१४ वें वर्ष में यजुर्वेद कंठस्थ,
शिवरात्रि का ऐतिहासिक व्रत (१८९४ वि० ) – १४ वर्ष की अवस्था तक मैंने यजुर्वेद की संहिता कण्ठस्थ कर ली और कुछ वेदों का पाठ भी पूरा हो गया था और शब्दरूपावली आदिक छोटे-छोटे व्याकरण के ग्रन्थ भी पढ़ लिये थे। जहां-जहां शिवपुराणादिक की कथा होती थी वहां पिता जी मुझ को पास बिठला कर सुनाया करते थे। हमारे घर में साहूकारी अर्थात् लेन-देन का व्यवसाय होता था, भिक्षा की जीविका नहीं थी । जमींदारी भी थी जिससे अच्छी प्रकार घर के कामकाज चलते थे। पीढ़ियों से जमादारी का पद बराबर चला आता था जो इस देश की तहसीलदारी के तुल्य है, क्योंकि उसका काम भूमिकर की वसूली (प्राप्ति) थी और कई सरकारी सिपाही मिले हुए थे ।
मेरे पिता ने इस वर्ष मुझे शिवरात्रि का व्रत करने की आज्ञा दी परन्तु मैं उद्यत न हुआ, तब मुझे कथा सुनाई गई। वह कथा मेरे जी को बहुत ही मीठी लगी। तब मैंने उपवास करने का निश्चय कर लिया। यद्यपि मेरी माता मुझे कहती थी कि तू उपवास मत कर, क्योंकि मुझ को सवेरे ही भूख लगती थी । इस कारण मेरी निरोगिता की दृष्टि से निषेध किया करती थी कि यह प्रात:काल ही भोजन कर लेता है, इससे व्रत कभी नहीं हो सकेगा। पिता हठ करते थे कि पूजा अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि कुल की रीति है। इस पर अत्यन्त आग्रह करके अन्त में उसके आरम्भ करने की अत्यन्त कठोर आज्ञा दी और मेरी माता के कथन पर कुछ विचार न किया।
जब वह बड़ी विपत्ति और भूखे रहने का दिन, जिसको शिवरात्रि कहते हैं, आया जो माघ वदी त्रयोदशी के अगले दिन काठियावाड़ में मनाया जाता है। मेरे पिता ने त्रयोदशी के दिन कथा का माहात्म्य सुनाकर शिवरात्रि के व्रत का निश्चय करा दिया था । यद्यपि माता ने निषेध किया था कि इससे व्रती नहीं रहा जायेगा, तथापि पिता जी ने व्रत का आरम्भ करा ही दिया । जब चतुर्दशी की शाम हुई, उससे पहले ही मुझे समझाया गया था कि इसी रात को मुझे पूजा के नियम भी सिखाये जायेंगे और शिवमन्दिर में जागरण में सम्मिलित होना पड़ेगा। मेरे नगर के बाहर एक बड़ा शिवालय है। वहां शिवरात्रि के कारण बहुत लोग रात के समय जाते आते रहते हैं और पूजा-अर्चा किया करते हैं। मेरे पिता, मैं और बहुत से लोग वहां एकत्रित थे। पहले पहर की पूजा पूरी हुई और इसी प्रकार दूसरे पहर की भी । १२ बजे के पश्चात् लोग जहां के तहां मारे ऊंघ के झूमने लगे और धीरे-धीरे सब लेट गये। मैं उपवास निष्फल न हो इस भय से न सोया था और सुन भी रहा था कि सोने से शिवरात्रि का फल प्राप्त नहीं होता। इसलिए आंखों पर जल के छींटे मारकर जागता रहा। परन्तु मेरे पिता का भाग्य मुझसे नीचे दर्जे का था । वह सबसे पहला मनुष्य था जो थकान आदि का कष्ट सहन न कर सका और सो गया और जागरण करने के लिए मुझको अकेला छोड़ दिया और पुजारी लोग भी बाहर जाकर लेट गये।
चूहे की करतूत और पार्थिव पूजा में अविश्वास के अंकुर मूर्ति पूजा में अविश्वास-
इतने में ऐसा चमत्कार हुआ कि मन्दिर के बिल में से एक ऊन्दर (चूहा) बाहर निकल कर पिंडी के चारों ओर फिरने लगा और पिंडी के ऊपर चढकर अक्षतादि भी खाने लगा। मैं तो जागता ही था, इसलिए मैंने सब खेल देखा।’
इस समय मेरे चित्त में भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार उत्पन्न होकर प्रश्न उठने लगे। तब मैंने अपने मन में कहा और यह शंका उठाई कि जिसकी हमने कथा सुनी थी वही क्या यह महादेव है ? या वह कोई और है, क्योंकि वह तो मनुष्य के समान एक देवता है जिसके विकराल गण, पाशुपतास्त्र, वृषभवाहन, त्रिशूल, हाथ में डमरु बजाता, कैलाश का पति है, इत्यादि प्रकार का महादेव जो कथा में सुना था क्या सम्भव है कि यह पारब्रह्म हो ? जिसके शिर पर चूहे दौडे-दौड़े फिरते हैं। चूहे की यह लीला देख मेरी बालबुद्धि को ऐसा प्रतीत हुआ कि जो शिव अपने पाशुपतास्त्र से बड़े-बड़े प्रचण्ड दैत्यों को मारता है क्या उसे एक साधारण चूहे को भगा देने की भी शक्ति नहीं ।
पिता से नि:शंक प्रश्नोत्तर तथा असन्तोष—ऐसे बहुत से तर्क मन में उठे। मैं इन विचारों को बहुत समय तक न रोक सका । इसलिए मैंने अपने पिता को जगाया और बिना किसी प्रकार की झिझक के उनसे यह प्रार्थना की कि मेरे भ्रमों को सच्चे उपदेशों से दूर कीजिए और बताइये कि यह भयानक मूर्ति महादेव की, जो इस मन्दिर में है क्या उसी महादेव के सदृश है जिसे पुराणों में पारब्रह्म कहते हैं अथवा यह कोई और वस्तु है ?
