हम अपनी इस लेखमाला के प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि प्राचीन काल में मंदिर संपूर्ण देश में धर्मचिंतन और राष्ट्रचिंतन के केंद्र हुआ करते थे । उस समय भारतवर्ष का कोई भी आर्य राजा मंदिरों से किसी प्रकार का कर नहीं लिया करता था। इसके विपरीत वह अपनी ओर से ऐसी संपूर्ण व्यवस्थाएं करके देता था जिससे धर्मचिंतन और राष्ट्रचिंतन के इन केंद्रों के रखरखाव में किसी भी ऋषि वैज्ञानिक को किसी प्रकार की परेशानी का सामना न करना पड़े। उस समय राज्य सारी सुविधाओं को उपलब्ध कराता था और यह सुनिश्चित करता था कि धर्मचिंतन और राष्ट्रचिंतन के इन केन्द्रों के माध्यम से हमारी संस्कृति का प्रचार प्रसार होता रहे और हम एक संस्कृति और एक राष्ट्र के रूप में जीवित रह सकें।
इसका कारण केवल यह था कि उस समय हमारे राजाओं की सोच यही होती थी कि मंदिरों के माध्यम से वैज्ञानिक विचारों के प्रवाह को सहज रूप से प्रवाहित होने दिया जाए। राष्ट्र धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए इन धर्म स्थलों की अनिवार्यता हमारे पूर्वजों ने अनुभव की थी। इसी कारण वैदिक संस्कृति में विश्वास रखने वाले लोगों के हृदय में अपने इन धर्म स्थलों के प्रति विशेष सम्मान और आदर का भाव व्याप्त रहा है। दूसरे शब्दों में आप इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि हमारे आर्य राजाओं को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूर्ण ज्ञान था। वह जानते थे कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उपयोगिता क्या होती है ? वे यह भली प्रकार जानते थे कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से चिंतन की निरंतरता बनी रहती है। जिससे नए-नए विचारों को जन्म लेने का अवसर प्राप्त होता है। विचारों की उच्चता निरंतर तभी बनी रह सकती है जब उच्च स्तर का चिंतन, मंथन और अध्ययन चलता रहता है।
बस इसी काम को हमारे धर्मस्थल संपन्न किया करते थे।
विदेशियों ने भंग की हमारे धर्म स्थलों की पवित्रता
हमारे आर्य राजा तो मंदिरों की पवित्रता को बनाए रखना अपना कर्तव्य मानते रहे , पर जब विदेशी आक्रमणकारी यहां पर आए तो उन्होंने देखा कि धर्मचिंतन और राष्ट्रचिंतन के केंद्र बने मंदिरों को यदि नष्ट कर दिया जाए तो भारत का धर्म और राष्ट्र दोनों ही नष्ट हो जाएंगे। यही कारण रहा कि इस्लाम ने पहले दिन से भारत के धर्मचिंतन और राष्ट्रचिंतन को मिटाने के लिए मंदिरों को मिटाने का बीड़ा उठाया। यदि कोई मंदिर उनकी दृष्टि से कहीं बच भी जाता था तो उससे जजिया वसूला जाता था। अब विदेशी आक्रमणकारियों के शासन काल में मंदिरों के साथ जो कुछ होता रहा वह तो समझ में आता है, पर जजिया वसूलने की यह कार्यवाही यदि स्वाधीनता के बाद के काल में भी होती आ रही है तो यह निश्चित ही चिन्ता का विषय है। आखिर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी थी जिसके चलते उन्होंने अंग्रेजों और उससे पहले मुगलों के शासनकाल में हिंदू धर्म स्थलों के प्रति बनाई गई नीति को यथावत जारी रखा?
