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भारतीय संस्कृति

राम मन्दिर की कानूनी लड़ाई , भाग 2

प्रमाण हमारे पास हैं , करते यही बखान।
राम का मंदिर था यहां, गाता हिंदुस्तान।।

1858 में हुई घटना के 27 वर्ष पश्चात 1885 में राम जन्मभूमि के लिए लड़ाई न्यायालय पहुंची। यही वह वर्ष था जब निर्मोही अखाड़े के मंहत रघुबर दास ने फैजाबाद के न्यायालय में स्वामित्व को लेकर दीवानी मुकदमा दायर किया। पूर्व में दर्ज कराई गई प्राथमिकी ने इस मुकदमे को दायर करने में अपना विशेष सहयोग प्रदान किया। महंत रघुवर दास ने अपने द्वारा दायर किए गए मुकदमे में बाबरी ढांचे के बाहरी आंगन में स्थित राम चबूतरे पर बने अस्थायी मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की मांग की। महंत जी द्वारा दायर किए गए इस मुकदमे पर सुनवाई करने के उपरांत जज ने अपना निर्णय सुनाते हुए स्पष्ट किया कि वहां हिंदुओं को पूजा-अर्चना का अधिकार है, लेकिन वे जिलाधिकारी के फैसले के खिलाफ मंदिर को पक्का बनाने और छत डालने की अनुमति नहीं दे सकते।
जज के इस निर्णय ने हिंदुओं के दावे को और अधिक मजबूत किया । अब तक यह बात तो स्पष्ट हो गई कि वहां पर पूजा अर्चना का अधिकार हिंदुओं के पास सुरक्षित है। इन चार शब्दों ने यह स्पष्ट कर दिया कि इस स्थान पर कभी राम मंदिर रहा है। अब बात केवल यह रह गई थी कि जज महोदय जिलाधिकारी के फैसले के विरुद्ध मंदिर को पक्का बनाने और उस पर छत डालने की अनुमति नहीं दे सकते थे। क्योंकि यह विषय कानून व्यवस्था का था। जिस पर जज महोदय के कोई अधिकार नहीं थे। उनके निर्णय ने मामले को तथ्यात्मक आधार पर हिंदुओं के पक्ष में स्पष्ट करने का एक अच्छा आधार प्रदान किया।
जब अंग्रेज यहां पर शासन कर रहे थे तो उस समय देश का राजनीतिक आंदोलन अपने उफान पर था। लोग देश को आजाद कराने के लिए अपने बलिदान दे रहे थे। उधर राम जन्मभूमि को भी मुक्त कराने की योजनाओं पर भी निरंतर काम होता रहा। देश आजाद हुआ तो आजादी के मात्र 2 वर्ष पश्चात ही 22 दिसंबर 1949 को ढांचे के भीतर गुंबद के नीचे मूर्तियों का प्रकटीकरण एक योजनाबद्ध ढंग से हुआ।

लड़ाई हम लड़ते रहे, किया खूब संघर्ष।
कभी देखा उत्कर्ष तो कभी देखा अपकर्ष।।

हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि हिंदू महासभा देश के स्वाधीनता आंदोलन के समय देश के क्रांतिकारी आंदोलन के लिए काम करती रही थी। महासभा के मंच से अनेक ऐसे क्रांतिकारी शूरवीर नेता देश की जनता का मार्गदर्शन करते रहे जिन्होंने हिंदुत्व को अपनी विचारधारा का केंद्र बिंदु बनाया। उन्होंने सावरकर जी जैसे महानायकों के नेतृत्व में ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ की भावना पर बल दिया। इन तीनों शब्दों की परिभाषा की परिधि में राम मंदिर निर्माण स्वयं ही आ जाता था।
हिंदू महासभा के किसी पदाधिकारी को या किसी कार्यकर्त्ता को किसी से यह पूछने की आवश्यकता नहीं थी कि वह राम मंदिर के लिए भी कुछ कर सकता है या नहीं ? सावरकर जी की हिंदू महासभा में प्रत्येक कार्यकर्ता और प्रत्येक पदाधिकारी को यह अधिकार था कि वह भारत की चेतन को जागृत करने के लिए अपनी ओर से किसी भी प्रकार का सहयोग दे सकता है अर्थात वह ऐसा कोई भी कार्य कर सकता है जिससे भारतीयता गौरवान्वित हो। मां भारती का सम्मान बढे और भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओर देश के युवा वर्ग को बढ़ाने में या अग्रसर करने में सहायता प्राप्त हो। ओज और तेज से भरे हिंदू महासभा के नेताओं की सोच, कार्यशैली और चिंतन कुछ इस प्रकार का था :-

