नेहरू गुरुकुलों को दकियानूसी की पिछड़ी विचारधारा या मानसिकता का प्रतीक मानते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरु के द्वारा जहां ‘हिंदुस्तानी’ को प्रोत्साहित करने और साथ – साथ हिंदी का भी ध्यान रखते हुए संस्कृत को महत्व देने की बात कही गई, वहीं उनकी नीतियों के चलते व्यवहार में इसका उल्टा परिणाम देखने को मिला। हुआ यह कि ‘हिंदुस्तानी’ सर्वत्र छाती चली गई, हिंदी उपेक्षित हो गई और संस्कृत को लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया गया। बड़ी सावधानी से किए गए इस ऑपरेशन में संस्कृत और हिंदी की वर्तमान दुर्दशा के लिए केवल और केवल नेहरू जिम्मेदार हैं।
नेहरू मोहम्मद शाह रंगीला की नीतियों के समर्थक थे। जिसने भारत में ‘हिंदुस्तानी’ नाम की एक ऐसी भाषा को प्रचलित करने का प्रयास किया था जिसमें सभी भाषाओं के शब्द हों, जिसकी कोई व्याकरण ना हो, कोई वैज्ञानिक आधार ना हो। उसने ऐसी ही भाषा में अश्लील गजलें लिखवाईं। जिनको सुन-सुनकर वह स्वयं औरतों के कपड़े पहनकर अपने दरबार में अश्लील गीतकार कवियों के साथ नाचा करता था। मोहम्मद शाह रंगीला के पदचिह्नों पर चलने वाले लेडी माउंटबेटन और उस जैसी अन्य अनेक महिलाओं के रसिया रंगीले मिजाज के नेहरू भी भारत की वैदिक संस्कृति और वैदिक अथवा हिंदू धर्म से दूरी बनाना उचित मानते थे। जाने अनजाने में उनका एक ही संकल्प था कि वह ‘हिंदुस्तानी’ के माध्यम से हिंदी और संस्कृत का बेड़ा गर्क करेंगे। अन्यथा ऐसे क्या कारण रहे कि हिंदी और संस्कृत के प्रति संविधान सभा के संकल्प प्रस्ताव के रहते हुए भी आज ‘हिंदुस्तानी’ हम पर हावी है और हिंदी व संस्कृत की उपेक्षा हो रही है।
भारत को अपनी जड़ों से काटने का अपराध नेहरू ने किया। इसके उपरांत भी उन्हें राष्ट्र निर्माता के रूप में स्थापित किया गया। यदि इस स्थिति पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि नेहरू को भारत की मौलिकता के साथ जुड़ना या तो आता नहीं था या फिर वह जानबूझकर भारत की मौलिकता की उपेक्षा कर रहे थे। ऐसे व्यक्ति को राष्ट्र निर्माता कभी नहीं कहा जा सकता जो अपने ही देश की मौलिकता के साथ जुड़ने में लज्जा का अनुभव करे।
स्वामी दयानंद के सिपाही क्या करेंगे ?
स्वामी दयानंद जी महाराज के विचारों के अनुकूल यदि शासन को चलाया जाता तो भारत की मौलिकता के साथ जुड़कर काम करने में प्रत्येक प्रधानमंत्री और प्रत्येक राष्ट्रवासी अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता। वैदिक मूल्यों की जीवन पद्धति को अपनाकर काम करना तब पूरे शासन प्रशासन के साथ-साथ विकास की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को भी गर्व और गौरव की अनुभूति कराता। आने वाले समय में यदि आर्य समाज सत्ता में अपने विचारों के अनुकूल प्रधानमंत्री बना सका तो निश्चित रूप से देश के पहले प्रधानमंत्री द्वारा डाली गई गलत परंपराओं को पूर्णतया परिवर्तित कर दिया जाएगा। तब शासन निष्पक्ष और निरपेक्ष होकर काम करेगा। वह उन चीजों को देश में लागू करेगा जो राष्ट्रहित में अनिवार्य हैं और वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए जिनका किया जाना पूर्णतया न्याय संगत है।
ऐसी स्थिति में स्वामी दयानन्द जी महाराज के सिपाहियों का काम होगा कि वह युवा पीढ़ी के चरित्र निर्माण पर बल देंगे। युवाओं को जिस प्रकार आज की गलत शिक्षा पद्धति के साथ-साथ सरकार की गलत नीतियों के चलते नशेड़ी, भंगेड़ी बनाकर उनके चरित्र को बर्बाद किया जा रहा है , उसे कदापि नहीं होने दिया जाएगा। हर स्थिति में मेरा देश आगे बढ़े – यह सोच हमेशा किसी भी देश के नागरिकों को मजबूत करती है । यह बात सदा हमारे मन मस्तिष्क में एक संकल्प के रूप में काम करती रहनी चाहिए कि यदि देश बचेगा तो हम अपने आप बच जाएंगे और यदि देश ही नहीं रहा तो हम अपने अस्तित्व की भी रक्षा नहीं कर पाएंगे। देश का अभिप्राय है एक संस्कृति का बचना। देश के बचने का अर्थ है मानवतावादी वैदिक धर्म का बचना । देश के बचने का अर्थ है राष्ट्र को सींचने वाले धर्म और मानवीय मूल्यों का बचना। कुल मिलाकर देश को यहां पर राष्ट्र के संदर्भ में लेना चाहिए।
नेहरू वेद विरोधी नास्तिक थे
