मुझे पता है तुम्हें शहर की भागदौड़ से मेल नहीं,
इसीलिए ऋतुराज हमेशा तुम गांवों में आते हो,
गीत फागुनी कौन सुनाए,
यहां समय की लाचारी है,
नौकरियों में बंधक हैं सब,
हँसना गाना तक भारी है,
यहां आम की बौर कहां तुम जिन छावोँ में आते हो,
इसीलिए ऋतुराज हमेशा तुम गांवों में आते हो,
ना कूके कोयल डाली पे,
न चहक चहक पंक्षी झूलें,
नहीं तितलियां रंगबिरंगी,
ना जगह जगह सरसों फूले,
नहीं दिखे खुशहाल प्रकृति तुम जिन भावों में आते हो,
इसीलिए ऋतुराज हमेशा तुम गांवों में आते हो,
एकतरफ अपनी धुन में सब,
दूजे को तुमसे प्यार बहुत,
कहीं बदलता बस कैलेंडर,
कहीं होता इंतजार बहुत,
यहां नहीं वो इठलाती; जिन पुरवाओं में आते हो,
इसीलिए ऋतुराज हमेशा तुम गांवों में आते हो,
ना परिवर्तन का स्वागत है,
ना तुमसे ज्यादा आस यहां,
ना भौरों का नर्तन ही है,
न दिखते तुम्हें पलास यहां,
ये कंकरीट का कानन तुम,
कच्ची राहों में आते हो,
इसीलिए ऋतुराज हमेशा तुम गांवों में आते हो,
“चेतन” नितिन खरे
कवि एवं लेखक
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