-डॉ. रामप्रकाश
ऋषि दयानन्द के पश्चात् [पण्डित] गुरुदत्त [विद्यार्थी] प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने मोनियर विलियम्स तथा मैक्समूलर आदि से लोहा लिया। तब भारतीय विद्वान् इनकी आरती उतारते थे, इनके विरुद्ध लिखने की बात तो क्या कहिए। श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसा देशभक्त विद्वान् भी मोनियर विलियम्स के सहायक के रूप में इंग्लैण्ड में कार्य करता रहा और इनके वेद विषयक किसी भी लेख के विरुद्ध भी नहीं लिखा। किसी अन्य मतावलम्बी ने भी इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया। स्वामी विवेकानन्द ने भी ‘ईशदूत ईसा’ नामक पुस्तक लिखकर सरल एवं सुविधाजनक मार्ग ही अपनाया। यदि गुरुदत्त तथा आर्यसमाज इस क्षेत्र में कार्य न करते तो वैदिक शास्त्रों का स्वरूप ही बिगड़ जाता। पण्डित गुरुदत्त ने विदेशियों के ग्रन्थों की समलोचना की। उनके आक्षेपों का तर्कसंगत उत्तर दिया। भाषा की उत्पत्ति तथा वैदिक संज्ञा विज्ञान आदि पर लेख लिखे। उपनिषदों पर टीकाएँ लिखीं। उनके लेख विदेशों मेंआर्यसमाज के सत्संगों में पढ़कर सनाए जाते थे। इस प्रसंग में स्वामी श्रद्धानन्द ने लिखा था, “अब तक योरप और अमेरिका में आर्यसमाज के उच्च विचार फैलाने का गुरुदत्त के लेखों के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है। जो उपनिषद् व्याख्या का क्रम पण्डित गुरुदत्त ने आरम्भ किया था उसको भी आगे ले चलने वाला कोई उत्पन्न न हुआ।”
धर्मप्रचारार्थ गुरुदत्त ने यदा कदा ऋषि दयानन्द प्रदत्त शास्त्रार्थों की पद्धति को अपनाया। उनके जीवन में कई शास्त्रार्थों का उल्लेख मिलता है। विश्वभर में सम्भवतः ऋषि दयानन्द ने सत्य-असत्य निर्णय हेतु शास्त्रार्थों पर सर्वाधिक बल दिया। धर्मप्रचार में यह उनका विशेष शस्त्र था, अन्यथा तलवार के बल पर या धन के प्रलोभन से धर्मान्तरण के उदाहरण अधिक मिलते हैं। ऋषि के पश्चात् गुरुदत्त आर्यसमाज के पहले शास्त्रार्थ महारथी थे। बाद में पण्डित लेखराम, पण्डित भीमसेन, पण्डित धर्मभिक्षु, पण्डित अखिलानन्द, स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित बद्धदेव विद्यालंकार आदि ने खूब शास्त्रार्थ किए।
[स्रोत : पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी, पृष्ठ 159, संस्करण 2002, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]