प्राण हमारे अन्दर आनन्द कब पैदा करते है?
प्राण हमारे अन्दर आनन्द कब पैदा करते है?
हृदय में परमात्मा को स्थापित करने के दो प्रधान कारण कौन से हैं?
जीवन में प्रगति का क्रम क्या है?
बृहत्स्वश्चन्द्रममवद्यदुक्थ्य1मकृण्वतभियसारोहणंदिवः।
यन्मानुषप्रधनाइन्द्रमूतयः स्वर्नृषाचोमरुतोऽमदन्ननु।।
ऋग्वेद 1.52.9
(बृहत्) बड़ा (स्वश्चन्द्रम्) आत्म प्रकाश के साथ (अमवत्) उत्तम ज्ञान, उत्तम मन (यत्) जब (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (परमात्मा) (अकृण्वत्) स्थापित (हृदय में) (भियसा) भय से (रोहणम्) प्रगति के लिए (दिवः) दिव्य स्तर की ओर (प्रकाशवान, मुक्ति) (यत्) जब (मानुष प्रधनः) मनुष्य के कल्याण के लिए (इन्द्रम्) इन्द्रियों का नियंत्रक (उतयाः) संरक्षण करता है (स्वः) स्वयं (नृषाचः) प्रगतिशील व्यक्ति (मरुतः) वायु (प्राण) (अमदन्) हर्षित करता है (ननु) निश्चित रूप से।
व्याख्या :-
प्राण हमारे अन्दर आनन्द कब पैदा करते है?
जब इन्द्रियों का नियंत्रक प्रशंसनीय परमात्मा का स्व-प्रकाश उत्तम ज्ञान और उत्तम बल के साथ या तो भय के कारण या मुक्ति के दिव्य स्तर तक प्रगति करने की अभिलाषा के कारण अपने हृदय में स्थापित कर लेता है, जब वह अन्य लोगों के कल्याण के लिए अपने प्रगतिशील जीवन में आत्मा को संरक्षित कर लेता है, उसके बाद उसके प्राण (वायु) निश्चित रूप से उसके अन्दर आनन्द का कारण बनते हैं।
जीवन में सार्थकता : –
हृदय में परमात्मा को स्थापित करने के दो प्रधान कारण कौन से हैं?
जीवन में प्रगति का क्रम क्या है?
हमें परमात्मा को सत्य रूप में और सम्मान पूर्वक स्थापित करना चाहिए, इसके दो मुख्य कारण हैं – प्रथम, हम स्वयं को दुःखों के डर से बचा सकें और द्वितीय, हम मुक्ति के दिव्य स्तर तक प्रगति कर सकें।
परमात्मा को अपने हृदय में स्थापित करने के बाद व्यक्ति स्वयं को संरक्षित कर सकता है और दूसरों के कल्याण के लिए लाभकारी हो सकता है। तभी प्राण उसके लिए आनन्दकारी होंगे।
इस प्रकार जीवन में प्रगति का क्रम दो कदमों में दिखाई देता है – प्रथम, मन की वृत्तियों को खत्म करके एक विचार पर ध्यान देना चाहिए कि अपने अन्दर ही परमात्मा की अनुभूति की तरफ प्रगतिशील रहें। द्वितीय, स्वयं अर्थात् आत्मा को संरक्षति करें जिससे दूसरों का कल्याण हो सके।
ऐसा प्रगतिशील जीवन ही प्राणों के आनन्द की अनुभूति प्राप्त कर सकता है। उसी व्यक्ति के प्राण आनन्ददायक होते हैं जिसका जीवन अन्य लोगों के लिए लाभकारी होता है।
प्रगति का यह क्रम भौतिकवादी जीवन में भी समान रूप से लागू होता है। प्रथम, मन की वृत्तियों और बिखराव का नाश करे जिससे वह एक बिन्दु पर ध्यान केन्द्रि कर सके। द्वितीय, अपनी मूल शक्ति का विकास करो जिससे अपनी आत्मा की रक्षा हो सके और दूसरां का कल्याण हो सके। जीवन में इन दो कदमों को सुनिश्चित करने के बाद ही कोई यह महसूस कर सकता है कि प्राण उसके लिए कितने आनन्ददायक बन चुके हैं।
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