स्वामी दयानंद जी महाराज जी के सपनों के भारत में वेदों को सर्वोच्च स्थान दिया जाता। तब यह व्यवस्था की जाती कि देश में जो भी आदेश माने जाएंगे, वह वेद के अनुसार ही माने जाएंगे। देश का शासन वेदों की व्यवस्था के अनुसार चलेगा। वेदों में उल्लिखित राष्ट्र और स्वराज्य के चिंतन को इस देश के संवैधानिक मौलिक आदर्शों में सम्मिलित किया जाना देव दयानंद के देश भारत की प्राथमिकता होगी।
नेहरू मंदिरों के विरोधी थे। वेदों के विरोधी थे। वैदिक संस्कृति के विरोधी थे। यदि महर्षि दयानंद नेहरू के शासनकाल में रहे होते तो इन तीनों बातों के आधार पर उन्हें नास्तिक घोषित कर देते । वे ‘बेताज के बादशाह’ वेदनिंदक और नास्तिक नेहरू का विरोध करते और आर्य समाजी जनों को भी इस बात के लिए आंदोलित करते कि ऐसे शासक का विरोध किया जाए।
आर्य समाज ने देश की आजादी के तुरंत पश्चात अपने आपको पीछे हटा लिया। आर्य समाज के द्वारा राजनीति में सक्रिय भूमिका न निभाने का परिणाम यह हुआ कि नास्तिक नेहरू खुलकर खेलने लगे।
जब तक देश के पहले उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल जीवित रहे तब तक नेहरू का मुखर विरोध होता रहा।
उनके पांच नेहरू ने स्वतंत्र निर्णय लेने की प्रक्रिया आरंभ की और पूरे लोकतंत्र को अपने हाथों में ग्रहण कर लिया।
हो सकता है कि उस समय के आर्य समाज के लोगों या नेताओं को ऐसा लगा हो कि नेहरू यदि मंदिरों का विरोध कर रहे हैं तो यह उनके भी अनुकूल है, पर वास्तव में नेहरू जी उन ह्रदयहीन और संवेदनाशून्य मंदिरों का निर्माण करने लगे थे जो उन मंदिरों से भी अधिक घातक सिद्ध हुए हैं जिन्हें पौराणिक मंदिर कहकर आर्य समाज भी आलोचना का पात्र बनाता था।
तब विज्ञान व राज्यादि ऐश्वर्यों की मांग ईश्वर से की जाती
नेहरू के इन तथाकथित मंदिरों ने भारत को नास्तिक बनाने में और यहां की वैदिक संस्कृति को कमजोर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यदि स्वामी जन्मदिन की महाराज देश के प्रधानमंत्री होते तो वह ऐसा कदापि नहीं होने देते वह देश को आस्तिक बनाते और केश्वर बात में विश्वास रखते हुए मंदिरों में ऐसे ही राष्ट्रवादी चिंतन को प्रोत्साहित करने का काम करते।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज ने स्तुति प्रार्थना-उपासना का आठवां मंत्र यह दिया है :-
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमः उक्तिं विधेम्॥ (यजु० 40/16)
इसकी व्याख्या करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं:- ‘हे स्वयंप्रेरक ज्ञानस्वरूप सबके प्रकाश करनेहारे, सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे, सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइये और हमसे कुटिलता पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस प्रकार हम लोग आपकी बहुत प्रकार की स्तुति रूप, नम्रतापूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।”
“वेद, महर्षि दयानंद और भारतीय संविधान” नामक अपनी पुस्तक में इस संबंध में मैंने लिखा है कि यहाँ राष्ट्रवासी दो बातें कह रहे हैं-
“एक तो विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराने तथा दूसरे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कराने की ये दोनों बातें ही स्वराज्य की आधारशिला हैं। विज्ञान या राज्यादि का ऐश्वर्य चिरस्थायी रह सकता है, जबकि हम अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगों के अनुयायी हों क्योंकि अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोग सर्वहितरक्षक स्वभाव के होते हैं। समाज तभी उन्नत होगा जब कुटिलतायुक्त पापरूप कर्मों के प्रति सबको घृणा होगी।
इस प्रकार भारत में स्वराज्य के आधार भूत इन तत्वों को यदि पंचायत राज्य व्यवस्था के संधारकों और संचालकों पर भी लागू करके देखा जाए तो ज्ञात होता है कि इस मन्त्र में वास्तविक स्वराज्य का चिन्तन बीज छिपा पड़ा है। इस स्वराज्य का अन्तिम लक्ष्य एक शान्तिप्रिय और सर्व रक्षक समाज का निर्माण करना है तो भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 , ( जिसमें समान नागरिक संहिता को लागू करने पर बल दिया गया है ) का लक्ष्य भी ऐसे ही समाज की संरचना करना है।”
क्या करें स्वामी दयानंद के शिष्य?
