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पुस्तक समीक्षा

कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें

विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स

श्री शांतिलाल जैन को उम्दा, स्पर्शी व्यंग्य लिखने में महारत है। थोड़े थोड़े अंतराल पर आपकी प्रभावी किताबें व्यंग्य जगत में हलचल मचा रही हैं। कबीर और अफसर, न आना इस देश, मार्जिन में पिटता आदमी, वे रचनाकुमारी को नहीं जानते के बाद यह व्यंग्य संग्रह कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें पढ़कर आपकी रचना यात्रा स्पष्ट समझ आती है। व्यंग्य में किसी मिथक या प्रतीक का अवलंब लेकर लेखन सशक्त अभिव्यक्ति की जानी पहचानी परखी हुई शैली है। शुतुरमुर्ग डील डौल की दृष्टि से कहने को तो पक्षी माना जाता है, पर अपने बड़े आकार के चलते यह उड़ नहीं सकता। रेगिस्तान में पाया जाता है। संकट महसूस हो तो यह ज़मीन से सट कर अपनी लंबी गर्दन को मोड़कर अपने पैरो के बीच घुसाकर स्वयं को छुपाने की कोशिश करता है या फिर भाग खड़ा होता है। दुनिया भर में आजकल शुतुरमुर्ग व्यावसायिक लाभ के लिये पाले जाते हैं। व्यंग्य में गधे, कुत्ते , सांड़ , बैल, गाय, घोड़े, मगरमच्छ , बगुला, कौआ, शेर , सियार, ऊंट, गिरगिटान सहित अनेक जानवरों की लाक्षणिक विशेषताओ को व्यंग्य लेखों में समय समय पर अनेक रचनाकारों ने अपने कथ्य का अवलंब बनाया है। स्वयं मेरी किताब कौआ कान ले गया चर्चित रही है। प्रसंगवश वर्ष 1994 में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह आक्रोश की एक लंबी कविता दिसम्बर 92 का दूसरा हफ्ता और मेरी बेटी का स्मरण हो आया। कविता में अयोध्या की समस्या पर मैंने लिखा था कि कतरा रहा हूं , आंखें चुरा रहा हूं , अपने आपको, समस्याओं के मरुथल में छिपा रहा हूं, शुतुरमुर्ग की तरह। आज 2024 में अयोध्या समस्या हल हो गयी है , मेरी बेटी भी बड़ी हो गई है , पर समस्याओं का बवंडर अनंत है , और शुतुरमुर्ग की तरह उनसे छिपना सरल विकल्प तथा बेबसी की विवशता भी है।

कोरोना काल में दूसरी लहर के त्रासद समय के हम साक्षी हैं। जब हर सुबह खुद को जिंदा पाकर बिस्तर से उठते हुये विचार आता था कि भले ही यह शरीर जिंदा है, पर क्या सचमुच मन आत्मा से भी जिंदा हूं? मोबाईल उठाने में डर लगने लगा था जाने किसकी क्या खबर हो। शांतिलाल जैन के व्यंग्य संग्रह की शीर्षक रचना कि आप शुतुरमुर्ग बने रहें। उसी समय का कारुणिक दस्तावेज है। उस कठिन काल के दंश कितने ही परिवारों ने भोगे हैं। कोविड का वह दुष्कर समय भी गुजर ही गया , पर कल्पना कीजीये कि जब बेबस लेखक ने लिखा होगा।

वे मुझसे सकारात्मक रहने की अपील कर रही थीं… वे कह रहीं थीं हमारी लड़ाई कोविड से कम , बदलते नजरिये से ज्यादा है …. वे चाहती थीं कि मैं इस बात पर उबलना बंद कर दूं कि कोई आठ घंटे से अपने परिजन के अंतिम संस्कार के लिये लाईन में खड़ा … चैनलों पर मंजर निरंतर भयावह होते जा रहे हैं , एम्बुलेंस कतार में खड़ी हैं , आक्सीजन खत्म हो रही है , चितायें धधक रही हैं, …. मेरे एक हाथ में कलम है दूसरे में रिमोट और रेत में सिर घुसाये रखने का विकल्प है। शांतिलाल जैन शुतुरमुर्ग की तरह सिर घुसाये रख संकट टल जाने की कल्पना की जगह अपनी कलम से लिखने का विकल्प चुनते हैं।

उनकी आवाज तब किस जिम्मेदार तक पहुंची नहीं पता पर आज इस किताब के जरिये हर पाठक तक फिर से प्रतिध्वनित और अनुगुंजित हो रही है।

एक यह शीर्षक लेख ही नहीं किताब में शामिल सभी 56 व्यंग्य लेख सामयिक रचनाये हैं , व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिकार की चीखती आवाजें हैं। सजग पाठक सहज ही घटनाओं के तत्कालीन दृश्यों का पुनर्बोध कर सकते हैं। अपनी किताब के जरिये शांतिलाल जैन जी पाठकों के सम्मुख समय का रिक्रियेशन करने में पूरी तरह सफल हुये हैं।

रचनायें बिल्कुल भी लंबी नहीं हैं। उनकी भाषा एकदम कसी हुई है। अपने कथ्य के प्रति उनका लेखकीय नजरिया स्पष्ट है। सक्षम संप्रेषणीयता के पाठ सीखना हो तो इस संग्रह की हर रचना को बार बार पढऩा चाहिये। कुछ लेखों के शीर्षक हैं… ब्लैक अब ब्लैक न रहा , सजन रे झूठ ही बोलो , चूल्हा गया चूल्हे में, आंकड़ों का तिलिस्म , फार्मूलों की बाजीगरी , अदाओ की चोरी , इस अंजुमन में आपको आना है बार बार , ईमानदार होने की उलझन , सिंदबाद की आठवीं कहानी …. आशा है कि अमेजन पर उपलब्ध इस किताब के ये शीर्षक उसे खरीदने के लिये पाठकों का कौतुहल जगाने के लिये पर्याप्त हैं। बोधि प्रकाशन की संपादकीय टीम से दो दो हाथ कर छपी इस पुस्तक के लेखक म प्र साहित्य अकादमी सहित ढ़ेरों संस्थाओं से बारंबार सम्मानित हैं , निरंतर बहुप्रकाशित हैं।

प्रस्तावना में कैलाश मंडलेकर लिखते हैं इस संग्रह की तमाम व्यंग्य रचनाओं में हमारे समय को समझने की कोशिश की गई है। जो अवांछित एवं छद्मपूर्ण है, उस पर तीखे प्रहार किये गए हैं। जहां आक्रोश है वह सकारात्मक है। जहाँ हास्य है, वह नेचुरल है। सबसे बड़ी बात यह कि व्यंग्यकार किसी किस्म के डाइरेक्टिव्ह इश्यु नहीं करता वह केवल स्थितियों की भयावहता से अवगत कराते चलता है। … व्यंग्यकार पाठक के सम्मुख युग की समस्यायें रेखांकित कर विकल्प देता है कि वह शुतुरमुर्ग बनना चाहता है या समस्या से अपने तरीके से जूझना चाहता है। (विनायक फीचर्स)

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