हिंदी- हिंदू – हिंदुस्तान, है भारत की पहचान।
गौरवशाली राष्ट्र की, बड़ी निराली शान।
है इतिहास हमारा गौरवशाली गौरवपूर्ण अतीत,
कौन कहता ? – यश की गाथा गई हमारी बीत ।।

अभी तो हम दस कदम चले हैं, मंजिल अपनी दूर,
देश बनेगा जगत का नायक फिर बिखरेगा नूर।
प्रकाश बसाओ जीवन में ,ऋषियों की भाषा सीख।
कौन कहता ? – यश की गाथा गई हमारी बीत।।

यही कारण था कि राम जन्मभूमि को लेकर आजादी के बाद पहला मुकदमा हिंदू महासभा के सदस्य गोपाल सिंह विशारद ने 16 जनवरी, 1950 को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में दायर किया। विशारद जी ने अपनी देशभक्ति का परिचय दिया और इस मुकदमे के माध्यम से भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति अपनी गहरी निष्ठा भी व्यक्त की। अपने द्वारा डाले गए इस मुकदमे में विशारद जी ने ढांचे के मुख्य गुंबद के नीचे स्थापित (भगवान की) मूर्तियों की पूजा-अर्चना करने की मांग की। इसके पश्चात लगभग 5 दिसंबर 1950 को ऐसी ही मांग करते हुए महंत रामचंद्र परमहंस ने दीवानी न्यायालय में एक दूसरा मुकदमा दायर किया। महंत रामचंद्र परमहंस ने अपने द्वारा डाले गए इस मुकदमे में दूसरे पक्ष को संबंधित स्थल पर पूजा-अर्चना में बाधा डालने से रोकने की मांग की।
न्यायालय ने विधिक प्रक्रिया के अंतर्गत मामले पर सुनवाई करनी आरंभ की। तथ्यों की पड़ताल की गई। हिंदू पक्ष द्वारा दिए गए साक्ष्य का गहराई से अनुशीलन किया गया। न्यायालय ने पूरी गंभीरता और निष्पक्षता बरतते हुए विशारद जी के द्वारा डाले गए मुकद्दमे पर सुनवाई करते हुए 3 मार्च 1951 को अपना महत्वपूर्ण निर्देश जारी किया । अपने इस निर्देशात्मक आदेश में न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष को हिंदू पक्ष की पूजा अर्चना में बाधा न डालने का निर्देश जारी किया। भारत की राष्ट्रीय चेतना को इस निर्णय से बहुत बल मिला और लगा कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। परमहंस जी की ओर से योजित किए गए मुकदमे पर भी न्यायालय ने इसी प्रकार का आदेश देकर न्याय , न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया के प्रति देश के लोगों के विश्वास को और भी अधिक प्रगाढ़ कर दिया।
कुछ समय पश्चात 17 दिसंबर 1959 को रामानंद संप्रदाय की ओर से निर्मोही अखाड़े के छह व्यक्तियों ने भी अपनी ओर से मुकदमा दायर किया। उन्होंने अपने इस मुकदमे में इस स्थान पर अपना अधिकार जताया। उस समय तक न्यायालय की ओर से प्रियदत्त राम नाम के व्यक्ति को सुपुर्दगार नियुक्त किया जा चुका था । रामानंद संप्रदाय के निर्मोही अखाड़े ने अपने दावे में न्यायालय से प्रार्थना की कि वह सुपुर्दगार प्रियदत्त राम को हटाकर पूजा अर्चना करने की अनुमति उसे प्रदान करे। क्योंकि यह अधिकार किसी सुपुर्दगार का नहीं हो सकता। इसका अधिकार केवल निर्मोही अखाड़े को ही मिलना उचित है।