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू विदेश नीति के क्षेत्र में सोवियत संघ को वरीयता दिया करते थे । सोवियत संघ की कम्युनिस्ट विचारधारा यद्यपि खूनी विचारधारा रही है, पर इसको अनदेखी कर अहिंसावादी गांधी के शिष्य नेहरू ने कई मामलों में रूस को अपना मॉडल माना। गांधी और उनके बाद नेहरू की यह विशेषता रही कि इन्हें सरदार भगत सिंह और नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे घर के क्रांतिकारी तो खूनी अथवा हिंसक दिखाई देते थे, जबकि बाहर के वास्तविक और महाखूनी क्रांतिकारी इन्हें सर्वांशतः दूध के धुले दिखाई देते थे। जिस प्रकार रूस में राजतंत्र को विस्तार देने की योजनाएं बनती रही हैं , उसी प्रकार नेहरू ने भी कई ऐसी चीजों को राज्य के नियंत्रण में लाने का प्रयास किया जो इस प्रकार लाई जानी अपेक्षित नहीं थीं। अपनी इसी नीति के अंतर्गत नेहरू ने मंदिरों को राज्य के अधीन लाने का प्रयास किया । वास्तव में मंदिरों को राज्य के अधीन लाने के नेहरू के इस निर्णय से भारतीय संस्कृति के प्रचार – प्रसार पर राज्य द्वारा अंकुश लगाया गया। इसके विपरीत मुस्लिम और ईसाई समुदाय के पूजा स्थलों को राज्य के अधीन लाने से दूरी बनाई गई। जिससे इन दोनों समुदायों को अपने पूजा स्थलों से अपने मजहब का प्रचार प्रसार करने का अवसर मिला।
डॉ अंबेडकर ने कहा था ….
शासन की इस प्रकार की नीतियों के चलते हिंदुओं के धार्मिक मूल्यों को बहुत कम करके आंका गया। उन्हें रूढ़िवादी कहकर अलग-थलग सा कर दिया गया। डॉ भीमराव अंबेडकर ने जब देखा कि भारत का संविधान हिंदू धर्म स्थलों और गैर हिंदू धर्म स्थलों के बीच भेदभाव करता है तो उन्होंने इसे गैर धर्मनिरपेक्ष संविधान कहा था। डॉ अंबेडकर का यह विचार पूर्णतया ठीक ही था ,क्योंकि भारतीय संविधान के इस प्रकार के आचरण से हिंदू और गैर हिंदू के बीच खाई और बढ़ गई। एक लोकतांत्रिक देश में इस प्रकार की सोच और शासकीय नीतियों की कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। लोकतांत्रिक देश में देश के नागरिकों के भीतर धार्मिक या नैतिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए धार्मिक शिक्षा की व्यवस्था की जाती है। जिसमें लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ाकर एक दूसरे के काम आने की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा केवल भारत के ही नहीं अपितु संसार के सबसे पहले धर्म ग्रंथ वेद के भीतर ही मिलती हैं। जिसे कांग्रेस की सरकारों ने अघोषित रूप से सांप्रदायिक ग्रंथ बना दिया। आजादी के बाद आर्यसमाज ने कांग्रेस के प्रति पता नहीं किस आधार पर निकटता बनाई ? अच्छी बात यह होती कि कांग्रेस के आर्य समाज के प्रति दृष्टिकोण और भारतीय धर्म और संस्कृति को मिटाने के उसके कुत्सित प्रयासों की पोल खोलने का काम आर्य समाज करता। यद्यपि कई विद्वानों ने इस काम को किया, पर आम आर्य समाजी व्यक्ति कुल मिलाकर कांग्रेस का मतदाता बना रहा ।
हिंदू विरोधियों की समर्थक सरकारें
यह एक बहुत ही कष्टपूर्ण स्थिति है कि भारतवर्ष में जो संप्रदाय हिंदू समाज का पूर्णतया विनाश कर देना चाहते हैं उनके धर्म स्थलों का रखरखाव और उनकी धार्मिक शिक्षाओं का वहां से प्रचार प्रसार करने की सारी सुविधा सरकार उन्हें उस पैसे से उपलब्ध कराती है जो वह हिंदू धर्म स्थलों से वसूल करती है। कहने का अभिप्राय है कि अपने मरने की अपने आप तैयारी करना भारत के राजनीतिज्ञों से सीखा जा सकता है। भारत के संदर्भ में यह बात हमें स्वीकार करनी चाहिए कि जो व्यक्ति हिंदू विरोधी है, वही राष्ट्र विरोधी है। इसके उपरांत भी केंद्र की कांग्रेस की सरकारें हिंदू विरोधी संगठनों और संप्रदायों से सहयोग लेती रहीं और उनके राष्ट्र विरोधी आचरण और कार्यों का समर्थन भी करती रहीं।
जहां तक भारत की न्याय व्यवस्था का प्रश्न है तो भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी 2014 में चिदंबरम (तमिलनाडु) के नटराज मंदिर के मामले को लेकर कह चुका है कि मंदिरों पर सरकारी कब्जा होना उचित नहीं है। अन्य मामले में न्यायालय अपना यह मत भी व्यक्त कर चुका है कि यह बात समझ से परे है कि मंदिरों को सरकारी अधिकारी चलाएं । यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब किसी भी अधिकारी को उसकी पढ़ाई के समय धार्मिक स्थलों के रखरखाव की कोई शिक्षा नहीं दी जाती। जिस व्यक्ति को धर्म स्थलों के वास्तविक उद्देश्य का ही ज्ञान ना हो, उससे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वह उन धर्म स्थलों के साथ न्याय करते हुए उनका उचित प्रबंधन करेगा।
आर्यसमाज को भरनी होगी हुंकार
आर्यसमाज को इस क्षेत्र में बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। इस क्रांतिकारी संगठन को सरकार से मांग करनी चाहिए कि धर्मस्थलों के बारे में राज्य को यह अधिकार होना चाहिए कि जिस धर्म स्थल से देश के भीतर आतंकवाद फैलाने की शिक्षा दी जा रही हो या देश की एकता और अखंडता से खिलवाड़ करने की किसी रणनीति पर काम किया जा रहा हो वहां वह बेधड़क किसी भी समय सरकारी अधिकारियों को सुरक्षा बलों के साथ प्रवेश करा दे। इस संबंध में प्रचलित कानून को कड़ाई से लागू किया जाना अपेक्षित है। यदि ऐसे धर्म स्थलों से इस प्रकार की गतिविधियों को अंजाम दिया जा रहा है तो सरकार ऐसे धर्म स्थलों को अपने अधिकार में ले सकती है । इससे भी अच्छी बात यह होगी कि यदि ऐसे धर्मस्थलों का उपयोग देश की एकता और अखंडता को विनष्ट करने या देश के भीतर आतंकवाद को बढ़ावा देने या लोगों के बीच किसी भी प्रकार का वैमनस्य पैदा करने या किसी एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध भड़काने के लिए किया जा रहा है तो सरकार को ऐसे धर्मस्थल को तुरंत स्थायी रूप से अपने नियंत्रण में ले लेना चाहिए और वहां पर किसी सरकारी अस्पताल या शैक्षणिक संस्था की स्थापना कर देनी चाहिए।
आर्य समाज को यह मांग भी उठानी चाहिए कि यदि कोई धर्मस्थल या उसका प्रबंधन तंत्र या उसके पुजारी लोग किसी ऐसे साहित्य को धार्मिक शिक्षा के नाम पर वितरित करते या पढ़ाते हैं , जिससे हमारे देश की मौलिक वैदिक संस्कृति का हनन हो या लोगों को उसके बारे में गलत जानकारी प्राप्त हो तो ऐसी गतिविधियों को भी राष्ट्र के विरुद्ध द्रोह के रूप में देखा जाना चाहिए। वेद विरुद्ध नास्तिक साहित्य का प्रचार प्रसार देश में पूर्णतया प्रतिबंधित होना चाहिए। इसके लिए भी आर्य समाज को आवाज उठानी होगी । नास्तिक साहित्य समाज को बहुत ही अधिक क्षति पहुंचाता है । वर्तमान समय में हमारे देश में नास्तिकता की ओर जिस प्रकार लोगों का रुझान बढ़ा है,उससे कई प्रकार के आर्थिक और सामाजिक अपराध भी बढ़े हैं।