यह सुनकर पहले तो मेरे पिता ने क्रोध से लाल होकर मुझ से कहा कि तू यह बता क्यों पूछता है और यह प्रश्न क्यों करता है ? तब मैंने उत्तर दिया कि इस मूर्ति के शरीर पर चूहे (जिसे काठियावाड़ की भाषा में ऊन्दर कहते हैं ) दौड़े फिरते हैं और इसको खराब तथा भ्रष्ट करते हैं। इसके स्थान पर कथा का महादेव तो चेतन है, वह अपने ऊपर चूहा क्यों चढ़ने देगा और यह शिर तक नहीं हिलाता और न अपने आपको बचाता है। मैं इससे उस सर्वशक्तिमान् और चेतन परमेश्वर के विचार प्राप्त करना असम्भव समझता हूं; इसलिए यह बात आप से पूछता हूं। तब पिता जी ने बड़े यल के साथ मुझ को इस प्रकार समझाया कि कैलाश पर्वत पर जो महादेव रहते हैं उनकी मूर्ति बना, आवाहन कर पूजन किया करते हैं, अब कलियुग में उसका साक्षात् दर्शन नहीं होता इसलिए पाषाणादि की मूर्ति बनाकर, उसमें उन महादेव की भावना रखकर, पूजन करने से कैलाश का महादेव ऐसा प्रसन्न हो जाता है कि मानो वह स्वयं ही इस स्थान पर विद्यमान हो और उसी की पूजा होती हो । तेरी तर्कबुद्धि बहुत बड़ी है, यह तो केवल देवता की मूर्ति है’।
“शिव को प्रत्यक्ष देखकर ही उसकी पूजा करूंगा, निश्चय – इस उपदेश से मुझ को कुछ भी शान्ति न मिली। प्रत्युत मेरे मन में और भ्रम हो गया कि इसमें कुछ गड़बड़ अवश्य है। मुझे उनकी बातों में कुछ कपट और लाग-लपेट प्रतीत हुई । तब मैंने संकल्प किया कि जब मैं उसको प्रत्यक्ष देखूंगा तभी पूजा करूंगा अन्यथा नहीं। थोड़े समय पश्चात् मुझे बालक होने के कारण भूख और थकान से दुर्बलता प्रतीत होने लगी इसलिए पिता जी से पूछा कि अब मैं घर जाना चाहता हूं । उन्होंने कहा कि सिपाही को साथ लेकर चला जा, परन्तु भोजन कदाचित् न करना। मैंने घर जाकर माता से कहा कि मुझे भूख लगी है । माता जी ने कहा कि मैं तुझे पहले ही से कहती थी कि तुझ से उपवास न होगा परन्तु तूने तो हठ ही किया।
सब ओर से ध्यान हटाकर विद्याध्ययन में व्यस्त-फिर माता जी ने मुझे कुछ मिठाई खाने को दे दी और कहा कि तू पिता जी के पास मत जाइयो और न उनसे कुछ कहियो अन्यथा मार खायेगा। भोजन खा कर मैं एक बजे के पश्चात् सो गया और दूसरे दिन आठ बजे उठा। पिता जी ने प्रातःकाल आकर रात्रि के भोजन का वृत्तांत सुना तो अत्यन्त क्रोधित होकर कहा तुमने बहुत बुरा काम किया। तब मैंने पिता जी से कहा कि वह मूर्ति कथा का महादेव नहीं था, मैं उसकी पूजा क्यों करूं? मेरे मन में (इस रात की घटना से) वास्तव में (मूर्ति पर श्रद्धा नहीं रही थी। मैंने चाचा जी से कहा कि अध्ययन के कारण मुझ से उपवास और पूजा नहीं होती सो उन्होंने और माता जी ने मेरे पिता जी को समझा बुझा कर शान्त कर दिया कि अच्छी बात है पढ़ने दो । तब मैंने अपने अध्ययन में बहुत उन्नति की। निघण्टु, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों के पढ़ने की इच्छा करके एक पंडित जी से उन्हें आरम्भ किया और पढ़ता रहा और साथ ही कर्मकाण्ड विषय की दूसरी पुस्तकें भी । अब सारा समय विद्याध्ययन में ही व्यतीत होता था ।
क्रमश:
(यह लेख मेरी “एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज” नामक पुस्तक से है )
डॉ राकेश कुमार आर्य