नास्तिक बनने के मुख्य क्या क्या कारण है?

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नास्तिकता भी एक अन्धविश्वास है!

#डॉविवेकआर्य

नास्तिक बनने के मुख्य क्या क्या कारण है?

नास्तिक बनने के प्रमुख कारण है

  1. ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से अनभिज्ञता।
  2. धर्म के नाम पर अन्धविश्वास जिनका मूल मत मतान्तर की संकीर्ण सोच है।
  3. विज्ञान द्वारा करी गई कुछ भौतिक प्रगति को देखकर अभिमान होना।
  4. धर्म के नाम पर दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि।

ईश्वर के नाम पर अत्याचार, अज्ञानता को बढ़ावा देना, चमत्कार आदि में विश्वास दिलाना, ईश्वर को एकदेशीय अर्थात एक स्थान जैसे मंदिर, मस्जिद आदि अथवा चौथे अथवा सातवें आसमान तक सिमित करना, ईश्वर द्वारा अवतार लेकर विभिन्न लीला करना, एक के स्थान पर अनेक ईश्वर होना, निराकार के स्थान पर साकार ईश्वर होना, ईश्वर द्वारा अज्ञानता का प्रदर्शन करना आदि कुछ कारण है। जो एक निष्पक्ष व्यक्ति को भी यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं की क्या ईश्वर का अस्तित्व है की नहीं अथवा ईश्वर मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पना मात्र है। उदाहरण के तौर पर हिन्दू समाज में शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश की मनाही है एवं अगर कोई शूद्र मंदिर में प्रवेश कर भी जाये तो उसे दंड दिया जाता है और मंदिर को पवित्र करने का ढोंग किया जाता है। यह सब पाखंड किया तो ईश्वर के नाम पर जाता है मगर इसके पीछे मूल कारण मनुष्य का स्वार्थ है नाकि ईश्वर का अस्तित्व है।
ईश्वर गुण, कर्म और स्वाभाव से दयालु एवं न्यायकारी है इसलिए वह किसी भी प्राणिमात्र में कोई भेदभाव नहीं करते। ईश्वर गुणों से सर्वव्यापक एवं निराकार है अर्थात सभी स्थानों पर है और आकार रहित भी है। जब ईश्वर सभी स्थानों पर है तो फिर उन्हें केवल मंदिर में या क्षीर सागर पर या कैलाश पर या चौथे आसमान पर या सातवें आसमान पर ही क्यों माने। इससे यही सिद्ध होता हैं की मनुष्य ने अपनी कल्पना से पहले ईश्वर को निराकार से साकार किया, उन्हें सर्वदेशीय अर्थात सभी स्थानों पर निवास करने वाला से एकदेशीय अर्थात एक स्थान पर सिमित कर दिया। फिर सिमित कर कुछ मनुष्यों ने अपने आपको ईश्वर का दूत, ईश्वर और आपके बीच मध्यस्थ, ईश्वर तक आपकी बात पहुँचने वाला बना डाला। यह जितना भी प्रपंच ईश्वर के नाम पर रचा गया यह इसीलिए हुआ क्योंकि हम ईश्वर के निराकार गुण से परिचित नहीं है। अपनी अंतरात्मा के भीतर निराकार एवं सर्वव्यापक ईश्वर को मानने से न मंदिर की, न मूर्ति की, न मध्यस्थ की, न दूत की, न अवतार की, न पैगम्बर की और न ही किसी मसीहा की आवश्यकता है।

ईश्वर के नाम पर सबसे अधिक भ्रांतियां मध्यस्थ बनने वाले लोगों ने फैलाई है चाहे वह छुआ छूत का समर्थन करने वाले एवं शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश न देने वाले हिन्दू धर्म के पुजारी हो , चाहे इस्लाम से सम्बन्ध रखने वाले मौलवी-मौलाना हो जिनके उकसाने के कारण इतिहास में मुस्लिम हमलावरों ने मानव जाति पर धर्म के नाम पर ऐसा कोई भी अत्याचार नहीं था जो उन्होंने नहीं किया था , चाहे ईसाई समाज से सम्बंधित पोप आदि हो जिन्होंने चर्च के नाम पर हज़ारों लोगों को जिन्दा जला दिया एवं निरीह जनता पर अनेक अत्याचार किये। न यह मध्यस्थ होते न ईश्वर के नाम पर इतने अत्याचार होते और न ही इस अत्याचार के फलस्वरूप प्रतिक्रिया रूप में विश्व के एक बड़े समूह को ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर नास्तिकता का समर्थन करना पड़ता। सत्य यह हैं यह प्रतिक्रिया इस व्याधि का समाधान नहीं थी अपितु इसने रोग को और अधिक बढ़ा दिया। आस्तिक व्यक्ति यथार्थ में ईश्वर विश्वासी होने से पाप कर्म में लीन होने से बचता था। दोष मध्यस्थों का था जो आस्तिकों का गलत मार्गदर्शन करते थे । मगर ईश्वर को त्याग देने से पाप-पुण्य का भेद मिट गया और पाप कर्म अधिक बढ़ता गया, नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया गया एवं इससे विश्व अशांति और अराजकता का घर बन गया।