वैदिक कर्म फल व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए भी आर्य समाज को ही आगे आना होगा। देश का नास्तिक समाज विशेष रूप से कम्युनिस्ट और कांग्रेस इस सारी वैदिक व्यवस्था को श्रेया से ना करते रहे हैं उनके इस प्रकार के प्रयासों ने ही देश के भीतर अनेक प्रकार के अपराधों और विसंगतियों को जन्म दिया है।
आर्य समाज एक ऐसा गैर राजनीतिक जागरूक संगठन है जो देश की समस्याओं पर बहुत गहरी नजर रखने का आदी रहा है। क्योंकि राष्ट्र और राष्ट्रीय समस्याएं इसके राष्ट्रीय दृष्टिकोण में सदैव जीवंत बनी रहती हैं। इस संगठन को इस समय भी जागरूक होने की आवश्यकता है । पूरा देश यह जानता है कि इस संगठन के कोई राजनीतिक पूर्वाग्रह नहीं हैं। सबसे स्वस्थ सोच बनाकर राष्ट्र के बारे में सोचने की शैली केवल आर्य समाज के पास है। अब इस संगठन को विपक्ष के साथ – साथ सत्ता पक्ष को भी अपना चिंतन प्रस्तुत करना चाहिए।
सरकार बंद कराए जजिया कर
इस समय सभी राजनीतिक दलों में भाजपा हिंदुत्व की एक समर्थक पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई है। पर ध्यान रखने की आवश्यकता है कि चूक भाजपा से भी हो सकती है। इसलिए आर्य समाज को अपनी ओर से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के लिए विशेष प्रकार का संबोधन पत्र तैयार करना चाहिए। सरकार को इस बात के प्रति प्रेरित करना होगा कि आज भी देश के हजारों मंदिरों से अप्रत्यक्ष रूप में मुगलिया शासनकाल का जजिया कर लिया जा रहा है और उसे दूसरे संप्रदायों के ऊपर खर्च किया जाता है। अब यह बात सुनिश्चित करने का समय आ गया है कि देश के मंदिरों से लिया जाने वाला धन वेद और वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार पर, गुरुकुलों की स्थापना पर, संस्कृत की उन्नति पर और राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास पर खर्च करते हुए राष्ट्रीय चरित्र निर्माण पर खर्च किया जाना चाहिए। देश के आयकरदाताओं का धन मुफ्त की रेवड़ी बांटने पर नहीं बल्कि जन कल्याण पर खर्च किया जाना अपेक्षित है। समान नागरिक संहिता के माध्यम से यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि देश के मंदिरों से लिया जाने वाला धन युवा चरित्र निर्माण पर खर्च होगा।
वैदिक संस्कृति को बनाया जाए वैश्विक संस्कृति
भारत वेद और वेदों को मानने वाले लोगों का देश है। स्वामी दयानंद जी महाराज ने आर्यावर्त आर्यों के लिए इसलिए कहा था कि आर्य लोग ही वेद और वैदिक संस्कृति की बात कर सकते हैं। वेद और वैदिक संस्कृति के माध्यम से ही भारत विश्व गुरु बन सकता है और संसार में स्थायी शांति का निवास हो सकता है। इस बात के दृष्टिगत आज जोरदार ढंग से यह आवाज उठनी चाहिए कि देश की वैदिक संस्कृति को वैश्विक संस्कृति के रूप में स्थापित करने पर सरकार बल देगी और देश के मंदिरों से आने वाली धनराशि को वह वेद और वैदिक संस्कृति के उन मानवीय मूल्यों के प्रचार-प्रसार पर खर्च करेगी जिनसे भारत विश्व गुरु बन सकता है और संसार में स्थाई शांति आ सकती है।
देश के लोग धार्मिक श्रद्धा के वशीभूत होकर लोक कल्याण के लिए मंदिरों में जाकर दान देते हैं। यदि उनकी भावनाओं का ध्यान रखा जाए या उनसे पूछा जाए कि आपके द्वारा दिए गए दान को किन मदों पर खर्च किया जाए तो निश्चित रूप से उनकी आवाज यही होगी कि भारत की ऋषि परंपरा की ज्ञान प्रणाली को जीवंत बनाए रखने के लोक कल्याणकारी कार्यों पर इसे खर्च किया जाना अपेक्षित है।
