दलित उद्धारक के रूप में वीर सावरकर

Screenshot_20240226_074354_Adobe Acrobat

(26 फरवरी को पुण्य तिथि के उपलक्ष पर प्रचारित)
#डॉविवेकआर्य
क्रांतिकारी वीर सावरकार का स्थान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना ही एक विशेष महत्व रखता है। सावरकर जी पर लगे आरोप भी अद्वितीय थे उन्हें मिली सजा भी अद्वित्य थी। एक तरफ उन पर आरोप था कि अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाने का, बम बनाने का और विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने का तो दूसरी तरफ उनको सजा मिली थी पूरे 50 वर्ष तक दो सश्रम आजीवन कारावास। इस सजा पर उनकी प्रतिक्रिया भी अद्वितीय थी कि ईसाई मत को मानने वाली अंग्रेज सरकार कब से पुनर्जन्म अर्थात दो जन्मों को मानने लगी। वीर सावरकर को 50 वर्ष की सजा देने के पीछे अंग्रेज सरकार का मंतव्य था कि उन्हें किसी भी प्रकार से भारत अथवा भारतीयों से दूर रखा जाये। जिससे वे क्रांति की अग्नि को न भड़का सके। सावरकर के लिए शिवाजी महाराज प्रेरणा स्रोत थे। जिस प्रकार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को आगरे में कैद कर लिया था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार ने भी वीर सावरकर को कैद कर लिया था। जैसे शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की कैद से छुटने के लिए अनेक पत्र लिखे उसी प्रकार से वीर सावरकर ने भी अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे। जब उनकी अंडमान की कैद से छुटने की योजना असफल हुई, जब उसे अनसुना कर दिया गया। तब वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया क्यूंकि उनका मानना था अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से सशर्त मुक्त होने की प्रार्थना की, जिसे सरकार द्वारा मान तो लिया गया। उन्हें रत्नागिरी में 1924 से 1937 तक राजनितिक क्षेत्र से दूर नज़रबंद रहना था। विरोधी लोग इसे वीर सावरकर का माफीनामा, अंग्रेज सरकार के आगे घुटने टेकना और देशद्रोह आदि कहकर उनकी आलोचना करते हैं जबकि यह तो आपातकालीन धर्म अर्थात कूटनीति थी।
मुस्लिम तुष्टिकरण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने अंडमान द्वीप के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर का नाम हटा दिया और संसद भवन में भी उनके चित्र को लगाने का विरोध किया। जीवन भर जिन्होंने अंग्रेजों की यातनाये सही मृत्यु के बाद उनका ऐसा अपमान करने का प्रयास किया गया। उनका विरोध करने वालों में कुछ दलित वर्ग की राजनीती करने वाले नेता भी थे। जिन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वकांशा को पूरा करने के लिए उनका विरोध किया था। दलित वर्ग के मध्य कार्य करने का वीर सावरकर का अवसर उनके रत्नागिरी प्रवास के समय मिला। 8 जनवरी 1924 को सावरकर जी रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा कि की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए है और छुआछुत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले है। उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ कि अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत महार जाति के बंधुयों को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया। पठाकगन उस समय में फैली जातिवाद की कूप्रथा का सरलता से आंकलन कर सकते है कि जब किसी भी शुद्र को सवर्ण के घर में प्रवेश तक निषेध था। नगर पालिका के भंगी को नारियल की नरेटी में चाय डाली जाती थी। किसी भी शुद्र को नगर की सीमा में धोती के स्थान पर अंगोछा पहनने की ही अनुमति थी। रास्ते में महार की छाया पड़ जाने पर अशौच की पुकार मच जाती थी। कुछ लोग महार के स्थान पर बहार बोलते थे जैसे की महार कोई गाली हो। यदि रास्ते में महार की छाया पड़ जाती थी तो ब्रह्मण लोग दोबारा स्नान करते थे। न्यायालय में साक्षी के रूप में महार को कटघरे में खड़े होने की अनुमति न थी। इस भंयकर दमन के कारण महार समाज का मानो साहस ही समाप्त हो चूका था।
इसके लिए सावरकर जी ने दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और सवर्ण एवं दलित दोनों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया गया। जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके और दोनों के मध्य दूरियों को दूर किया जा सके।
1. रत्नागिरी प्रवास के 10-15 दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला। उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहाँ की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये।जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया। श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकार जी से पूछा कि आप इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहाँ कि
“सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता है। अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना।”
2. 29 मई 1929 को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार- चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ।
3. 1934 में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्ञपवीत ग्रहण, विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए।
4. 1937 में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था।
5. एक बार शिरगांव में एक चमार के घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था। सावरकार जी ने देखा की चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था। उन्होंने तत्काल उससे कहाँ की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप महार जाति के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे। उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाति वालों को आमंत्रित किया था।
6. 1928 में शिवभांगी में विट्टल मंदिर में अछुतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ।
7. 1930 में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।
8. 1931 में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी। वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मण की नियुक्ति होगी।
इस प्रकार के अनेक उदहारण वीर सावरकर जी के जीवन से हमें मिलते है जिससे दलित उद्धार के विषय में उनके विचारों को, उनके प्रयासों को हम जान पाते हैं। सावरकर जी के बहुआयामी जीवन के विभिन्न पहलुयों में से सामाजिक सुधारक के रूप में वीर सावरकर को स्मरण करने का मूल उद्देश्य दलित समाज को विशेष रूप से सन्देश देना है। जिसने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सवर्ण समाज द्वारा अछूत जाति के लिए गए सुधार कार्यों की अपेक्षा कर दी है। और उन्हें केवल विरोध का पात्र बना दिया हैं।
वीर सावरकर महान क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा जी के क्रांतिकारी विचारों से लन्दन में पढ़ते हुए संपर्क में आये थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा स्वामी दयानंद के शिष्य थे। स्वामी दयानंद के दलितों के उद्धार करने रूपी चिंतन को हम स्पष्ट रूप से वीर सावरकर के चिंतन में देखते हैं।

Comment: