भारतीय संस्कृति के प्रतीक हिमालय के चार धाम

हैं बद्री जगन द्वारिका
रमेश जिसके धाम।
भरत भू महान है
महान है महान।।
राष्ट्र के चारों दिशाओं में चार धाम हैं उत्तर हिमालय में बद्रीनाथ-बद्रीनारायण धाम है, पूरब में समस्त जगत के नाथ जगन्नाथ जगन्नाथपुरी धाम में हैं, पश्चिम में द्वारिकापुरी धाम में द्वारकानाथ विराजमान हैं तथा दक्षिण में राम हैं। ईश्वर जिनके अथवा राम के जो ईश्वर हैं ऐसे रामेश्वरनाथ समुद्र तट पर हैं, ऐसे चार धामों वाली भारत की भूमि महान है।
पर्वत राज हिमालय के विभिन्न स्थलों पर अवस्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बदरीनाथ को भी चार धाम माना जाता है, जहां श्रद्धालु भक्त जन प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया (वैसाख) से जाड़ों के प्रारम्भ होने तक दर्शन पूजन हेतु अथक कष्टप्रद यात्रा करते हुए जाते हैं, चाह रहती है मोक्ष प्राप्ति की। भारतीय ग्रंथों के अनुसार 10,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थ धाम हैं। इसे उत्तराखण्ड की यात्रा भी कहते हैं। इसमें उत्तराखण्ड यात्रा में हरिद्वार-हरद्वार, गंगाद्वार, मायापुरी सहित ऋषिकेश व पंचकेदार तथा कैलाश मान सरोवर आदि भी सम्मिलित होते हैं जिसमें समय अधिक लगता है। लेकिन अनादि काल के इन धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक स्थलों को देखने, जानने, समझने व इनमें शारीरिक मानसिक व आत्मिक डूबकी लगाने की उत्कंठा लोगों में आज भी बनी हुई है।
बड़ी से बड़ी आपदा से भी आस्था का दर्पण नहीं टूट सकता, हां कुछ खरोंच आ जाती हैं, लेकिन फिर भी उन्हें अनदेखा कर दर्पण में झलक देखने की तमन्ना कभी समाप्त नहीं होती, उन्हें नजरअन्दाज कर आगे बढ़ जाने की शक्ति भी संभवत: इसी आस्था से मिलती है। भारतीय संस्कृति में धर्म और आस्था की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उनकी थाह पाना असंभव जैसा है। यहां मृत्यु भय से प्रबल मोक्ष की कामना है। संभवत: यह कामना ही आस्था पर मृत्यु के भय को हावी नहीं होने देती। इसी का बेजोड़ उदाहरण है उत्तराखण्ड में हिमालय की चार धाम यात्रा।
प्राचीन गहरवार साम्राज्य का केन्द्र जिसे मुख-सुख से गढ़वार व गढ़वाल कहा गया। यहां की बोली भाषा, संस्कृति, परिवेश को भी गढ़वाली कहा जाता है। इसी प्रांत में हिमालयीन चारों धाम अवस्थित हैं। चार धाम यात्रा में सर्वप्रथम यमुनोत्री तब गंगोत्री उसके बाद केदारनाथ और अन्त में बदरीनाथ पहंचने की परम्परा है।
यमुनोत्री समुद्र तल से 3195 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां यमुना नदी का उद्गम स्थान है। समीप ही सूर्यपुत्री व शनि और यम की बहन यमुना का मंदिर विराजमान हैं। यमुना मंदिर का पुननिर्माण या जीर्णोद्धार कछवाहा राजवंश की जयपुर (राजस्थान) की महारानी गुलेरिया साहिबा ने 19वीं सदी ई. में कराया था। यमुनोत्री में गर्मजल का सूर्यकुण्ड भी प्रसिद्ध है। मंदिर का कपाट प्रत्येक वर्ष अक्षयतृतीया के दिन खुलते हैं और दीपावली पश्चात गोवद्र्धन पूजा के दिन छह माह के लिए बन्द हो जाते हैं। यानि कार्तिक शुक्ल प्रथमा के दिन।
यहां पहुंचने के लिए हरिद्वार या ऋषिकेश से टिहरी (गढ़वाल), बरकोट होते हुए सड़क मार्ग से जानकीपट्टी तक लगभग 220 कि.मी. की दूरी तय करनी होती है। तब यहां से 6 कि.मी. की चढ़ाई पैदल अथवा टट्टूओं या पालकी पर सवार होकर तय करनी पड़ती है।
भागीरथी गंगा का उद्गम स्थान है गंगोत्री धाम। यहां के कपाट भी अक्षय तृतीया को ही खुलते हैं। समुद्रतल से 3140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पावन तीर्थ-स्थान पर गंगोत्री का मंदिर है। गंगा अवतरण के लिए यहां सूर्यवंशी, इक्ष्वाकुवंशी सम्राट भागीरथ ने एक पवित्र शिलाखण्ड पर बैठकर प्रचण्ड तपस्या की थी। तब भागीरथी गंगा ने यहीं पर धरती को स्पर्श किया था। इस पवित्र शिलाखण्ड के निकट ही 18वीं सदी में प्राचीन गंगोत्री मंदिर के मूल स्थान पर ही नवीन मंदिर का पुननिर्माण हुआ।