ईश्वर में अविश्वास का एक बड़ा कारण अन्धविश्वास है। सामान्य जन विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में लिप्त हैं और उन अंधविश्वासों का नास्तिक लोग कारण ईश्वर को बताते है। सत्य यह हैं की ईश्वर ज्ञान के प्रदाता है अज्ञान को बढ़ावा देने का मुख्य कारण मनुष्य का स्वार्थ है। अपनी आजीविका, अपनी पदवी, अपने नाम को सिद्ध करने के लिए अनेक धर्म गुरु अपने अपने ढंग से अपनी अपनी दुकान चलाते है। कोई झाड़ फूंक से ,कोई गुरुमंत्र से, कोई गुरु के नाम स्मरण से ,कोई गुरु की आरती से, कोई गुरु की समाधी आदि से जीवन के सभी दुखों का दूर होना बताता है, कोई गंडा तावीज़ पहनने से आवश्यकताओं की पूर्ति बताता है, कुछ लोग और आगे बढ़कर अंधे हो जाते है और कोई कोई निस्संतान संतान प्राप्ति के लिए पड़ोसी के बच्चे की नरबलि देने तक से नहीं चूकता है। विडंबना यह हैं की इन मूर्खों के क्रियाकलापों को दिखा दिखा कर अपने आपको तर्कशील कहने वाले लोग नास्तिकता को बढ़ावा देते है। कोई भी अन्धविश्वास वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए नास्तिकता को प्रोत्साहन वालों द्वारा विज्ञान का सहारा लेकर नास्तिकता का प्रचार करना भी एक प्रकार से अन्धविश्वास को मिटाने के स्थान पर एक और अन्धविश्वास को बढ़ावा देना ही है।

चमत्कार में विश्वास अन्धविश्वास की उत्पत्ति का मूल है। आस्तिक समाज में मुसलमान पैगम्बरों की चमत्कार की कहानियों में अधिक विश्वास रखते है, ईसाई समाज में ईसा मसीह और संतों के नाम पर चमत्कार की दुकानें चलाई जाती है। हिन्दू समाज में चमत्कार पुराणों में लिखी देवी-देवताओं की कहानियों से लेकर गुरुडम की दुकानों तक फल फूल रहा है। इन सभी का यह मानना हैं की ईश्वर सब कुछ कर सकता है। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में इस दावे की परीक्षा करते हुए लिखते हैं की अगर ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो क्या ईश्वर अपने आपको मार भी सकता है? क्या ईश्वर अपने जैसा एक और ईश्वर बना सकता है जिसके गुण-कर्म और स्वाभाव उसी के समान हो। इसका उत्तर स्पष्ट है नहीं। फिर ईश्वर सब कुछ कैसे कर सकता है? इस शंका का समाधान यह है की जो जो कार्य ईश्वर के है जैसे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन-पोषण, प्रलय, मनुष्य आदि का जन्म-मरण, पाप-पुण्य का फल देना आदि कार्य करने में ईश्वर स्वयं सक्षम है उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं है। नास्तिक लोग आस्तिकों की चमत्कार के दावों की परीक्षा लेते हुए कहते है की सृष्टि को नियमित मानते हो अथवा अनियमित। चमत्कार नियमों का उल्लंघन है। अगर ईश्वर की बनाई सृष्टि को अनियमित मानते हो तो उसे बनाने वाले ईश्वर को भी अनियमित मानना पड़ेगा। जोकि असंभव है। इसलिए चमत्कार को मनुष्य के मन की स्वार्थ वश कल्पना मानना सत्य को मानने के समान है। न इससे ईश्वर का नियमित होने का खंडन होगा और न ही अन्धविश्वास को बढ़ावा मिलेगा।

