नर्मदा तट तथा आबू पर्वत पर अनेक सच्चे योगियों से योग की शिक्षा
चाणोद कन्याली में प्रथम बार सच्चे दीक्षित विद्वानों से अध्ययन-
बड़ौदा में एक बनारस की रहने वाली बाई से सुना कि नर्मदा तट पर बड़े-बड़े विद्वानों की एक सभा होने वाली है। यह सुनकर मैं तुरन्त उस स्थान को गया । वहां पहुंचने पर एक सच्चिदानन्द परमहंस से भेंट हुई और उनसे अनेक प्रकार की शास्त्रविषयक बातें हुईं अर्थात् उनसे भिन्न-भिन्न विद्या सम्बन्धी विषयों में बातचीत हुई। फिर उन्हीं से ज्ञात हुआ कि आजकल चाणोद कन्याली (जो नर्मदा नदी के तट पर स्थित है) में बड़े उत्तम विद्वान् ब्रह्मचारियों और संन्यासियों की एक मंडली रहती है। यह सुनकर उस स्थान को गया जहां मेरी मानो प्रथम बार ही सच्चे दीक्षित विद्वानों और चिदाश्रम आदि स्वामी-संन्यासियों और कई एक ब्रह्मचारियों, पंडितों से भेंट हुई और अनेक विषयों पर परस्पर संलाप हुआ। पश्चात् मैं परमानन्द नामक परमहंस के पास पढ़ने लगा अर्थात् उनका शिष्य बन गया और उनके साथ रहकर कछ महीनों में वेदान्तसार, आर्यहरिमीड़ेतोटक, आर्यहरिहरतोटक, वेदान्तपरिभाषा आदि और (दर्शन शास्त्र) फिलासफी की पुस्तकें अच्छी प्रकार पढ़ीं ।
संन्यास लेने का प्रमुख कारण, पूर्णानन्द के शिष्य 'दयानन्द' बने -
चूंकि मैं इस समय तक ब्रह्मचारी था इसलिए मुझ को अपना खाना अपने हाथ से पकाना पड़ता था, जिसके कारण मेरे अध्ययन में बड़ी बाधा पड़ती थी । इसी कारण इस बखेड़े से छूटने के लिए मैने निश्चय किया कि यथाशक्ति प्रयत्न करके संन्यासाश्रम की चतुर्थ श्रेणी में प्रविष्ट हो जाऊं । इसके अतिरिक्त मुझको यह भय भी था कि यदि मैं ब्रह्मचर्याश्रम में बना रहा तो किसी दिन अपने कुल की प्रसिद्धि के कारण घर वालों के हाथ पकड़ा जाऊंगा, क्योंकि मेरा अभी तक वही नाम प्रसिद्ध है जो घर में था किन्तु जो संन्यासाश्रम ले लूंगा तो यावत्-अवस्था (जीवन भर के लिए) निश्चिन्त हो जाऊंगा ।
एक दक्षिणी पंडित के द्वारा (जो मेरा बड़ा मित्र था) चिदाश्रम स्वामी से कहलाया कि आप उस ब्रह्मचारी को संन्यास की दीक्षा दे दीजिए, परन्तु उस महाराष्ट्र संन्यासी ने जो परम-दीक्षित थे मुझको संन्यास देने से स्पष्ट इन्कार कर दिया ।
इसलिए कि यह अभी नवयुवक है और कहा कि हम संन्यास नहीं देते, तथापि मेरा उत्साह भंग नहीं हुआ। लगभग डेढ़ मास तक नर्मदा तट पर रहा, इसके अनन्तर मेरी आयु के चौबीसवें वर्ष दो महीने के पीछे दक्षिण से एक दोस्वामी और एक ब्रह्मचारी आकर चाणोद ग्राम से कुछ कम कोस अथवा दो मील की दूरी पर जंगल-स्थित एक घर में ठहरे। उनकी प्रशंसा सुनकर परम मित्र पूर्वोक्त दक्षिणी पंडित मेरे साथ गये। वहां उन महात्माओं से ब्रह्मविद्या के कई विषयों में वार्त्ता हुई तो जान पड़ा कि ये दोनों इस विद्या में अत्यन्त प्रवीण हैं । संन्यासी जी का नाम पूर्णानन्द सरस्वती था। उनसे मैंने इच्छा पूर्ण करने के लिए सिफारिश करने को अपने मित्र की ओर संकेत किया और उन्होंने अच्छी प्रकार कहा कि महाराज ! यह विद्यार्थी सुशील और ब्रह्मविद्या पढ़ने की अत्यन्त कामना रखता है, परन्तु रोटी पानी के बखेड़ों के मारे इच्छानुसार विद्या नहीं कर सकता, आप कृपा करके इसकी लालसा के अनुसार चौथे प्रकार का संन्यास दे दीजिये। यह सुनकर और नवयौवनावस्था देखकर उनका भी जी हटा परन्तु जब मेरे मित्र ने बहुत कुछ कहा सुना तब बोले ऐसा ही है तो किसी गुजराती संन्यासी से कहिये, क्योंकि हम तो महाराष्ट्री हैं। तब उस मित्र ने कहा कि दक्षिणी स्वामी गौड़ों को भी संन्यास देते हैं जो पंच द्रविड़ों से बाहर हैं। यह बह्मचारी तो गुर्जर अर्थात गुजराती है, जो पंच द्रविड़ों में है। इसमें क्या चिन्ता है। तब उन्होंने मान लिया और अति प्रसन्न हुए और मुझ को तीसरे दिन श्राद्धादि कराकर चौबीस वर्ष की अवस्था में संन्यास दे दण्ड ग्रहण कराया और मेरा नाम दयानन्द सरस्वती रखा। उनकी आज्ञा लेकर मैंने दण्डस्थापन कर दिया, क्योंकि उसके सम्बध में बहुत कुछ कर्तव्य होता था, जिससे पढ़ने में असुविधा होती थी। (स्वामी जी उनके पास कुछ दिन ब्रह्मविद्या की पुस्तकें पढ़ते भी रहे । ये महात्मा संन्यासी व ब्रह्मचारी शंकराचार्य के श्रृङ्गी मठ नामक स्थल से, जो दक्षिण में है, चलकर द्वारका की ओर जाने की इच्छा से आये थे) । बस, संन्यास देने के कुछ काल पश्चात् स्वामी जी द्वारका की ओर चले गये और मैं कुछ समय तक चाणोद कन्याली में ठहरा रहा।
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत