मानवता का मान: दयानन्द सरस्वती
सहदेव समर्पित
(स्वामी दयानंद सरस्वती जी के 200 वें जन्म दिवस के शुभ अवसर पर प्रकाशित)
उदयपुर में एक दिन दो साधु स्वामीजी से मिले। अनेक विषयों पर वार्तालाप के बाद स्वामीजी से बोले कि आप अधिकारी लोगों को ही उपदेश किया करें। जो लोग आपके व्याख्यानों में आते हैं वे सब ही तो अधिकारी नहीं होते! इसका स्वामीजी ने जो उत्तर दिया उसका अभिप्राय यह था कि धर्म के विषय में अधिकार अनधिकार का प्रश्न उठाना सर्वथा व्यर्थ है। धर्माेपदेश सुनने का मनुष्य मात्र को अधिकार है। आपकी जाति और धर्म के सैकड़ों और सहस्रों मनुष्य विधर्मी हो रहे हैं और आप अधिकार अनधिकार का पचड़ा लिये बैठे हैं। पहले उन्हें बचाओ, अधिकार अनधिकार का विचार पीछे होता रहेगा। स्वामीजी का यह उत्तर बहुत महत्त्वपूर्ण और माननीय है। इस अधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री-जाति और शूद्रों को सदा के लिये विद्या से वंचित किया और इसी अधिकार की दुहाई देकर धर्म के ठेकेदारों और महन्तों ने अपनी गद्दियाँ स्थापित कर लीं। इसी विचार ने देश को रसातल में पहुंचा दिया। स्वामी दयानन्द तो इन मानसिक दासता की बेड़ियों को तोड़ने के लिए ही आए थे इसलिए उनको यह कैसे स्वीकार्य हो सकता था।
भारतीय इतिहास के ज्ञात काल खण्ड में ऐसा कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता, जिसके हृदय में मनुष्य जाति और देश के पूर्ण हित की भावना इतनी गहराई तक घर कर रही हो। एक दिन पण्ड्या मोहनलाल ने महाराज से प्रश्न किया कि भारत का पूर्ण हित और जातीय उन्नति कब होगी?
स्वामीजी के उत्तर का सार यह था कि एक धर्म, एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना ऐसा होना कठिन है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि देश के राजा लोग अपने-अपने राज्य में धर्म, भाषा और भाव में एकता स्थापित करें। पं0 मोहनलाल ने कहा कि जब आप सब में एकता चाहते हैं तो मत-मतान्तरों का खण्डन क्यों करते हैं? महाराज ने उत्तर दिया कि धर्माचार्यों और नेताओं की असावधानी और प्रमाद से जाति के आचार-विचार, रहन-सहन दूषित हो जाते हैं और भाव एक नहीं रहते। आर्य-जाति की यही दशा हुई और यदि इसे संभाला न गया तो यह नष्ट हो जाएगी। धर्माचार्यों के प्रमाद के कारण करोड़ों मुसलमान हो गए और अब ईसाई हो रहे हैं। यदि जाति को कड़वे उपदेशों के कोड़ों से न जगाया गया और कुरीतियों व कुनीतियों को नष्ट न किया गया तो इसकी मृत्यु में संदेह ही क्या है! मैं यह काम किसी स्वार्थ से तो कर ही नहीं रहा हूँ। इसके कारण अनेकों कष्ट सहता हूँ, गालियाँ और ईंट पत्थर खाता हूँ। विष तक भी मुझे दिया जा चुका है, किन्तु जाति और धर्म के लिए मैं सब कुछ सहन करता हूँ।
महर्षि दयानन्द के हृदय में मानवता के प्रति असीम प्रेम था। उन्होंने अलभ्य ब्रह्मानन्द को छोड़कर संसार के उपकार के लिए सांसारिक कष्ट क्लेश में पड़ना स्वीकार किया। देश की दुर्दशा को देखकर उनका हृदय रो उठता था। कानपुर में एक गरीब वृद्धा के पास अपने पुत्र के अन्तिम संस्कार के लिए लकड़ियाँ तक नहीं थीं, उसने शव को गंगा में बहा दिया। स्वामी जी के मुख से निकला- हाय हमारा देश इतना निर्धन हो गया है कि मृतक शरीर के लिए काष्ठ तक भी नहीं मिल सकता। लाला मोहनलाल के अनुसार ‘हमने उनको कभी शोकग्रस्त नहीं देखा था, लेकिन इस घटना पर हमने उन्हें आंसू बहाते हुए