मान्यता है कि इसी स्थान पर महाभारत में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति हेतु पाण्डवों ने महान देवयज्ञ अनुष्ठान सम्पन्न किया था। यमुनोत्री की तुलना में गंगोत्री की जनसंख्या अधिक है। गंगोत्री से लगभग 15 मील की दूरी पर गोमुख है, जहां स्थित हिमनद से गंगा का उद्भव होता है, गोमुख पहुंचने की राह बड़ी कठिन है पर फिर भी लोग हिम्मत करके जाते हैं। गंगोत्री तक पहुंचने के लिए मंदिर के निकट तक सड़क मार्ग है। यमुनोत्री से वापस जानकी चट्टी आकर बरकोट से उत्तरकाशी होते हुए लगभग 230 कि.मी. की दूरी तय कर सड़क मार्ग से गंगोत्री पहुंचते हैं। राह में ठहरने के लिए उत्तरकाशी, भंटवाड़ी, गंगनानी, हर्सिल व धराली में होटल और धर्मशालाएं हैं।
केदारनाथ धाम समुद्रतल से लगभग 3583 मीटर की ऊंचाई पर है। भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में इसकी गणना होती है। कहते हैं आद्य शंकराचार्य ने अपनी मां के गहनों आदि से उक्त मंदिर का पुनरुद्धार, जीर्णोद्धार कराया था। वहीं उनके ही उत्तराधिकारी श्रृंखला के आचार्य धीरशंकर या अभिनव शंकर आठवीं शताब्दी ई. के सुप्रसिद्ध अद्वैत दार्शनिक ने भी केदारनाथ मंदिर का पुनरुद्धार कराया था, यहां से व्यास गुफा गए और फिर संसार में न लौटे। उनकी स्मारक समाधि केदारनाथ मंदिर के पीछे बना दी गई। जहां आद्यशंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में संसार त्यागा वहीं अभिनव शंकर ने 40 वर्ष की आयु में। बहुधा दोनों के क्रियाकलाप व यात्राएं ऐसी गडमड्ड कर दी गई है कि बहुधा आठवीं शताब्दी वाले शंकराचार्य को ही प्रथम शंकराचार्य होने का भ्रम उत्पन्न हो जाता है। केदारनाथ धाम से छ: कि.मी. दूर चौखम्बा पर्वत पर वासुकी ताल है। यहां ब्रह्मकमल होते हैं। गत वर्ष आई प्राकृतिक आपदा में मंदिर के आसपास का इलाका सबसे अधिक प्रभावित हुआ था। उत्तरकाशी से रुद्रप्रयाग, गुप्तकाशी, सोनप्रयाग होते हुए सड़कमार्ग से गौरीकुण्ड तक पहुंचने के बाद 14 कि.मी. का यह पाँव-पैदल मार्ग और रास्ते में पडऩे वाले गाँव पूरी तरह नष्ट होगए। अब एक नया मार्ग बनाया गया है, जो 22 कि.मी. का है। इस मार्ग में लिनचोली तक घोड़े और पालकी ली जा सकती है, लेकिन वहां से 5 कि.मी. का मार्ग सभी को पांव-पैदल ही तय करना पड़ रहा है। देहरादून से हवाई सेवा भी ली जा रही है। केदारनाथ के पैदल मार्ग पर गढ़वाल मण्डल विकास निगम और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान ने भोजन और विश्राम स्थल की व्यवस्था की है।
भगवान विष्णु बद्री विशाल का धाम बद्रीनाथ तीर्थ समुद्रतल से 3150 मीटर की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण नामक दो पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित है। मंदिर में नर-नारायण के विग्रहों की पूजा होती हैं और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानश्रोत का प्रतीक है। इस स्थान को अनादि सिद्ध कहा जाता है। माना जाता है कि उक्त स्थान बौद्धों के अधिकार में आ गया था, पर उन्हें स्थान छोड़कर जाना पड़ा। विग्रह को सामने के नारदकुण्ड में डाल दिया था। आद्य शंकराचार्य ने मंदिर का पुनरुद्धार किया और नारदकुण्ड से प्रतिमा को निकालकर पुन: स्थापित किया। एक बार पुन: मंदिर नष्ट हुआ तब भी छठे सुप्रसिद्ध शंकराचार्य अभिनव शंकर या धीर शंकर ने तत्कालीन गढ़वाल नरेश द्वारा मंदिर का पुननिर्माण करवाया और विग्रह स्थापित कर वहां की व्यवस्था उनके जिम्मे दी थी। यहाँ भी गर्म पानी का तप्तकुण्ड है, जिसे आदितीर्थ कहते हैं।
ऐसी मान्यता है कि नारायण के चरणों के समीप प्रकाशमय अग्नितीर्थ और भगवान शिव शंकर के केदार संज्ञक महालिंग के दर्शन करके मनुष्य पुनर्जन्म का भागी नहीं होता। केदारनाथ से लौटकर गौरीकुण्ड से गुप्तकाशी, चोक्ता, (चोटवा), चमोली और जोशीमठ होते हुए सड़क मार्ग को लगभग 221 कि.मी. की दूरी तय कर बदरीनाथ धाम तक पहुंचा जा सकता है। (विनायक फीचर्स)

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