न्यायालय आदेश दे, न्याय के हो समीचीन।
अधिकार हमारे देश में, सके नहीं कोई छीन।।

 अभी तक राम जन्मभूमि के इस मुकदमे में किसी मुस्लिम संस्था की ओर से कोई मुकदमा दायर नहीं किया गया था। वैसे भी किसी मुस्लिम संस्था या संगठन को मुकदमा दायर करने का कोई अधिकार भी नहीं था। क्योंकि ऐतिहासिक प्रमाणों से यह बात स्पष्ट हो रही थी कि राम जन्मभूमि केवल हिंदुओं की है।  किसी विदेशी आक्रमणकारी की ओर से बोलने के लिए किसी मुस्लिम संगठन या संस्था को अधिकृत नहीं किया सकता। इसके उपरांत भी 18 दिसंबर 1961 को उत्तर प्रदेश के केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने अपनी ओर से एक मुकदमा दायर करते हुए कहा कि जिसे हिंदू राम जन्म स्थान कहते हैं,  वह वास्तव में मुसलमानों की जगह है। इस पर हिंदुओं का किसी भी दृष्टिकोण से अधिकार नहीं हो सकता। उनके अधिकार संबंधी मुकदमों को निरस्त कर विवादित ढांचे को हिंदुओं से लेकर मुसलमानों को सौंप दिया जाए। इसके अतिरिक्त यह भी मांग की गई कि ढांचे के अंदर से मूर्तियां हटा दी जाएं। ये सभी मामले न्यायालय की एक निर्धारित की गई प्रक्रिया के अंतर्गत धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे।
अब धीरे-धीरे हिंदू संगठन इस बात के प्रति चिंतित होते जा रहे थे कि भारत के हिंदू समाज को स्वाधीनता के पश्चात से ही उपेक्षित किया जा रहा है और उसे सही न्याय नहीं मिल पा रहा है। अपने देश में ही किसी देश के मूल निवासियों की इस प्रकार की वेदना पूर्ण स्थिति संसार के किसी अन्य देश में संभव नहीं है, जैसी कि भारतवर्ष में हिंदुओं की है। में हिंदूवादी संगठनों ने हिंदुओं की इस प्रकार की दशा के लिए सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को विशेष रूप से जिम्मेदार ठहराया।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन के समय जब स्वामी दयानंद जी महाराज जैसे क्रांतिकारी व्यक्तित्व ने आर्यावर्त को आर्यों का कहकर भारतीयों का आवाहन किया था कि अपने राष्ट्र की आजादी लेना और राष्ट्र के प्रतीकों की सुरक्षा करना उनका मौलिक अधिकार है तो उस समय ही यह बात स्पष्ट हो गई थी कि स्वाधीनता के पश्चात भारत के मूल निवासी अर्थात आर्यों को भारत में अपने प्रतीकों की रक्षा करने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया जाएगा। जहां-जहां पर आर्य राजाओं के इतिहास को मिटाने वाले मुस्लिम प्रतीक खड़े किए गए थे, उन सबको हटा दिया जाएगा। पर जब ऐसा नहीं हुआ और सारी लड़ाई कानूनी प्रक्रिया के तकनीकी बिंदुओं में उलझ कर रह गई तो हिंदू संगठनों में एक नए प्रकार की बेचैनी देखी जाने लगी।

बेचैनी बढ़ती गई, व्यथित हिंदू समाज।
हिंदू अपने देश में, प्रताड़ित है आज।।

इसी बेचैनी के फलस्वरुप 1982 में विश्व हिंदू परिषद ने राम, कृष्ण और शिव के स्थलों पर मस्जिदों के निर्माण को भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध रचे जा रहे एक गंभीर षड़यंत्र का हिस्सा बताया। यह संगठन भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उत्थान के लिए स्थापित किया गया था। अपने आदर्श को सामने रखकर इसने जब आगे बढ़ना आरंभ किया तो बड़ी संख्या में युवा इसके साथ जुड़ते चले गए। गर्व से कहो हम हिंदू हैं – इस नारे को लेकर आगे बढ़ा यह संगठन लोगों के मन भा गया। विश्व हिंदू परिषद ने उपरोक्त वर्णित सभी स्थानों को मुक्त करने का आवाहन किया। अपने इस आवाहन के साथ विश्व हिंदू परिषद ने भारत की सांस्कृतिक स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त किया। विश्व हिंदू परिषद ने देश के युवाओं का आवाहन किया और माहौल को गरमाने का कार्यक्रम करना आरंभ किया। इसी के परिणाम स्वरूप 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली में संत-महात्माओं और हिंदू नेताओं ने एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया। जिसमें सभी के द्वारा ऐतिहासिक निर्णय लिया गया कि अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि स्थल की मुक्ति और ताला खुलवाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाया जाएगा। इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन के साथ देश के जन-जन को जोड़ा जाएगा और जिस प्रकार भारत के हिंदू समाज में अपने ही देश के प्रतीकों और गौरवपूर्ण इतिहास के प्रति नीरसता का भाव भरा गया है उसे समाप्त किया जाएगा।
इसके 5 वर्ष पश्चात जनवरी 1989 में प्रयाग में कुंभ मेले का आयोजन हुआ। कुंभ के इस मेले को भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुनर्जागरण के लिए प्रयोग किया गया। उस समय मेले में मंदिर निर्माण के लिए गांव-गांव शिलापूजन कराने का ऐतिहासिक निर्णय लिया गया। एक और महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए  9 नवंबर 1989 को श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर के शिलान्यास की घोषणा की गई। यह निर्णय वास्तव में ही बहुत महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय था। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया था कि भारत का हिंदू समाज अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए अब उठ खड़ा हुआ है। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। आंदोलन की रूपरेखा ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह स्पष्ट कर दिया था कि यदि उन्होंने हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान नहीं किया तो स्थितियां विस्फोटक हो सकती हैं। प्रधानमंत्री ने आंदोलन की रूपरेखा को गंभीरता से समझ लिया था। अतः वस्तु स्थिति और परिस्थिति को समझकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शिलान्यास करने की अनुमति प्रदान कर दी। बिहार निवासी कामेश्वर चौपाल से उस समय शिलान्यास कराया गया।

समझ गए राजीव जी, विस्फोटक हालात।
पूजन की आज्ञा करी, लिया सभी का साथ।।

आंदोलन को और भी अधिक गति उस समय प्राप्त हुई जब लाल कृष्ण आडवाणी रथ यात्रा लेकर हिंदुत्व का सोया स्वाभिमान जगाने के लिए देश के दौरे पर निकल पड़े। इस यात्रा ने राम जन्मभूमि आंदोलन के प्रति देश के युवाओं को जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य किया। लोगों ने आडवाणी की रथ यात्रा का स्थान – स्थान पर बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। देश में हिंदुत्व की लहर को उभरते देखकर तत्कालीन सेकुलर राजनीति में हड़कंप सा मच गया। जिन लोगों को हिंदुत्व से घृणा थी और जो नहीं चाहते थे कि देश में हिंदू समाज के लोगों में किसी भी प्रकार की जागृति आए, उनकी रातों की नींद हराम हो गई। तुष्टिकरण की राजनीति में लगे नेताओं को अब यह आभास हो गया था कि देश का हिंदू समाज जाग रहा है और उस जागृति के प्रतीक लालकृष्ण आडवाणी बन चुके हैं।
देश की सेकुलर राजनीति ने हिंदुत्व की बढ़ती लहर को रोकने का निर्णय लिया। फलस्वरुप आडवाणी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के पश्चात उनकी पार्टी के समर्थन से चल रही विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई। इस स्थिति का लाभ उठाने का निर्णय कांग्रेस ने लिया। चंद्रशेखर को अपनी पार्टी का समर्थन देकर राजीव गांधी ने उनकी सरकार बनवा दी। कुछ समय पश्चात ही कांग्रेस ने अपनी परंपरागत कुटिल नीति का परिचय दिया और चंद्रशेखर सरकार को भी गिराकर देश में मध्यावधि चुनाव कराने का माहौल बना दिया। चुनाव के समय ही राजीव गांधी की हत्या हो गई पर कांग्रेस सत्ता में आने में सफल हो गई।
उस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी। जिसका नेतृत्व कल्याण सिंह कर रहे थे। कल्याण सिंह अपनी बात के धनी नेता थे । उन्होंने भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया था। केंद्र में उस समय कांग्रेस की सरकार पी0वी0 नरसिम्हाराव के नेतृत्व में काम कर रही थी।