देखा।’
एक दिन स्वामीजी ने कहा था कि परदेशी राजाओं ने हमारे देश से इतना धन हरण कर लिया है कि अब वह सर्वथा धनहीन हो गया है। परन्तु इस देश की वसुन्धरा इतनी उपजाऊ है कि स्वराज्य पाने के थोड़े ही काल में इस देश को पुनः धन-धान्य से पूरित कर देगी। सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी लिखते हैं- ‘यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में कोई दूसरा देश नहीं है। इसीलिए इस भूमि का नाम सुवर्ण भूमि है, क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। — जितने भूगोल में देश हैं वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा पारसमणि है कि जिसको लोहे रूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।’
स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द दण्डी से आर्ष शिक्षा पाकर अपने थोड़े से कार्यकाल में ही संसार में हलचल मचा दी थी। उनका अखण्ड ब्रह्मचर्य और अतुल्य व्यक्तित्व सारे देश में चर्चित हो गया। उनका आर्ष विद्या और वेदों के प्रति आग्रह, अनार्ष मान्यताओं का प्रबल खण्डन देश की उन्नति का आधार था। मत मतान्तरों को वे देश की उन्नति में बाधा मानते थे। उनकी मान्यता था कि मत-मतान्तरों के झगड़ों ने देश को दुःख सागर में डुबो दिया है। वे चाहते थे कि लोग सब मतों की समान सत्य मान्यताओं का ग्रहण और असमान असत्य मान्यताओं का परित्याग करके सच्ची एकता स्थापित करें। उन्होंने लिखा- ‘मनुष्य का आत्मा सत्य असत्य का जानने वाला होता है तो भी अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्या आदि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य पर झुका जाता है।’ इसीलिए उन्होंने सबसे बड़ा प्रहार उस समय समाज में प्रचलित अविद्या पर किया। स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि मेरी मान्यता वही है जो तीन काल में सबको एक समान मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना या मत-मतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है।
मानव-जाति को अविद्या के जाल से छुड़ाने और सत्य-विद्या का प्रचार करने के लिए उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़े। यहाँ तक कि अनेक बार प्राणों का संकट भी उपस्थित हुआ। परन्तु वे अपने लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। उन्होंने जैसा कहा और लिखा वैसा किया भी। ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे।’
स्वामीजी के जीवन में हम देखते हैं कि उन्हें किसी भी प्रकार का, यहाँ तक कि मृत्यु तक का भी भय नहीं था। वे सत्य के लिये किसी भी प्रकार का समझौता नहीं कर सकते थे।
लाहौर में स्वामीजी महाराज दीवान रतनचन्द दाढ़ीवाले के बाग में ठहरे। ब्रह्मसमाज के लोगों ने चन्दा करके उनके व्यय का कार्य संभाला था। वे सोचते थे कि स्वामीजी ब्रह्मसमाजी हो जाएंगे। परन्तु जब उन्होंने देखा कि ये तो ब्रह्मसमाज के दोष बता रहे हैं तो उन्होंने व्यय देना बंद कर दिया। जब स्वामीजी ने कहा कि जाति जन्म से नहीं, कर्म से वर्ण होता है और सबको वेद पढ़ने का अधिकार है तो पौराणिकों ने उन्हें ईसाइयों का एजेन्ट बताना शुरु कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने दीवान रतनचन्द दाढ़ीवाले के पुत्र दीवान भगवानदास को बहका दिया कि ऐसे नास्तिक को अपने बाग में ठहराने से आपको पाप लगेगा। उन्होंने उनकी बातों में आकर स्वामीजी को बाग से जाने को कह दिया। स्वामीजी तुरन्त बाग से निकल पड़े। इस पर एक मुसलमान सज्जन खान बहादुर डाॅक्टर रहीम खां ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी कोठी महाराज के लिए दे दी।
एक दिन पं0 मनफूल ने कहा कि यदि आप मूर्तिपूजा का खण्डन न करें तो हिन्दू भी आप से नाराज नहीं होंगे और महाराज जम्मू कश्मीर भी आपसे प्रसन्न हो जाएंगे। स्वामीजी ने कहा कि मैं महाराजा जम्मू कश्मीर को प्रसन्न करूँ अथवा ईश्वर की आज्ञा का पालन करूँ जो वेदों में अंकित है।
11 मार्च सन् 1878– लाहौर में नवाब रजा अली खां के बगीचे में मुसलमान मत के बारे में व्याख्यान दिया। नवाब साहब पास ही टहल रहे थे और व्याख्यान सुन रहे थे। व्याख्यान की समाप्ति पर किसी ने उनसे कहा- महाराज आपको न कोई हिन्दू ठहरने को स्थान देता है, न मुसलमान, नवाब साहब ने कृपा करके आपको यह स्थान दिया है, यहाँ भी आपने इस्लाम का खण्डन किया, ऐसा न हो कि नवाब साहब आपसे अप्रसन्न हो जाएँ। स्वामीजी ने कहा कि मैं यहाँ किसी मत की प्रशंसा करने नहीं आया। मैं तो केवल वैदिक धर्म को ही सच्चा मानता हूँ। मैं जानबूझकर नवाब साहब को वैदिक धर्म के गुण बतला रहा था। मुझे परमात्मा से भिन्न अन्य किसी का भय नहीं है।
एक दिन बरेली में स्वामीजी के व्याख्यान में कलक्टर, कमिश्नर, पादरी स्काॅट और कुछ अन्य अंग्रेज उपस्थित थे। स्वामीजी पुराणों के दोषों का वर्णन कर रहे थे — कि ये लोग द्रौपदी, तारा, मन्दोदरी आदि को कुंवारी कहते हैं, द्रौपदी के पाँच पति बतलाते हैं, फिर भी उसे कुमारी कहते हैं। इस पर सभी लोगों के साथ अंग्रेज भी हंस रहे थे। स्वामीजी ने देखा कि उनकी हंसी अवज्ञा और ग्लानि सूचक है। अब व्याख्यान का विषय बदल गया।- यह हुई पुराणियों की लीला! अब किरानियों की सुनो! – ये कुमारी के पेट से पुत्र होना बतलाते हैं और दोष सर्वज्ञ शुद्ध स्वरूप परमात्मा पर लगाते हैं और ऐसा घोर पाप कहते हुए तनिक भी लज्जित नहीं होते। अब अंग्रेजों की हंसी क्रोध में परिवर्तित हो गई। कलक्टर और कमिश्नर के चेहरे तमतमा उठे। स्वामीजी ने इसकी तनिक भी परवाह नहीं की। कमिश्नर ने अगले दिन प्रातः काल लक्ष्मीनारायण खजांची को अपने बंगले पर बुलाकर कहा कि अपने पण्डित से कह दो कि बहुत सख्ती से काम न लिया करें। हम ईसाई लोग तो सभ्य हैं, हम वाद विवाद में सख्ती से नहीं घबराते। परन्तु यदि अशिक्षित हिन्दू और मुसलमान उत्तेजित हो गए तो तुम्हारे पण्डित जी के व्याख्यान बंद हो जाएंगे। लाला लक्ष्मीनारायण स्वामीजी को यह बात कैसे कहें, उनका साहस नहीं हो रहा था। बड़ी कठिनता से उन्होंने एक नास्तिक को स्वामीजी के सामने यह बात कहने के लिए तैयार किया। वह भी घबरा गया। वह स्वामीजी को केवल इतना ही कह सका कि खजांची जी आपको कुछ कहना चाहते हैं। खजांची की दशा बहुत खराब थी। उनके मुंह से शब्द नहीं निकलता था। कुछ प्रतीक्षा करने के बाद स्वामीजी ने कहा- मेरा अमूल्य समय क्यों नष्ट करते हो, जो कुछ कहना हो शीघ्रता से कहो। उन्होंने अटक- अटक कर बड़ी कठिनाई से कहा- महाराज यदि सख्ती न की जाए तो क्या हानि है! इससे प्रभाव भी अच्छा पड़ता है और अंग्रेजों को अप्रसन्न करना भी अच्छा नहीं है। यह सुनकर महाराज हंस पड़े और बोले- अरे बात क्या थी, जिसके लिए इतना गिड़गिड़ाया और हमारा समय नष्ट किया। साहब ने कहा होगा कि तुम्हारा पण्डित सख्त बोलता है, व्याख्यान बंद हो जाएंगे, यह होगा, वह होगा! अरे भाई! मैं कोई हव्वा तो नहीं कि तुझे खा लूंगा। उसने तुझ से कहा तू सीधा मुझसे कह देता।
उस दिन व्याख्यान आत्मा के स्वरूप पर था। प्रसंगवश स्वामीजी ने सत्य के बल के विषय में कहना प्रारम्भ किया। पादरी स्काॅट को छोड़कर पिछले दिन वाले सब अंग्रेज उपस्थित थे। लोग तन्मय होकर व्याख्यान सुन रहे थे। स्वामीजी ने कुछ देर तक सत्य के महत्व का वर्णन करके कहना प्रारम्भ किया- लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करो, कलक्टर क्रुद्ध होगा, कमिश्नर अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा। अरे चक्रवर्ती राजा भी क्यों न अप्रसन्न हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। फिर उन्होंने एक उपनिषद का वाक्य पढ़ा, जिसका आशय था कि आत्मा को कोई हथियार नहीं काट सकता, न उसे आग जला सकती है– फिर गरज कर बोले कि यह शरीर तो अनित्य है, इसकी रक्षा में प्रवृत्त होकर अधर्म करना व्यर्थ है, इसे जिस मनुष्य का जी चाहे नष्ट कर दे– और चारों ओर अपने नेत्रों की ज्योति डालकर सिंहनाद करते हुए कहा- परन्तु मुझे वह शूरवीर दिखलाओ जो यह कहता हो कि वह मेरे आत्मा का नाश कर सकता है। जब तक ऐसा वीर इस संसार में दिखाई नहीं देता तब तक मैं यह सोचने के लिए भी तैयार नहीं हूँ कि मैं सत्य को दबाऊँगा या नहीं।
रुड़की में सफरमैना की पल्टन का एक मजहबी सिख भी स्वामीजी के उपदेश सुनने के लिए आता था। एक दिन वह सफेद वस्त्र पहने हुए बड़े चाव से स्वामीजी का व्याख्यान सुन रहा था। इतने में छावनी का पोस्टमैन स्वामीजी की डाक लेकर आया। वह मुसलमान था और उस सिख को पहचानता था। उसे देखकर वह आग बबूला हो गया। बोला- अरे मनहूस नापाक! तू इतने मशहूर और बड़े व्यक्ति की सभा में इस बेअदबी से आ बैठा और अपनी जात तक नहीं बताई। यह सुनकर वह लज्जित हुआ और अलग जा बैठा। पोस्टमैन उसे वहाँ से भी खदेड़ना चाहता था। परन्तु परम कारुणिक दयानन्द को यह कैसे सहन हो सकता था। उन्होंने अत्यंत कोमल शब्दों में पोस्टमैन को कहा- उसके सुनने में कोई हानि नहीं है, उसको कुछ न कहना चाहिए। उस मनुष्य की आंखों में आंसू आ गए, हाथ जोड़कर बोला- मैंने किसी मनुष्य की कोई हानि नहीं की, मैं सबसे पीछे जूतियों की जगह अलग बैठा हूँ। स्वामीजी ने पोस्टमैन को कहा-तुम्हें ऐसा कठोर व्यवहार न करना चाहिए, परमेश्वर की सृष्टि में सब समान हैं और उस मनुष्य से कहा कि तुम प्रतिदिन उपदेश सुनने आया करो। मुसलमानों के लिए तुम चाहे कैसे भी हो, परन्तु यहाँ तुम्हें कोई घृणा की दृष्टि से नहीं देखता। वह प्रतिदिन उपदेश सुनने आता रहा।
कानपुर में बाजार की नाप हो रही थी। बीच में एक मढ़िया थी, जिसमें लोग धूप दीप आदि किया करते थे। बाबू मदनमोहन ने स्वामीजी से कहा कि स्काॅट साहब आप को बहुत मानते हैं, उनसे कहकर मढ़िया को हटवा दीजिये। स्वामीजी ने उत्तर दिया कि मेरा काम लोगों के मनो-मन्दिरों से मूर्तियों को निकालना है, ईंट पत्थरों के मन्दिरों को तोड़ना फोड़ना मेरा काम नहीं है।
