मन के काले से भला, तन का काला नेक।
मन के काले में भरे, छल कपट अनेक॥
है छल-कपट अनेक, कभी ना धोखा खाना।
इनका आदर मान, सांप को दूध पिलाना॥
चुपके-चुपके करते रहते, काम निराले।
मौका पा डंस जायें, नाग ये मन के काले॥ (1)
मन के काले बाहर से देते उपदेश।
रग-रग में इनके भरा कपट ईर्ष्या द्वेश॥
कपट ईर्ष्या द्वेश बड़े ये मीठा बोलें।
सौ सौ सौगन्ध खायें भेद ना मन का खोलें ॥
अपने मन की बात करें ना कभी किसी के हवाले।
समय-समय पर रंग दिखाते ये मन के काले॥(2)
मन के काले की कभी ना होती पहचान।
ओ३म्-ओ३म् मुँख से कहें बगल छिपी कृपाण ॥
बगल छिपी कृपाण ठाठ से डोल रहे हैं।
जगह-जगह अमृत में विष घोल रहे हैं॥
चक्कर में पड जायें पड़े फिर जान के लाले ।
चौड़े में सिर फुड़वा देवें मन के काले॥(3)
मन के काले में रहे चालाकी हर वक्त ।
एक पग से जल में खड़ा जैसे बंगला भक्त ॥
जैसे बगला भक्त मौन को आश लगाये।
मौका पाकर तुरत मीन को चट जाये॥
कह स्वरुपानन्द जगत में सब देखे भाले।
कौड़ी से भी बुरे मनुष्य जो मन के काले॥(4)
लेखक – स्वामी स्वरानन्द सरस्वती दिल्ली आर्यप्रतिनिधि सभा से साभार
प्रस्तुति : देवेंद्र सिंह आर्य ( छांयसा)