नास्तिकता को बढ़ावा देने में एक बड़ा दोष अभिमान का भी है। भौतिक जगत में मनुष्य ने जितनी भी वैज्ञानिक उन्नति की है उस पर वह अभिमान करने लगता है और इस अभिमान के कारण अपने आपको जगत के सबसे बड़ी सत्ता समझने लगता है। एक उदाहरण लीजिये सभी यह मानते हैं की न्यूटन ने Gravitation अर्थात गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की थी। क्या न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्षण की शक्ति नहीं थी? थी मगर मनुष्य को उसका ज्ञान नहीं था अर्थात न्यूटन ने केवल अपनी अल्पज्ञता को दूर किया था और इसी क्रिया को आविष्कार कहा जाता है। सत्य यह हैं की जितनी भी भौतिक वैज्ञानिक उन्नति हैं वह अपनी अलपज्ञता को दूर करना है। मनुष्य चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले वह ज्ञान की सीमा को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि एक तो मनुष्य की शक्तियां सिमित है जबकि ज्ञान की असीमित है दूसरी असीमित ज्ञान का ज्ञाता केवल एक ही है और वो हैं ईश्वर जिनमें न केवल वो ज्ञान भी पूर्ण है जो केवल मानव के लिए है अपितु वह ज्ञान भी है जो मानव से परत केवल ईश्वर के लिए है।

स्वयं न्यूटन की इस सन्दर्भ में धारणा कितनी प्रासंगिक है —

“I do not know what I may appear to the world, but to myself I seem to have been only like a boy playing on the sea-shore, and diverting myself in now and then finding a smoother pebble or a prettier shell than ordinary, whilst the great ocean of truth lay all undiscovered before me.”

न्यूटन ने हमारी अवधारणा का समर्थन कर अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया है।

अब प्रश्न यह है की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है और क्योंकि नास्तिक लोगों का यह मत है की धर्म और विज्ञान एक दूसरे के शत्रु है। नास्तिक लोगों की इस सोच का मुख्य कारण यूरोप के इतिहास में चर्च द्वारा बाइबिल के मान्यताओं पर वैज्ञानिकों द्वारा शंका करना और उनकी आवाज़ को सख्ती से दबा देना था। उदाहरण के लिए गैलिलियो को इसलिए मार डाला गया क्योंकि उसने कहा था की पृथ्वी सूर्य के चारों और भ्रमण करती हैं जबकि चर्च की मान्यता इसके विपरीत थी। चर्च ने वैज्ञानिकों का विरोध आरम्भ कर दिया और उन्हें सत्य को त्याग कर जो बाइबिल में लिखा था उसे मानने को मजबूर किया और न मानने वालों को दण्डित किया गया। इस विरोध का यह परिणाम निकला की यूरोप से निकलने वाले वैज्ञानिक चर्च को अर्थात धर्म को विज्ञान का शत्रु मानने लग गए और उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकार दिया। दोष चर्च के अधिकारियों का था नाम ईश्वर का लगाया गया। यह विचार परम्परा रूप में चलता आ रहा हैं और इस कारण से वैज्ञानिक अपने आपको नास्तिक कहते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है? इसका उत्तर है की “Religion and Science are not against each other but they are allies to each other” अर्थात धर्म और एक दूसरे के विरोधी नहीं अपितु सहयोगी है। जैसे विज्ञान यह बताता है की जगत कैसे बना है जबकि धर्म यह बताता है की जगत क्यूँ बना है। जैसे मनुष्य का जन्म कैसे हुआ यह विज्ञान बताता है जबकि मनुष्य का जन्म क्यूँ हुआ यह धर्म बताता है।

भौतिक विज्ञान के लिए आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करना असंभव है मगर इनका समाधान धर्म द्वारा ही संभव है। धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के सहयोगी है और इसी तथ्य को आइंस्टीन ने सुन्दर शब्दों में इस प्रकार से कहा है –

“Science without religion is a lame and religion without science is blind.”

विज्ञान धर्म के मार्गदर्शन के बिना अधूरा हैं और सत्य धर्म विज्ञान के अनुकूल है, अन्धविश्वास अवैज्ञानिक होने के कारण त्याग करने योग्य है।

एक कुतर्क यह भी दिया जाता है की अगर ईश्वर है तो उन्हें वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करके दिखाए। इसका समाधान वायु के अतिरिक्त मन, बुद्धि, सुख, दुःख, गर्मी, सर्दी, काल, दिशा, आकाश ये सभी निराकार है। क्या ये सभी वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध होते है? नहीं। परन्तु फिर भी इनका अस्तित्व माना जाता है फिर केवल ईश्वर को लेकर यह शंका उठाना नास्तिकता का समर्थन करने वाले की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता है। सत्य यह हैं की वैज्ञानिक प्रयोगों से ईश्वर की सत्ता को सिद्ध न कर पाना आधुनिक विज्ञान की कमी है जबकि आध्यात्मिक वैज्ञानिक जिन्हें हम ऋषि कहते है चिरकाल से निराकार ईश्वर को न केवल अपनी अंतरात्मा में अनुभव करते आ रहे है अपितु जगत के कण कण में भी विद्यमान पाते है।

दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि का दोष ईश्वर को देना एक और मूर्खता है। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चूका है की दंगे, उपद्रव आदि मज़हब या मत-मतान्तर आदि को मानने वालों के स्वार्थ के कारण होता है नाकि धर्म के कारण होता है। एक उदाहरण लीजिये 1947 से पहले हमारे देश में अनेक दंगे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में हुए थे। इन दंगों का मुख्य कारण यह बताया जाता था की हिन्दुओं के धार्मिक जुलूस के मस्जिद के सामने से निकलने से मुसलमानों की नमाज़ में विघ्न पड़ गया जिसके कारण यह दंगे हुए। मेरा स्पष्ट प्रश्न है कि जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना या नमाज़ में लीन होगा उसके सामने चाहे बारात भी क्यों न निकल जाये। उसे मालूम ही नहीं चलेगा परन्तु जो व्यक्ति यह बांट जो रहा हो की कब हिन्दुओं का जुलूस आये कब हम नमाज़ आरम्भ करे और कब दंगा हो। तो इसका दोष ईश्वर को देना कहा तक उचित है? संसार में जितनी भी हिंसा ईश्वर के नाम पर होती है उसका मूल कारण स्वार्थ है नाकि धर्म है।

नास्तिक लोग धर्म की मूलभूत परिभाषा से अनभिज्ञ है और मत-मतान्तर की संकीर्ण सोच एवं अन्धविश्वास को धर्म समझकर उसकी तिलांजलि दे देते है। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना है। “धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजनिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजनिक मर्यादा पद्यति है वह धर्म है। धैर्य, क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी का त्याग, शौच अर्थात पवित्रता , इन्द्रियों का निग्रह अर्थात उन्हें वश में करना , बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण है। सदाचार परम धर्म है।

अन्धविश्वास मत मतान्तर की संकीर्ण सोच है। उसे धर्म समझना अन्धविश्वास है। धर्म का आचरण से सम्बन्ध है। मत का सम्बन्ध आचरण से नहीं अपितु मान्यता से है। मान्यता सही भी हो सकती है गलत भी हो सकती है। इसलिये मत को धर्म समझना गलत है।

ईश्वर में विश्वास रखने के निम्नलिखित लाभ है।

  1. आदर्श शक्ति में विश्वास से जीवन में दिशा निर्धारण होता है।
  2. सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में विश्वास से पापों से मुक्ति मिलती है।
  3. ज्ञान के उत्पत्ति कर्ता में विश्वास से ज्ञान प्राप्ति का संकल्प बना रहता है।
  4. सृष्टि के रचना कर्ता में विश्वास से ईश्वर की रचना से प्रेम बढ़ता है।
  5. अभयता, आत्मबल में वृद्धि, सत्य पथ का अनुगामी बनना, मृत्यु के भय से मुक्ति, परमानन्द सुख की प्राप्ति, आध्यात्मिक उन्नति, आत्मिक शांति की प्राप्ति, सदाचारी जीवन आदि गुण की आस्तिकता से प्राप्ति होती है।
  6. स्वार्थ, पाप कर्म, अत्याचार, दुःख, राग, द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से मुक्ति मिलती है।

तार्किक होना गलत नहीं है। ऋषि दयानंद 19वीं सदी के सबसे बड़े तार्किक थे मगर वह पूर्णरूप से आस्तिक थे। दर्शनों में तर्क को ऋषि कहा गया है। बशर्ते तर्क का प्रयोजन सत्य को ग्रहण करना एवं असत्य का त्याग हो। तर्क का नाम लेकर धर्म का बहिष्कार कर भोग वादी होने के बहाने बनाना अपने आपको अँधेरे में रखने के समान है। नास्तिकता अपने आप में अन्धविश्वास है। अगर किसी व्यक्ति के पैर में फोड़ा निकला हो तो उसका ईलाज करना चाहिये न कि पैर काट देना चाहिये। नास्तिकता इसी प्रकार का पाखण्ड है। धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखंड को देखकर पाखंड के त्याग के स्थान पर धर्म का बहिष्कार करना नास्तिकता रूपी अन्धविश्वास मात्र है।

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