नेहरू की भूलों का सुधार करवाते हुए आज आर्य समाज को धर्म युक्त आप्त लोगों की एक धर्म संसद की स्थापना के लिए वर्तमान सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। यह धर्मयुक्त आप्त लोग धर्मार्य सभा या धर्म संसद में जाकर स्वराज्य की भारतीय अवधारणा को मजबूत और चिरस्थायी करने के लिए अपने संकल्प सुझाव सरकार को नियमित भेजने का काम करना आरंभ करें।
समान नागरिक संहिता में लोगों के विचारों को राष्ट्र के अनुकूल बनाने के लिए आवश्यक है कि उनके भीतर कुटिलता युक्त पापरूप कर्म ( देश में सांप्रदायिक दंगों की आग लगाने वाले लोग , देश को तोड़ने की षड़यंत्रों में लगे हुए लोग, देश में सांप्रदायिक आधार पर भाषा संबंधी विवादों को जन्म देने वाले लोग आदि सभी इसमें सम्मिलित हैं) सर्वथा समाप्त हो जाएं, वे सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म के प्रति स्वाभाविक रूप से संकल्पित हो जाएं। यह कार्य तभी संभव है जब देश की शिक्षा नीति पर धर्मार्य सभा का सीधा नियंत्रण हो।
कुटिलता युक्त पापरूप कर्म से दूरी और उसके पश्चात संपूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म के प्रति स्वाभाविक समर्पण – यह राष्ट्र की उत्तम साधना का प्रतीक संकल्प सूत्र है। स्वामी दयानंद जी महाराज की 200 वीं जयंती के कार्यक्रमों का काल इस समय चल रहा है। ऐसे में समान नागरिक संहिता का पूरा प्रारूप तैयार करते समय स्वामी दयानंद जी महाराज के चिंतन को इसमें समाविष्ट किया जाना समय की आवश्यकता है।
हमारे दृष्टिकोण से समान नागरिक संहिता का अभिप्राय केवल सिविल कानूनों में समरूपता स्थापित कर देना ही नहीं है, अपितु इससे आगे जाकर भारत की शिक्षा नीति को गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली पर आधारित करना और वैदिक संस्कारों को राष्ट्रीय संस्कार संकल्प के रूप में स्थापित करना इसकी वास्तविक व्याख्या है। इस शिक्षा प्रणाली में देश के नागरिकों को हिंदू मुस्लिम न बनाकर केवल मनुष्य बनाने पर काम किया जाना अपेक्षित है। यह तभी संभव है जब हम नेहरू के मंदिरों को पीछे हटाकर स्वामी दयानंद जी के मंदिरों को अर्थात गुरु कुलों को स्थापित करें और सच्चे मानव का निर्माण कर राष्ट्र के नागरिकों को द्विज बनाने की उत्तम वैदिक अवधारणा को लागू करें।
आर्य समाज ने नेहरू के द्वारा स्थापित किए गए मंदिरों को स्वतंत्र भारत में स्थापित करने के समय आपराधिक तटस्थता का संकेत दिया था, अब जब केंद्र की मोदी सरकार कुछ करने के लिए मन बना रही है अर्थात समान नागरिक संहिता को लागू करना चाहती है तो समय रहते सरकार को उचित मार्गदर्शन देना आर्य समाज का राष्ट्रीय दायित्व है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
(लेखक की एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज नामक पुस्तक से।)