ईश्वर का न्यायकारी स्वरूप
प्रत्येक व्यक्ति सदा सुखी रहना चाहता है, दुखी होना कोई भी नहीं चाहता। *"परंतु ईश्वर की न्याय व्यवस्था को न जानने के कारण, वह उल्टे-सीधे काम करता रहता है। दूसरों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं करता, बल्कि उन पर अन्याय करता रहता है, जिसके कारण ईश्वर की न्याय व्यवस्था से उसे अनेक प्रकार के दुख भोगने पड़ते हैं।"*
*"ईश्वर न्यायकारी है। वह बिना अपराध किए कभी किसी को दंड नहीं देता और अपराध करने पर कभी किसी को माफ भी नहीं करता।" "चाहे वह अपराध जानबूझकर किया गया हो, चाहे अनजाने में किया गया हो। चाहे थोड़ा अन्याय किया गया हो, चाहे अधिक किया गया हो, सभी अपराधों का दंड ईश्वर अवश्य ही देता है। यह ईश्वर की अटल न्याय व्यवस्था है।"*
इस व्यवस्था को लोग नहीं जानते। *"क्यों नहीं जानते? क्योंकि वे इस व्यवस्था को जानने के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करते। वेदादि सत्य शास्त्रों को नहीं पढ़ते। महर्षि दयानंद जी आदि ऋषियों के ग्रंथों को नहीं पढ़ते। इसलिए नहीं जानते। कुछ लोग पढ़ते हैं, परंतु उन्हें वेदों और ऋषियों का वह सत्य समझ में नहीं आता। क्यों नहीं आता? इसलिए कि उनका मन शुद्ध नहीं होता।
उनका मन शुद्ध क्यों नहीं होता? क्योंकि वे वेदोक्त सच्चे स्वरूप वाले ईश्वर की उपासना नहीं करते।”*
तो क्या करना चाहिए? “महर्षि दयानंद जी आदि ऋषियों के ग्रंथों को किसी अच्छे योग्य विद्वान के मार्गदर्शन में पढ़कर, ईश्वर का सही स्वरूप जानना चाहिए। उस पर खूब चिंतन मनन करना चाहिए। उस विद्वान की सहायता से जब आप ईश्वर का स्वरूप ठीक-ठीक समझ लेंगे, तब उस ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। उससे आपका मन शुद्ध हो जाएगा।” फिर आपको पता चलने लगेगा, कि “कहां-कहां पर व्यवहार में आप अन्याय करते हैं, और कहां-कहां पर न्याय करते हैं। तब न्याय का ही आचरण करें, किसी के साथ भी अन्याय न करें। थोड़ा-सा भी अन्याय न करें।” “यदि थोड़ा भी अन्याय करेंगे, तो थोड़ा दंड मिलेगा। यदि अधिक अन्याय करेंगे, तो दंड भी अधिक मिलेगा। यदि अनजाने में अन्याय करेंगे, तो दंड कम मिलेगा। यदि जानबूझकर अन्याय करेंगे, तो कई गुना अधिक दंड मिलेगा।”
“इसलिए वेदोक्त ईश्वर के सच्चे स्वरूप की उपासना करें। एकांत में बैठ कर खूब गहराई से चिंतन मनन करें। ऐसा करने से आपका मन शुद्ध हो जाएगा। तब आप किसी पर भी अन्याय नहीं करेंगे, बल्कि सबके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करेंगे। तब आपको ईश्वर सुख शांति आनन्द देगा, अन्यथा नहीं।”
—- “स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।”