देवियो और भद्र पुरुषो!
मैं तो मथुरा नगरी में शिष्य रूप से आया था, न कि इस वेदी पर खड़ा होकर व्याख्यान देने के लिए। मैं तो यह विचार मन में रखकर आया था कि अब गुरु की नगरी में चलता हूं। वहां पद-पद पर शिक्षा ग्रहण करूंगा और उन शिक्षाओं को अपने जीवन का आधार बनाकर घर को लौटूंगा, परन्तु अब यह कार्य सौंपा गया है कि इस वेदी पर खड़ा होऊं। मैं लिखने प्रयत्न कर अपने को उपदेशक नहीं बना सका। मेरे हृदय का इस समय यही भाव है जो इधर-उधर प्रचार करके अपने माता-पिता के घर पर पहुंचने वाले व्यक्ति का होता है। मैं लाखों बार उपदेशक बनने का विचार करता हूं, परन्तु नहीं बन पाता। यह वही स्थान है, जहां मैंने उपदेश धारण किया और हमारे गुरु ने उपदेश दिया था। यह स्थान कृष्ण का मकसूद समझा जाता है। जब यहां कंस राजा था, तब यहां की प्रजा दुखी थी और प्रजा के कष्ट निवारणार्थ एक तंग कोठरी में कृष्ण ने जन्म लिया था। वे ब्रजपाल थे। लोगों के ऊपर होने वाले बलात्कारों और अत्याचारों को दूर करने के लिए उनका जन्म हुआ था। मुरली द्वारा स्वाधीनता के सन्देश को सुमधुर ध्वनि में गुंजायमान करने के लिए उनका जन्म हुआ था। यह ध्वनि कुरुक्षेत्र में गूंजी थी। उसने रुद्र रूप धारण किया और पापों का नाश किया कि कृष्ण को ब्रजपाल कहा जाता है और इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने मथुरा में जन्म लिया था। आज का समय इसलिए नहीं है कि कृष्ण पर कुछ विचार किया जाए, क्योंकि यह पुराना स्वप्न हो गया और इसे कई प्रकार से लांछित किया जा चुका है। लोगों ने प्यार करते-करते अपने प्यारे को प्यार के योग्य नहीं रखा।
श्रीकृष्ण ने पहला जन्म लिया, तो स्वामी दयानन्द ने दूसरा जन्म लिया और संसार में दूसरा जन्म ही असली जन्म है। कृष्ण ने अपनी माता के गर्भ से जन्म लिया, तो स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु से जन्म लिया। शास्त्र में लिखा है कि जब लड़का गुरुकुल में प्रवेश करता है, तब आचार्य उसको उसी प्रकार लेता है, जिस प्रकार माता अपनी गोद में लेती है। यदि श्रीकृष्ण ने जेल में जन्म लिया, तो स्वामी दयानन्द छोटी सी कोठरी में पैदा हुए। अंधेरे से रोशनी का जन्म होता है। रात में से दिन का उदय होता है। उसी प्रकार तंग कोठरी में प्रकाश होता है। वेद में लिखा है कि आत्मशक्ति का जन्म आग की भट्ठी में से होता है।
जब स्वामी जी पाठशाला में थे, तब उन्हें झाडू देने का काम सौंपा गया था। उन्होंने गुरु की कोठरी में झाडू दी और संसार को शिक्षा दी कि वह भी झाडू दे। गुरु विरजानन्द समझते थे कि वही झाडू संसार की कुरीतियों को बुहार देगी। यह वही स्थान है, जहां ऋषि दयानन्द पानी भरकर लाते थे और गुरु को स्नान कराते थे। आज उनकी बहाई हुई यमुना में समस्त संसार स्नान करता हुआ दीख पड़ता है। आज हमको यह दिखाना है कि यह स्थान एक समुद्र है और लोग इसमें बहे चले जाते हैं। कृष्ण ने अपना जीवन लीला में बिताया था। ऋषि दयानन्द ने अपना समय भट्टी में बिताया था।
