महाठगबंधन
कभी गरियाते हैं,
तो कभी गले लगाते हैं
निज लाभ लोभ में
एक-दूजे को सहलाते हैं
एक पूरब एक पश्चिम,
एक उत्तर एक दक्षिण
देखो सब मिलकर अब
क्या-क्या गुल खिलाते हैं।
जनता को सदा छलते रहे
हक उनका ये निगलते रहे
विचारधारा मिले या न मिले
ये तेल में पानी मिलाते हैं।
करके वादा दिए के साथ का
हवा के साथ हो जाते हैं
अपने हित को नारों में
सदा जनहित ये बताते हैं।
एक-दूसरे को हमेशा ही
मौका मिलते ही नोचते रहे
देख शेर सामने अपने
गीदड़-गीदड़ मिल जाते हैं।
न कोई किसी की बहन
न कोई किसी का भैया
सबको बचानी है कैसे भी
अपनी-अपनी डूबती नैया
नकली वादे, नकली दावे
नकली इनके सब नारे हैं
लोकतंत्र का मजाक उड़ाते
ये लोकतंत्र के हत्यारे हैं।
– डॉ. शैलेश शुक्ला, मझगवाँ, पन्ना, मध्य प्रदेश