बिना किसी पक्षपात के प्राणी मात्र की उन्नति करने में तत्पर ऐसा युग पुरुष इतिहास में दुर्लभ ही है। जहाँ उन्होंने विभिन्न प्रकार के आडम्बरों में फंसे मनुष्य समाज को सच्चा ईश्वरीय मार्ग दिखाया, वहीं भारतवर्ष के खोए हुए गौरव और आत्मसम्मान को जगा दिया। देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले अधिकांश देशभक्त उनके ही अनुयायी थे। वेदों के वास्तविक अर्थों का प्रचार, स्त्री शिक्षा, मानव एकता, जातिगत भेदभाव निवारण, राष्ट्रभाषा, पर्यावरण संरक्षण और गौ आदि उपकारी और निर्दोष पशुओं की रक्षा के लिए किये गए उनके उद्घोष की प्रतिध्वनि दिग्दिगन्त में सुनाई देती है। इन कार्यों के लिए जिस आत्मिक और शारीरिक बल की आवश्यकता होती है उसका भी उन्होंने अनुपम संग्रह किया था। उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था। उनके जीवन में कई ऐसे प्रसंग आते हैं कि उनको हानि पहुंचाने आए दुष्टों के समूह के समूह उनकी हुंकार मात्र से भागने को विवश हो गए। उनका ईश्वर विश्वास अतुल्य था। बड़े से बड़ा खतरा होने पर भी रक्षक बाडी गार्ड नहीं रखते थे। कोई भी लालच उन्हें उनके कर्तव्य से नहीं डिगा सकता था। उदयपुर में महाराणा ने अत्यंत विनम्रता से निवेदन किया कि आप मूर्तिपूजा का खण्डन छोड़ दें। आप जानते हैं कि यह राज्य एकलिंग महादेव के अधीन है। आप एकलिंग के मन्दिर में महन्त बन जाएँ। कई लाख रुपये पर आपका अधिकार हो जाएगा। इस पर स्वामीजी ने कड़क कर कहा- आप लोभ देकर मुझसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर की आज्ञा भंग कराना चाहते हैं। यह छोटा सा राज्य और उसके मन्दिर जिससे मैं एक दौड़ में बाहर हो सकता हूँ, मुझे कभी भी वेद और ईश्वर की आज्ञा भंग करने पर विवश नहीं कर सकते। मैं कभी सत्य को छोड़ या छिपा नहीं सकता।
जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने देशी राजाओं को जगाने का अभियान छेड़ा था। इसी क्रम में रावराजा तेज सिंह और कर्नल सर प्रतापसिंह के निमंत्रण पर जोधपुर जाने का निश्चय कर लिया। इस पर शाहपुराधीश को चिन्ता हुई। वे जानते थे कि जोधपुर के महाराज एक वैश्या नन्हीं जान पर बुरी तरह आसक्त हैं। शाहपुराधीश जानते थे कि स्वामी जी राजाओं के इस चारित्रिक दोष की भरपूर निन्दा करते हैं, कहीं ऐसा न हो कि वहाँ स्वामीजी को कोई हानि पहुंच जाए। उन्होंने स्वामीजी को निवेदन किया कि आप जोधपुर जा ही रहे हैं तो वहाँ वेश्याओं का अधिक खण्डन न कीजियेगा। स्वामीजी ने उत्तर दिया बड़े बड़े कटीले वृक्षों को नहुरने से नहीं काटा जाता। उसके लिए अति तीक्ष्ण शस्त्रों की आवश्यकता होती है। अजमेर में भी लोगों ने चेतावनी दी कि महाराज, वह मूल राक्षस का देश है वहाँ न जाइये। इस पर स्वामीजी ने इतना ही कहा- यदि लोग हमारी अंगुलियों की बत्तियाँ बनाकर जला दें तो भी कोई चिन्ता नहीं। मैं वहाँ जाकर अवश्य सत्योपदेश करूँगा।
जोधपुर में ही एक षड्यंत्र के द्वारा 29 सितम्बर सन् 1883 को उन्हें दूध में विष (संखिया) दे दिया गया। इसी के परिणामस्वरूप 30 अक्तूबर 1883 को दीपावली के दिन अजमेर में वे नश्वर शरीर को त्यागकर मुक्ति पथ के पथिक बन गए।
सूर्य सोने को गया लाखों सितारों को जगाकर,
एक दीपक बुझ गया लाखों चिरागों को जलाकर।।