(वैदिक सम्पत्ति – 305 चतुर्थ खण्ड) जीविका, उद्योग और ज्ञानविज्ञान
(ये लेखमाला हम पं. रघुनंदन शर्मा जी की ‘वैदिक संपत्ति’ नामक पुस्तक के आधार पर सुधि पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रस्तुतिः देवेन्द्र सिंह आर्य (चेयरमैन ‘उगता भारत’)
गतांक से आगे…
इन मन्त्रों में राजसभा श्रीर सभासदों का कत्र्त्तव्य वर्णन करके अब अगले मन्त्रों में वेद आज्ञा देते हैं कि राष्ट्र को चाहिये कि वह सबसे पहिले अपने अन्तर्गत घुसे हुए दुष्ट मनुष्य को ढूढ़े, जाने और उनको न्यायद्वारा दण्ड से शिक्षा दे । ऋग्वेद में लिखा है कि –
वि जानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासवव्रतान्
शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वत्ता ते सधमादेषु चकन ।। (ऋ० १/५१/८ )
वधीर्हि दस्यु धनिनं घनेनें एकश्वरन्नुपशाकेभिरिन्द्र ।
धनोधि विषुणक्त व्यायन्नवज्वानः सनकाः प्रेतिमीयुः ।। (ऋ० १/३३/४)
इमे तुरं मरुतो रामयन्तीमे सहः सहस आ नमन्ति ।
इमे शंसं वनुष्यतो नि पान्ति गुरु द्वषो अररुषे वधन्ति ।। (ऋ० ७।५६।१६ )
अन्यव्रत ममानुषमयज्वानमदेवयुम् ।
अव स्वः सखा दुधुवीत पर्वतः सुघ्नाय दस्यु पर्वतः ।। (ऋ० ८/७०/११)
ताविद् दुःशंतं मर्त्य दुविद्वांसं रक्षस्विनम् ।
आभोगं हम्मना हतमुर्वाध हन्मना हतम् (ऋ० ७ /६४।१२ )
अर्थात् हे राजन् ! आप उत्तम गुणवाले आर्यों को जानो और धर्म की रक्षा के लिए अव्रती दस्युओं (डाकुओं) को शासित करो और मारो, जिससे आपके राज्य में धर्म के कार्य न बिगड़ें। हे राजन् ! आप एक ही झपट से धनुष बाण के द्वारा ठग और यज्ञ न करनेवाले धनी दुष्टों को मार डालें। जो गुरु से द्वेष करनेवाले हैं और हवा की भाँति जल्दी से साहस के साथ बल को दिखलाते हैं तथा लोगों के सामने व्यर्थ की बड़ाई हाँकते हैं और जो नास्तिक हैं, पशुस्वभाववाले हैं और यज्ञ न करनेवाले हैं, उनको पहाड़ों में कैद कर दीजिए। जो बुरा भाषण करने- वाले हैं, जो दृष्ट ज्ञान धारण करनेवाले हैं, जो अपने रमण (भोग) के लिए दूसरों का क्षय करनेवाले हैं और जो सब प्रकार से अपने ही भोगों की फिक्र में रहनेवाले दृष्ट दुर्जन हैं, उनको विचार करके अवश्य हनन कीजिए। इस प्रकार से इन मन्त्रों में आर्यों और दस्युओं अर्थात् भले और बुरों को जानकर दुष्टों को विचारपूर्वक शासित करने का उपदेश है। इसी तरह दुष्ट स्वभाववाले अन्य दुराचारियों को भी दण्ड देने का उपदेश इस प्रकार दिया गया है-
यदि स्त्री यदि वा पुमान् कृत्यां चकार पाप्मने ।
तामु तस्मै नयामस्यश्वमिवाश्याभिधान्या ।। ( अथवं० ५।१४।१६ )
अर्थात् चाहे स्त्री हो या पुरुष हो, जिसने पाप का कृत्य किया हो, उसको पशु की तरह बाँधकर वैसे ही ले जाना चाहिये, जैसे घोड़ा बागों से खींचा जाता है।
यस्तु ऊरू विहरत्यन्तरा दम्पती शये ।
योनि यो अन्तरारेल्हि तमितो नाशयामसि ।। १४ ।।
यस्त्वा भ्राता पतिर्भूत्वा जारो भूत्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ।। १५ ।।
यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ।। १६ ।। (अथर्व० २०/६६/१४-१६)
य आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये कविः ।
गर्भान्खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि ।। ( अथर्व० ८।६।२३)
अर्थात् दम्पति के बीच सो कर जो तेरी जङ्घाओं को फैलाता है और जो तेरी योनि को भीतर से सींचता है, उसका हम नाश करते हैं। जो कोई भाई व्यभिचारी बनकर अथवा पति बनकर तेरे पास आ जाये और तेरी सन्तान को मारना चाहे, उसका हम नाश करते हैं। जो कोई सोते हुए नशा खिलाकर अँघेरे में तेरे पास आ जावे और तेरी सन्तान को मारना चाहे, उसका हम नाश करते हैं। जो कच्चे अर्थात् जिन्दा पशुओं के मांस को, जो मनुष्यों के मांस को और जो गर्भों (भंडों) को खाते हैं, उनका हम नाश करते हैं। इस प्रकार शासन के द्वारा पहले समाज का संशोधन करके भले आदमियों को दुष्टों के पीड़न से बचना चाहिए। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि दुष्टों का सुधार केवल कठोर शासन से ही नहीं हो जाता। इसलिए राज्य में ज्ञान,विद्या,सभ्यता, सदाचार और आस्तिकता का भी प्रचार करना आवश्यक है। यह काम ब्राह्मण से ही हो सकता है, अतः राजा को चाहिए कि वह ब्राह्मण,विद्वानों और सदाचारी पुरुषों का आदर बढ़ावे।
क्रमशः