डॉ राजेंद्र प्रसाद, हिंदू कोड बिल और नेहरू, भाग 1
भारत में प्राचीन काल से जिस वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था और 16 संस्कारों जैसी परंपराओं को मान्यता प्रदान की गई उससे यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारत में सृष्टि प्रारंभ से ही सब राष्ट्रवासियों के लिए एक जैसी विधिक व्यवस्था की गई। प्राचीन काल में भारत देश में आपराधिक कानूनों में ही नहीं बल्कि दीवानी कानूनों में भी समरूपता रखी गई। जब संपूर्ण देश ( आर्य चक्रवर्ती सम्राटों के समय में संपूर्ण भूमंडल ) एक ही राजा या चक्रवर्ती सम्राट के अधीन रहता था तो उस समय विभिन्न कानूनों की आवश्यकता भी नहीं होती थी। कानूनों में समरूपता होना स्वाभाविक था।
जैसे-जैसे भारत की चक्रवर्ती सम्राटों की परंपरा लुप्त होती गई और छोटे-छोटे राज्यों में शासन सिमटकर आने लगा वैसे- वैसे ही कुछ अलग-अलग परंपराओं ने विकसित होना आरंभ किया। इससे भारत की वैदिक व्यवस्था प्रभावित हुई और अनेक प्रकार के मत, पंथ और संप्रदाय देश में खड़े हुए। कालांतर में जब इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों के आक्रमण देश पर हुए तो उस समय स्थिति और भी अधिक दयनीय हो गई। इन विदेशी मत, पंथ, संप्रदायों के शासकों ने भारत के लोगों में बढ़ती हल्की-हल्की सी दरारों को चौड़ा करना आरंभ किया । अपने स्वार्थों को साधने के लिए उनके भीतर अनेक प्रकार के विभेद उत्पन्न करने आरंभ किए। इसके साथ ही साथ इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले तुर्क, मुगल और अंग्रेजों ने अपने-अपने रीति-रिवाजों को भी कानूनी मान्यता देना आरंभ किया।
ऋषि दयानंद का सपना
स्वामी दयानंद जी महाराज ने अपने समय के भारत की दुर्दशा को समझा । तब उन्होंने इस बात के लिए भारतवासियों को जागरूक करना आरंभ किया कि अपने आपको पहचान कर अपने चक्रवर्ती सम्राटों के दिनों को लौटाने के लिए उठ खड़े होओ । उनका यह प्रयास था कि भारत के लोग अपने आपको जानें और वह अपने पूर्वजों की भांति संपूर्ण भू-मंडल पर शासन करने वाले बनें। इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं था कि स्वामी दयानंद जी महाराज अंग्रेजों और मुसलमानों की कार्यशैली पर काम करने के लिए लोगों का आवाहन कर रहे थे और उन्हें इस बात के लिए प्रेरित कर रहे थे कि वह भी अंग्रेजों और मुसलमानों की भांति लोगों के अधिकारों का दमन ,शोषण और उत्पीड़न करके उन पर जबरन अपना शासन थोप दें। स्वामी दयानंद जी महाराज की इच्छा थी कि संपूर्ण भू-मंडल पर आर्यों का राज्य स्थापित हो। उनका यह सपना संपूर्ण भूमंडलवासियों को उनके मानव अधिकार उपलब्ध कराने के लिए था।
शासन की मानवतावादी नीतियों के चलते भारत में अनेक प्रकार के सिविल कानून बनते चले गए। इन सिविल कानूनों के प्रति लोगों की अपनी-अपनी भावनाएं जुड़ी थीं और वह इन्हें अपने-अपने हितों के अनुकूल बनाए रखने के लिए संघर्ष करने तक तैयार हो जाते थे। इसी प्रकार के स्थानीय कानूनों या रीति-रिवाजों को परंपरा का रूप देकर उन पर कानूनी संरक्षण का ठप्पा लगवाया गया। इसके उपरांत भी एक ऐसी अदृश्य आम सहमति भारत में बनी रही जो पूरे हिंदू समाज को एकता की चादर के नीचे समेटे रही। लोगों ने छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और यदि विवाह आदि की परंपराओं में स्थानीय स्तर पर कोई किसी प्रकार का परिवर्तन भी आ गया था तो उसे भी लोगों ने सहज रूप में स्वीकार कर लिया।
वास्तव में भारत के लोग ‘आपद्धर्म’ को स्वीकार करने के अभ्यासी रहे हैं। यह अलग बात है कि कालांतर में इस प्रकार का धर्म उनके लिए एक रूढ़ि बनकर गले की फांस बन गया। यद्यपि इस्लाम और ईसाई मत को मानने वाले लोगों की परंपराओं से भारत के लोगों ने अपने आपको समानांतर दूरी पर खड़ा रखना ही उचित माना।
मुस्लिम शासन काल में भारत का कानून
इस्लाम को मानने वाले शासकों के शासनकाल में भारत के सामाजिक परिवेश और सामाजिक विधियों को प्रभावित करते हुए अनेक प्रकार के इस्लामी कानूनों को वरीयता दी गई। मुस्लिम शासकों ने भारत के लोगों के अधिकारों का हनन करने वाले कानून बनाए और इन कानूनों की आड़ में अपने बड़े-बड़े नरसंहारों को भी उचित ठहरा दिया। उस समय भारत में शरीयत को लागू किया और शरीयत के कानूनों के आधार पर भारत के लोगों को अनेक प्रकार की यातनाएं दीं।
उनकी ऐसी सोच उनके प्रति निर्णय में दिखाई दिया करती थी। लोगों को चूसने और निचोड़ने का हर संभव प्रयास किया गया। उस समय दानवता का साम्राज्य था और दानव लोग ही शासन सत्ता में स्थापित हो गए थे। उनकी दानवता का नंगा नाच देखकर मानवता उस समय शर्मसार थी। इसके बाद अंग्रेजों ने भी ‘राज्य हड़प नीति’ के माध्यम से उत्तराधिकार की भारत की सामान्य वैदिक परंपरा का बार-बार उल्लंघन किया और अपने मनमाने कानून भारत के सभ्य और शालीन समाज पर थोपने का अनुचित कार्य किया। जिससे भारत में कई प्रकार की कानूनी विसंगतियां या विषमताएं पैदा होती चली गईं। उसे समय भारत में ऐसे अनेक कानून बने जो शासन सत्ता के पक्षधर थे और जनता पर अत्याचारों को बढ़ावा देने वाले थे। इन कानूनों को पढ़ने – देखने से पता चलता है कि उस समय शासक वर्ग शोषक वर्ग बन गया था और शासित वर्ग शोषित वर्ग बन गया था। शासक और शासित के वैदिक दृष्टिकोण से अलग हटकर अब हम जिस परिवेश में जी रहे थे वह शोषक और शोषित का दुर्गंध युक्त परिवेश था। इसमें शोषण के विरुद्ध आवाज उठना स्वाभाविक था । यद्यपि भारत के लोग मुसलमानी काल से ही शासक वर्ग के शोषक स्वरूप का विरोध करते आ रहे थे, पर अब यह स्थिति और भी अधिक उग्र हो गई थी।
(यह लेख मेरी नई पुस्तक एक क्रांतिकारी संगठन : आर्य समाज से लिया गया है।)
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत