राम मंदिर का इतिहास और विदेशी आक्रांता
भारत के वैदिक ऋषियों ने प्राचीन काल में ही मनुष्य को रहने सहने की सभ्यता सिखा दी थी । उन्होंने भारत में सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिपादन किया। भारत के सांस्कृतिक मूल्य संपूर्ण संसार में सूर्य के प्रकाश की भांति बिखर गए। जिनके प्रकाश में संसार भर के अनेक लोगों ने अपने जीवन का कल्याण किया।
भारत के ऋषियों ने लोगों के लिए मर्यादा पथ का निर्माण किया उस मर्यादा पथ पर चलने वाले श्री राम ने अपने आदर्श जीवन से यह स्थापित करने का सफल प्रयास किया कि कोई भी व्यक्ति यदि चाहे तो वह मर्यादित जीवन जीकर संसार का भी कल्याण कर सकता है।
रघुवंशी श्री राम जी, करते यही बखान।
मर्यादा पथ जो चले, कर सकता कल्याण।।
ऐसी मान्यता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने सरयू नदी में जल समाधि ली थी। कहा जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के चले जाने के पश्चात उनके पुत्र लव ने अयोध्या में उनका भव्य मन्दिर बनवाया था। हमारा मानना है कि श्री रामचंद्र जी के चले जाने के पश्चात या उनके स्वयं के जीवन काल में मंदिरों के निर्माण की कोई परंपरा भारतवर्ष में नहीं थी। श्री राम के संसार से चले जाने के बहुत काल पश्चात मंदिर बनाने की परंपरा का श्री गणेश हुआ होगा। भारतवर्ष में प्राचीन काल में दीर्घकाल तक धर्म का शासन चलता रहा। इस शासन में व्यक्ति अंत:प्रेरणा से एक दूसरे के साथ काम करने के लिए प्रेरित होता है। वह दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार निष्पादित करता है जैसा वह दूसरों से अपने प्रति चाहता है। उस समय लोग अपने कर्तव्यों पर ध्यान देते थे । कर्तव्य परायणता को ही धर्म माना जाता था। पूरा समाज कर्तव्यों की डोर में बंधा हुआ था। अपने-अपने अधिकारों को लेकर स्वार्थ प्रेरित अन्य और अत्याचार कहीं पर भी नहीं था।
जिस समय श्री राम इस धरती पर आए थे उस समय संसार भर में केवल एक वेद मत ही था। अन्य कोई मत अस्तित्व में नहीं था । सब लोग वेदों के अनुसार जीवन जीते थे। एक दूसरे का सम्मान करते थे। एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखते हुए सबके अधिकारों का सम्मान करते थे। अपने लिए लूटमार करने की प्रवृत्ति उस समय के मानव समाज में नहीं थी। वेदों के अनुसार निषिद्ध कर्मों को करने में लोग हिचकते थे। इसके उपरांत भी यदि कहीं लोग किसी प्रकार से एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण करते थे तो ऐसे अतिक्रमणकर्ता का विनाश करना क्षत्रिय लोग अपना धर्म मानते थे। ऐसा वे ईश्वरीय व्यवस्था को निर्बाध चलाए रखने के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर करते थे। उनकी मान्यता थी कि यदि असामाजिक तत्वों का समय पर विनाश नहीं किया गया तो वे समाज के लोगों को जीने नहीं देंगे।
पुरखे हमारे देव थे, दिव्य थे उनके मूल्य।
संसार में नहीं दीखता कोई उनके तुल्य।।
भारतवर्ष में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी महाराज और योगीराज श्री कृष्ण जी महाराज सहित जिन-जिन महापुरुषों को लोगों ने इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान देकर उनके गुणों की पूजा की है वे सभी राक्षस प्रवृत्ति के लोगों के संहारक रहे हैं। भारत प्राचीन काल से वीर पूजा करने वाला देश रहा है। यहां पर वीरों का बसंत लोगों को प्रेरित करता रहा है। हमने वीर उस व्यक्ति को माना है जिसने जनसाधारण के जीवन को उन्नत करने के लिए कार्य किया है। असहाय लोगों का जो संबल बनकर जिया, वह हमारे लिए भगवान हो गया। इसके विपरीत जिसने संसार के लोगों पर अत्याचार किये या गरीब और असहाय लोगों को सताया, वह हमारे लिए कभी भी सम्मान का पात्र नहीं रहा।