स्वामी दयानन्द के आने से पूर्व सब ज्ञानियों ने समझा था कि हमें काम नहीं करना है। स्वामी दयानन्द ने कहा कि वेद में लिखा है कि आत्मा कर्म करने के लिए है। और वह कर्म करते-करते जाएगा। स्वामी दयानन्द के जीवन से यदि कोई शिक्षा मिलती है तो वह यह है कि आत्मा को कर्म करते-करते जाना है। स्वामी दयानन्द का जीवन कर्ममय जीवन है। प्रोफेसर मैक्समूलर एक स्थान पर धर्म व मतों का भाग करते हुए कहते हैं- धर्म के दो रूप हैं। एक प्रचारक धर्म और दूसरा अप्रचारक धर्म। मिशनरी का धर्म प्रचारक धर्म है। संसार में जो भी मिशनरी जन्म लेता है, वह समझता है कि संसार पर अपने धर्म की ज्योति डाल दे। अप्रचारक धर्म वह है जिसके अनुयायी यह चाहें कि हमारे धर्म का संसार में प्रचार न हो। प्रोफेसर मैक्समूलर लिखता है कि ईसाई और इस्लाम ही प्रचारक धर्म हैं। बौद्ध और हिन्दू धर्म अप्रचारक धर्म हैं। वैदिक धर्म भी अप्रचारक है।
यदि स्वामी दयानन्द के उपदेशों को हम छोड़ देते, तो सचमुच हमारा धर्म अप्रचारक धर्म था। हम कहते थे, हम दया करते हैं, परन्तु दया का स्वरूप नहीं जानते थे। आज आर्य जाति का बच्चा-बच्चा जानता है कि जो हिन्दू मुसलमान हो गया हो, उसे हम अपनी जाति में पुनः ले सकते हैं। बात यह है कि लोगों ने धर्म के स्वरूप को शुद्धि के स्वरूप में नहीं पहचाना। इसका स्वरूप समझा है मौलाना मुहम्मद अली ने। काकीनाड़ा कांग्रेस में उन्होंने कहा था कि हिन्दू और मुसलमानों में केवल इतना ही भेद है कि “मुसलमान एक हण्डिया पकाते हैं। वे बड़े से बड़े आदमी को इसमें से खिलाना चाहते हैं। वे सब इस विषय में एक हैं। विपरीत इसके हिन्दू समझता है कि उसने एक बड़ा चौका तैयार कर लिया है और उसके भोजन पर हरेक की दृष्टि नहीं पड़ सकती है।” हम यह समझते हैं कि मुसलमान को मुसलमान रहने दें। ईसाई को ईसाई रहने दें। असल में हम आलसी थे। हम स्ट्रगल (संघर्ष) में आने से डरते थे। स्वामी दयानन्द आया। उसने अपने नाम को सार्थक किया। दया को क्रिया का रूप दिया।
बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ राजकुमार चीन में गया था। वर्मा में गया था, परन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज बौद्ध धर्म को भी अप्रचारक धर्म कहा जाता है। स्वामी दयानन्द आये और उन्होंने वेद के शब्दों में नाद बजाया और कहा कि हमें सबको आर्य बनाना है। ऐसे नहीं जैसे मौ० ख्वाजा हसन निजामी चाहते हैं। आज स्वामी दयानन्द का नाम लेते हैं तो उनके जीवन की क्रिया मालूम हो जाती है कि किस प्रकार उन्होंने अपने मत को फैलाया था।
जिस दिन मैं लाहौर से रावलपिंडी आया, उस दिन लोगों ने मुझे कहा कि यह वही स्थान है, जहां स्वामी दयानन्द भटकता था और लोग उसे बैठने नहीं देते थे। यह वही स्थान है, जहां पर लोगों ने ईंट-पत्थरों से स्वामी जी का स्वागत किया था। अब लोग उसे खोजते हैं, परन्तु वह नहीं मिलता है। आज वह दिन है कि जिस दिन संसार बदला है। जमीन आसमान बन गयी है और आसमान जमीन बन गया है। आज लोग कहते हैं “स्वामी दयानन्द! आओ और अपने चरणों से हमारी आंखों को तृप्त करो।” लाहौर में जगह नहीं मिलती थी। एक मुसलमान भाई ने जगह दी थी। जिस समय मैं लाहौर के मुसलमानों का विचार करता हूं तो सबसे पहले रहनुमा खां का ध्यान आता है। सब लोग कहते हैं कि यह वही मुसलमान है, जिसने स्वामी जी से अपने मकान के पास ठहरने को कहा था। उस समय मैं मुहम्मद अली का नजारा भूल जाता हूं। मैं उसका बड़ा कृतज्ञ हूं। स्वामी दयानन्द उस मुसलमान के कोठे पर जा उतरे। रात्रि में लैक्चर होता है। विषय है “कुरान का खंडन।” आवाज उठती है “विचित्र प्रकार का आदमी है।” पौराणिक अपने घर में स्थान नहीं देते हैं, ब्रह्मसमाजियों ने उसे अपनी वेदी से नीचे उतार दिया है, बड़ी कृपा से रहनुमा ने स्थान दिया है, पर उस उपकार का बदला यह है कि स्वामी कुरान का खंडन करता है। स्वामी दयानन्द कहता है- “इसमें सन्देह नहीं कि जब मुझे कहीं स्थान न मिला, तब रहनुमा खां ने अपने घर में बसाया और सहायता के लिए आसन बिछाया। मैं भी उसे मानता हूं, परन्तु मैंने तो घरबार छोड़ दिया है। आकाश की छत के नीचे बसेरा करता हूं। समस्त पृथ्वी मेरा घर है। कुछ दे नहीं सकता हूं। रुपया नहीं, माल नहीं, राज्य नहीं। मैं क्या दे सकता हूं? एक चीज है जिसके लिए माता की तपश्चर्या को पीछे छोड़ा है। पिता के प्रेम को छोड़ आया हूं। मित्रों की मित्रता को त्याग आया हूं। अनाथ हो गया हूं। अकिंचन हो गया हूं। जंगलों में फिरता हूं। पहाड़ों में फिरता हूं। झाड़ियों के अन्दर कांटों को लांघकर फिरता हूं। किसलिए? एक सत्य की खोज के लिए। किसी योगी के विषय में सुनता हूं कि जंगलों में रहते हैं और वहीं पहुंचता हूं।”
एक स्थान पर एक पादरी स्वामी जी का भक्त बन गया है। वह गिरजा में उनकी प्रार्थना किया करता है। एक ईसाई पादरी स्वामी दयानन्द के चरणों में गिरता है और उसका नाम पढ़ता है भक्त स्कॉट। वह प्रतिदिन आता है। एक दिन स्कॉट भक्त नहीं आया। क्यों नहीं आया? आज रविवार है। एक दिन ऋषि दयानन्द गिरजा में आते हैं और वहां उपदेश बन्द हो जाता है। स्वामी जी को उपदेश देने के लिए खड़ा किया जाता है। वह उपदेश देते हैं। यह उपदेश क्या है? वेद कहता है कि सारे संसार को आर्य बनाओ।
दूसरे धर्मों ने अपना-अपना प्रचार किया। किसी ने तलवार से और किसी ने धन से। स्वामी दयानन्द ने धर्म के मार्ग से किया। वह अधर्म के मार्ग से नहीं कर सकते थे। यह क्रियात्मक उपदेश है। आज तो राजनीतिक क्षेत्र में उपदेश दिया जाता है कि यदि धर्मोपदेश होगा तो मतभेद उत्पन्न होगा। आप विचार करें कि इतना झगड़ा बढ़ गया है, अतः हमें उदार बनना आवश्यक है। स्वामी दयानन्द के आने से पहले आर्यों की आंखें नीची थीं। स्वामी ने उन्हें ऊंचा कर दिया। हम आज मथुरा नगरी में शिष्य भाव से आए हुए हैं। अतः यह विचार लेकर जाएं कि ऋषि सारे संसार के लिए था। हम भी समस्त संसार के हो जाएं, भारत के लिए ही नहीं, एशिया के लिए ही नहीं।
एण्ड्रयूज लिखता है कि फिजी, मॉरीशस और इंग्लैण्डादि द्वीपों में स्वामी का नाम रोशन है इससे मैं समझता हूं कि उसका नाम सार्वभौम होने वाला है। अब आर्यों का यह कर्तव्य हो गया है कि वे अपने जीवन को प्रचार के अर्पण कर दें और जिएं तो इसलिए जिएं कि वेदों के सन्देश का प्रचार करना है। जब मुसलमान मेरी आंखों के सामने आते हैं तब मुझे उनके अगुआ रहनुमा खां की याद आती है और जब ईसाई सामने आते हैं, तब भक्त स्कॉट की याद आती है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि लोग इसी प्रकार लोगों का उपकार करते हुए ईश्वर के भक्त बनें।
[स्त्रोत- आर्यावर्त केसरी पत्रिका का सितम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
One reply on “ऋषि की मथुरा जन्म-शताब्दी का ऐतिहासिक भाषण श्री पं० चमूपति जी का व्याख्यान”
Excellent Content. We are privileged to be the true followers of that Mahamanav Swami Dayanand Saraswati ji. Regards