवं नियमित आपकी पूजा करता है और आपका आह्वान करता है (अत्र) यहाँ, इस जीवन में (मरुतः) दिव्य श्रद्धालु, कम बोलने वाले (सस्मिन्) सम्पूर्ण (आजौ) संग्राम, कठिनाईयाँ (विश्वे) सब (देवासः) दिव्य लोग (अमदन्) प्रसन्नता (अनु) अनुसरण करते हुए (त्वा) आपको (वृत्रस्य) मन की वृत्तियाँ, मन पर प्रभाव (यत्) वह (भृष्टिमता) धूर्त मन को मारकर (वधेन्) वज्र के साथ (नि – आर्चन् से पूर्व लगाया गया) (त्वम्) आप (इन्द्र) परमात्मा, इन्द्रियों का नियंत्रक (प्रति आनम्) मुख का लक्ष्य करके (जघन्थ) प्रहार।
व्याख्या :-
दिव्य लोग परमात्मा की पूजा और उनका आह्वान् क्यों करते हैं?
दिव्य लोग जो कम बोलते हैं वे सदैव और नियमित रूप से सभी संग्रामों में और कठिनाईयों में, यहाँ इसी जीवन में परमात्मा की पूजा और उनका आह्वान् करते हैं। सभी दिव्य लोग आपका अनुसरण करते हुए प्रसन्नता महसूस करते हैं। इन्द्र, परमात्मा सभी वृत्तियों के मुख पर लक्ष्य करते हुए प्रहार करता है, बेशक वह इन्द्रियों के नियंत्रक इन्द्र पुरुष के माध्यम से ही ऐसा करता है। इससे लगता है कि जैसे धूर्त मन को किसी हथियार से मार दिया गया हो।
जीवन में सार्थकता : –
हमारी वृत्तियों का नाश कौन करता है?
योग दर्शन का यह मुख्य ध्येय है कि मन की वृत्तियों को नियंत्रित किया जाये अर्थात् ‘योगः चित्त वृत्ति निरोधः‘। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का यह 52वाँ सूक्त ही योग दर्शन का मूल ध्येय है। यह वर्तमान मन्त्र दिव्य लोगों को स्पष्ट आश्वासन देता है कि सर्वोच्च इन्द्र, परमात्मा, अपने पक्के श्रद्धालुओं को भी अपनी इन्द्रियों का नियंत्रक बनाकर इन्द्र बना देता है और इस प्रकार वृत्तियों के मुख पर प्रहार करता है। अतः सभी दिव्य लोगां को मन में धारणा बना लेनी चाहिए कि सर्वोच्च इन्द्र का आह्वान करना ही एक मात्र मार्ग है जिससे हम स्वयं को इन्द्र बना सकें और इस प्रकार अपनी वृत्तियों का नाश करते हुए परमात्मा की अनुभूति के मार्ग पर प्रगति कर सकें।
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