रामचंद्र जी के अंदर वे सभी गुण थे, जिनसे जनसाधारण के जीवन की रक्षा हो सकती थी। राम के बारे में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि वह दिग्विजयी थे। दूर-दूर तक उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। संसार के किसी भी कोने पर उन्होंने अराजक तत्वों को छोड़ा नहीं। संपूर्ण भूमंडल पर उन्होंने आर्यों का शांतिपूर्ण शासन स्थापित किया। इसके उपरांत भी वह साम्राज्यवादी कदापि नहीं थे। साम्राज्यवाद आर्यों की भावनाओं तक में नहीं था। राम ने किसी के दिल को दुखाकर उसे अपने अधीन करना पाप समझा।
मानव हित रक्षक रहे, किया जगत उद्धार।
राम बसे हिय लोक के, जगत के पालनहार।।
कालिदास ने ‘रघुवंश’ में रघुकुल की परंपरा का वर्णन करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार मेघ पृथ्वी से जल लेकर वर्षा द्वारा उसी को लौटा देते हैं , उसी प्रकार सत्पुरुषों का लेना भी देने के लिए होता है अर्थात वे लिए हुए को लौटा देते हैं। रामचंद्र जी ने बाली से किष्किंधा का राज्य तो जीत लिया पर उसे अपने राज्य में नहीं मिलाया । उन्होंने किष्किंधा का राज्य जीत कर बाली के भाई सुग्रीव को दे दिया । इसी प्रकार उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त करके उसका राज्य रावण के भाई विभीषण के हाथों में सौंप दिया। कहने का तात्पर्य है कि रामचंद्र जी को सत्ता स्वार्थ छू तक नहीं गया था । उन्होंने राज्य विस्तार किया, पर उसमें लिप्त नहीं हुए।
वास्तव में उनका यह राज्य विस्तार मानवतावादी शक्तियों के कल्याण के लिए किया गया राज्य विस्तार था।
हम पूर्व में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि अयोध्या में जीर्ण शीर्ण अवस्था में पड़े राम मंदिर का जीर्णोद्धार भारत के महाप्रतापी शासक विक्रमादित्य के द्वारा अब से लगभग 2000 वर्ष पूर्व कराया गया था। भारत में पैदा हुए बौद्ध धर्म ने जब भारत से बाहर फैलना आरंभ किया तो वह संसार के अधिकांश भाग को अपने साथ जोड़ने में सफल हुआ। पर उसका अहिंसावादी दृष्टिकोण और सिद्धांत उसके प्रचार प्रसार और विस्तार में आड़े आ गया । जब ईसाइयत और इस्लाम की तलवार हिंसा करती हुई आगे बढ़ी तो बौद्ध धर्म की अहिंसा उसका सामना नहीं कर पाई । यही कारण रहा कि विश्व के अधिकांश भागों से ईसाई और इस्लामी आक्रमणकारियों ने बौद्ध धर्म के लोगों को धड़ाधड़ अपने धर्म में दीक्षित कर लिया । इस प्रकार बौद्ध धर्म का विस्तार रुक ही नहीं गया बल्कि वह कई स्थानों से मिट गया।
फला फूला था विश्व में, बौद्ध धर्म सब ओर।
तेग देख इस्लाम की , मर गया मन का मोर।।
भारत के सनातन धर्म में विश्वास रखने वाले राजाओं ने जब यह देखा कि भारत पर विदेशी आक्रमणकारी भारत के सनातन को मिटाने की भावना से प्रेरित होकर आक्रमण करने लगे हैं तो राजा दाहिर सेन और उनके पश्चात गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासक इन विदेशी आक्रमणकारियों का सामना कर इनके विनाश के लिए कटिबद्ध हो गए।
गुर्जर प्रतिहार शासकों ने इन विदेशी आक्रांताओं को भारत पर आक्रमण करने से रोकने में सफलता प्राप्त की। सम्राट मिहिर भोज (सन् 836-885) की ग्वालियर प्रशस्ति में प्रतिहार वंश को रामचंद्र जी के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया गया है। हमारा अभिप्राय है कि रामचंद्र जी ने अपने काल में जिस प्रकार देश विरोधी और समाज विरोधी तत्वों का सफाया करने का संकल्प लिया था आगे चलकर भारत के राजा उसी संकल्प का निर्वाह यहां विदेशी आक्रांताओं का सामना करते हुए कर रहे थे। हमारे साधु ,संत और महात्मा भी अपने – अपने समर्थकों और अनुयायियों को देशभक्ति के विचार सुना सुनाकर आंदोलित कर रहे थे। आदि शंकराचार्य ने जिस प्रकार चार मठों की स्थापना की वह देश, धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए ही किया गया महान कार्य था। इसके बाद साधु – संतों के अखाड़े देश में अस्तित्व में आए । उन अखाड़ों में एक से बढ़कर एक मल्ल योद्धा देश की रक्षा के लिए तैयार किया जाता था। यही कारण है कि जब देश के लिए बलिदान देने का समय आया तो साधु महात्माओं ने और उनके शिष्यों ने भी अपने बलिदान देने में संकोच नहीं किया।
साधु जा न की भी बनी, थी बलिदानी सोच।
देश के हित बलिदान में, किया नहीं संकोच।।
जब भारत में वैदिक धर्म पतन की ओर अग्रसर हुआ तो अनेक मत यहां पर अस्तित्व में आए। जिनके परिणाम स्वरूप तांत्रिक, अघोरी जैसे मतों के साधु संतों ने लोगों को ठगना आरंभ किया। कुछ मुसलमान मुल्लाओं ने इन साधु संतों के इस प्रकार के आचरण को देखा तो उनके मस्तिष्क में अपने इस्लाम के प्रचार – प्रसार की एक नई योजना आकार लेने लगी । उस योजना से मुसलमान मुल्लाओं ने अरब के मुल्लाओं को परिचित कराया। तब एक मुल्ला ने अपने खलीफा के सामने प्रस्ताव रखा कि भारतवर्ष में इस्लाम के प्रचार – प्रसार के लिए सूफी मत को अपनाया जाए। इस प्रकार के प्रस्ताव को सुनकर खलीफा को बड़ा क्रोध आया। उसने उस मुल्ला को फांसी पर चढ़वा दिया। पर कुछ समय पश्चात मुल्ला को अपनी गलती का आभास हुआ और वह सूफी मत के माध्यम से भारतवर्ष में इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए सहमत हो गया।
सूफी मुसलमानों ने भारत में इस्लाम के प्रचार – प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्होंने छद्म वेश में इस्लाम के प्रचार – प्रसार की योजना को कार्यान्वित करना आरंभ किया । जिस प्रकार हिंदू संत जंगल में जाकर तपस्या करते थे, कुछ उस प्रकार के नाटक करते हुए भी कई सूफी संतों ने काम करना आरंभ किया। भोले-भाले हिंदू उनके इस प्रकार के दुष्चक्र में फंस गए। उन्होंने तनिक भी यह विचार नहीं किया कि यह मुसलमान सूफी फकीर भारत के लोगों को इस्लाम में तो दीक्षित करते हैं पर किसी मुसलमान को वैदिक धर्म अपनाने की शिक्षा नहीं देते। इस प्रकार के आचरण पर 12 जुलाई 1992 को ‘पांचजन्य'( दिल्ली) में स्वर्गीय गिरीलाल जैन का एक लेख ‘इस्लाम में भर्ती करने वाली संस्था’ के नाम से प्रकाशित हुआ था। जिन्होंने अपने उस लेख में लिखा था कि सूफी मेल-जोल का द्वी-मार्गी पुल है – ऐसा मानना गलत है। इस पुल से हिंदू तो इस्लाम की ओर जा सकता है पर इस्लाम से हिंदुत्व की ओर सफर नहीं हो सकता। वास्तव में सूफी और पीर इस्लाम में भर्ती की संस्था के रूप में कार्यरत हैं।
सूफी शत्रु वेश में, फैल गये सब देश।
बीमारी बढ़ने लगी, बढ़े कलह और क्लेश।।