जननायक कल्याण थे, साफ थी उनकी सोच।
हौसले भी मजबूत थे, चेहरे पर था ओज।।

तब 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में हजारों कारसेवकों ने एकत्र होकर हिंदुत्व की नई शक्ति का परिचय दिया और विवादित ढांचा गिरा दिया। उन कारसेवकों ने विवादित स्थल पर खड़े बाबरी मस्जिद के ढांचे को भूमिसात कर अस्थायी मंदिर बनाकर पूजा-अर्चना करनी आरंभ कर दी। इसके परिणामस्वरूप 8 दिसंबर 1992 को अयोध्या में कर्फ्यू लगा दिया गया । 1 जनवरी 1993 को न्यायाधीश हरिनाथ तिलहरी ने लोगों को राम जन्मभूमि मेंजाकर दर्शन पूजन की अनुमति प्रदान की ।7 जनवरी 1993 को केंद्र सरकार ने ढांचे वाले स्थान और कल्याण सिंह सरकार द्वारा न्यास को दी गई भूमि सहित यहां पर कुल 67 एकड़ भूमि को अधिग्रहण कर सरकारी नियंत्रण में ले लिया। अप्रैल 2002 में उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने इस केस में अपनी नियमित सुनवाई आरंभ की। न्यायालय ने 5 मार्च 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को संबंधित स्थल पर खुदाई कारक तथ्यों की पड़ताल करने का निर्देश दिया। 22 अगस्त  2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने न्यायालय के निर्देश का पालन करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि विवादित स्थल पर कभी मंदिर रहा है। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस केस में अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया।

सुनकर निर्णय देश ने, नहीं किया संतोष।
लगा सभी को अटपटा, नहीं मिला अनुतोष।।

अपने निर्णय में न्यायालय ने इस स्थल को तीनों पक्षों श्रीराम लला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया। न्यायाधीशों ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह भी स्पष्ट किया कि बीच वाले गुंबद के नीचे जहां मूर्तियां थीं, श्री राम जी का जन्म स्थान संभावित है।
उच्च न्यायालय इलाहाबाद के इस निर्णय को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मामले पर सुनवाई करते हुए 21 मार्च 2017 को मध्यस्थता से मामले को सुलझाने की बात अपनी ओर से कहीं। यद्यपि न्यायालय के द्वारा दिया गया यह सुझाव सिरे नहीं चढ़ पाया।
6 अगस्त 2019 से सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिदिन सुनवाई करनी आरंभ की। 16 अक्तूबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई का कार्य संपन्न हुआ। तत्पश्चात न्यायालय ने निर्णय सुरक्षित कर लिया।
तब 9 नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। न्यायालय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। न्यायालय के निर्णय की सर्वत्र प्रशंसा की गई। विदेश में भी भारतीय न्यायपालिका की न्यायप्रियता को लोगों ने सराहा। यद्यपि कुछ मुसलमानों ने न्यायालय के निर्णय पर दबी जुबान में आपत्ति व्यक्त की। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया कि विवादित स्थल ही जन्म भूमि है। जबकि 2.77 एकड़ भूमि रामलला के स्वामित्व की है। न्यायालय ने अपने विद्वत्ता पूर्ण निर्णय में निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावों को निरस्त कर दिया। न्यायालय ने मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार को निर्देश जारी किया कि वह तीन महीने में ट्रस्ट बनाए और ट्रस्ट निर्मोही अखाड़े के एक प्रतिनिधि को भी सम्मिलित करे। उत्तर प्रदेश की सरकार को निर्देशित करते हुए न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मुस्लिम पक्ष को वैकल्पिक रूप से मस्जिद बनाने के लिए वह 5 एकड़ भूमि किसी सुविधाजनक स्थान पर उपलब्ध करा कर दे।

न्याय हमारे देश में, नहीं बिका किसी मोल।
न्याय सदा से न्याय है कौन सका है तोल।।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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