देश की इस आम सहमति की आवाज बनकर आज अपने आप को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। यह आम सहमति ही इस समय देश की सामान्य इच्छा है। सरकार को देश की इस आम सहमति और सामान्य इच्छा की पवित्र भावना का ध्यान रखना चाहिए। यहां पर यह बात भी उल्लेखनीय है कि चर्च या मस्जिदों या अन्य धार्मिक स्थलों से आने वाले धन को भी लोक कल्याण के लिए ही खर्च किया जाना चाहिए। हिंदुओं पर जारी जजिया कर को समान नागरिक संहिता के माध्यम से समाप्त करने का समय आ गया है।
हिंदू धर्म स्थलों के पुजारी और सरकारी अधिकारी
वर्तमान स्थिति पर यदि दृष्टिपात किया जाए तो पता चलता है कि हिंदू धर्म स्थलों में कार्यरत पुजारी लोगों को उन धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक अधिकारियों का अनुचर बना दिया गया है जिन्हें वेद और वैदिक संस्कृति का कोई ज्ञान नहीं है। इसके विपरीत ये वह लोग हैं जो विदेशी अपसंस्कृति अर्थात अंग्रेजियत में पढ़ लिखकर अधिकारी पद पर तैनात किए गए हैं। स्पष्ट है कि जिन संस्कारों को लेकर ये नौकरी पाने में सफल हुए हैं, उन्हीं संस्कारों को ये लागू करने का प्रयास करेंगे। ऐसी स्थिति में ये भारतीय धर्म और संस्कृति को रूढ़िवादी लोगों की संस्कृति के रूप में व्याख्यायित करें तो कोई गलत नहीं है। अतः आर्य समाज को इस क्षेत्र में अपनी भूमिका को पहचानना चाहिए। उसे सरकार से यह मांग भी करनी चाहिए कि भारतीय धर्म स्थलों के उचित रखरखाव के लिए आर्य विचारधारा के लोगों को ही अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए । जिससे भारतीय धर्म और संस्कृति के विकास में सहायता प्राप्त हो । वैसे भी जब हमारा देश अपनी सामासिक संस्कृति के प्रति संवैधानिक वचनबद्धता प्रकट करता हो तब तो यह बात और भी अधिक अनिवार्य हो जाती है कि हम प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ उठाएं।
यह भी एक प्रश्न हो सकता है कि आर्य समाज ने तो मंदिरों का विरोध किया है ,इसलिए मंदिरों के बारे में आर्य समाज अपनी आवाज क्यों उठाएं ? हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि जब 1938 – 39 में नवाब हैदराबाद ने हिंदू समाज के मंदिरों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए थे और हिंदुओं की धार्मिक शिक्षा आदि को प्रतिबंधित किया था या उनकी धार्मिक यात्राओं पर रोक लगा दी थी, तब उन सबको बचाने के लिए आर्य समाज ही आगे आया था । आर्य समाज ने हिंदू समाज के लिए अनेक बलिदान दिए हैं। उन बलिदानों के पीछे आर्य समाज का उद्देश्य केवल एक ही रहा है कि भारत के वैदिक सत्य सनातन धर्म की मान्यताओं को स्थापित करने के लिए हिंदू का अस्तित्व उतना ही अनिवार्य है जितना इस राष्ट्र का अस्तित्व अनिवार्य है। ऐसे में आर्य समाज से अपेक्षा की जाती है कि वह 1938 – 39 के हैदराबाद आंदोलन का उदाहरण अपने समक्ष रखकर आज फिर हिंदू समाज की रक्षा के लिए अपने आपको समर्पित करे।
यह लेख मेरी पुस्तक एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज से लिया गया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य