कुल मिलाकर भारत में सूफी आंदोलन भी राम और कृष्ण की वैदिक संस्कृति को उजाड़ने के लिए ही आया। हिंदू इस आंदोलन की सच्चाई को नहीं समझ सका। वह अपनी उदारता के चलते इसका शिकार बना। कई ऐसे भी अवसर आए जब सूफी लोगों का हिंदुओं की सेना के विरुद्ध हिंदुओं ने सहयोग किया। 1001 से 1029 तक गजनवी के अनेक आक्रमण हुए इस काल में मध्य एशिया से सुन्नी शेख भारत में आकर बस गए। 11वीं शताब्दी तक सूफी पंजाब में भी बड़ी संख्या में आकर बस गए थे और वहां से भारत की वैदिक संस्कृति को मिटाने का कार्य कर रहे थे। बंगाल में इस कार्य को सिलहट के शेख जलाल द्वारा पूरा किया जा रहा था।
‘सूफियों द्वारा भारत का इस्लामीकरण’ नामक पुस्तक से हमें पता चलता है कि गुलजार ए अबरार के अनुसार यह जलाल नाम का सूफी वास्तव में एक तुर्क था। उसे पीर ने आशीर्वाद दिया था कि जैसे तुम आत्मिक जिहाद में सफल हुए हो, वैसे ही दारुल हरब में भी सफल हो। जब यह व्यक्ति अरब से भारत की ओर चला था तो खलीफा ने इसको 700 शिष्यों का एक प्रतिनिधिमंडल दिया था। भारत में प्रवेश करने के पश्चात जलाल अपने उन शिष्यों में से स्थान – स्थान पर अपने साथियों को छोड़ता गया। उसके द्वारा छोड़े गए इन लोगों ने जगह-जगह पर रुक-रुक कर लोगों को इस्लाम में दीक्षित करने का कार्य करना आरंभ किया। जब वह सिलहट पहुंचा तो उसके साथ 313 साथी रह गए थे। इन 313 लोगों का उस समय वहां के राजा गौढ गोविंद से युद्ध हुआ । उक्त पुस्तक से हमें पता चलता है कि राजा गोविंद के पास कई लाख की सेना थी। उसके पास घुड़सवार भी बड़ी संख्या में थे, पर युद्ध में अंत में जलाल ही विजयी हुआ था।
हमारा मानना है कि उस युद्ध में निश्चित रूप से इस जलाल नाम के सूफी को उन भारतीयों का सहयोग और आशीर्वाद प्राप्त हुआ था जो सूफियों को भारत के लोगों के लिए अच्छा मानते थे।
यह लोग बीमारी को बीमारी के रूप में पहचान नहीं पाए और रोगी की सहायता न करके बीमारी की सहायता करने लगे।
इन सारी बातों ने राम की वैदिक संस्कृति को उजाड़ने में तो सहायता की ही साथ ही बहुत पहले से ऐसी परिस्थितियों भी बनाने में सहायता की जिससे आगे चलकर इस्लाम भारत में जड़ जमाने में सफल हुआ, यानि कि जब 1528 में बाबर द्वारा राम मंदिर तोड़ा गया तो उसकी भूमिका सैकड़ों वर्ष पहले से बननी आरंभ हो गई थी।
आया ना पहचान में, बीमारी का मूल।
सर्वत्र आ बिखरा दिए, बाबर ने थे शूल।।
हमें समझना चाहिए कि मानसूनी वर्षा कोई एक दिन की आकस्मिक घटना नहीं होती, वह कई महीने पहले बनना आरंभ होता है और सही समय आने पर बरसना आरंभ हो जाता है।
शरीर में बीमारी भी धीरे-धीरे ही पैर पसारती है। इस बीमारी को भारत वर्ष में गजनवी के साथ आए सूफियों ने तो फैलाया ही उसके बाद मोहम्मद गौरी के साथ आए मोहिद्दीन चिश्ती ने भी फैलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जिसकी दरगाह अजमेर में बनाई गई । जिस पर आज भी बड़ी संख्या में हिंदू चादर चढ़ाते हैं। मोहम्मद गौरी के छोटे भाई ने उस समय अयोध्या के राम मंदिर पर भी हमला किया था। यद्यपि वह राम मंदिर को तो नहीं तोड़ पाया , पर उसने एक जैन मंदिर को अवश्य क्षतिग्रस्त कर दिया था। जब गहड़वाल नरेश जयचंद ने मोहम्मद गौरी के छोटे भाई के इस आचरण के बारे में सुना तो उसने इस संस्कृतिनाशक को घेर कर मार दिया था। मोहम्मद गौरी के भाई को मारने में तो जयचंद सफल हो गया पर यह भी सच है कि यहीं से अगले मुस्लिम आक्रांताओं का अयोध्या की ओर आने का मार्ग भी प्रशस्त हो गया। इसी उदाहरण से प्रेरित होकर कालांतर में बाबर यहां आया था। इसके बारे में हम अन्यत्र प्रकाश डाल चुके हैं।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत