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भयानक राजनीतिक षडयंत्र

भारतीय संस्कृति को बदनाम और बर्बाद करने पर तुले ये नाटककार

जहर के व्यापारी-

2 फरवरी को पुणे की यूनिवर्सिटी में एक नाटक का मंचन किया गया जिसमें माता सीता को सिगरेट पीते हुए और गाली देते हुए दिखाया गया। यह सब अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर किया गया है।
सावित्रीबाई फुले पुणे यूनिवर्सिटी ( Savitribai Phule Pune University) के ललित कला केंद्र के प्रमुख डॉ प्रवीण दत्तात्रेय भोले, नाटक के राइटर भावेश पाटिल, डायरेक्टर जय पेढ़नेकर और एक्र प्रथमेश सावंत, ऋषिकेश दलवी, यश चिखाले शामिल हैं। इस नाटक में भगवान राम और सीता का मजाक उड़ाया गया है। नाटक के एक दृश्य में सीता को सिगरेट पीते और राम को उसकी मदद करते हुए दिखाया गया है।

कुछ साल पहले हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के केंन्द्रीय विश्वविद्यालय के अंग्रेजी और विदेशी भाषा विभाग ने महाश्वेता देवी की लघु कथा ‘द्रौपदी’ पर आधारित नाटक का मंचन किया। इस कथा में द्रौपदी नामकी आदिवासी महिला की सुरक्षादलों के हाथों मुठभेड़ में मारे जाने का एकतरफा वर्णन है।नाटक में वर्दीधारी सुरक्षा दलों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों और बलात्कार को दिखाया जा रहा था।
स्थानीय नागरिकों द्वारा गठित ‘सैनिक सम्मान संघर्ष समिति’ नेे इस नाट्य मंचन का विरोध किया और पुलिस को सूचित कर इसे बंद करवाया।

भारत में इसी तरह का एक उदाहरण हैं अरुंधती राय, जिन्होंने कुछ समय से नक्सली कम्युनिस्टों के समर्थन का झंडा उठा रखा है. कुछ समय पहले इसने एक लेख का “‘वाकिंग विद द कामरेड्स” लिखा। लेख का अंतिम निष्कर्ष यह है कि सन 1947 से ही भारत एक औपनिवेशिक शक्ति है, जिसने दूसरों पर सैनिक आक्रमण करके उनकी जमीन हथियाईं. इसी तरह भारत के तमाम आदिवासी क्षेत्र स्वभाविक रूप से नक्सलवादियों के हैं, जिन पर इंडियन स्टेट ने सैनिक बल से अवैध कब्जा किया हुआ है. इस साम्राज्यवादी युद्ध-खोर ‘अपर कास्ट हिंदू स्टेट’ ने मुस्लिमों, ईसाइयों, सिखों, कम्युनिस्टों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है.

     महाश्वेता देवी लेखिका थीं , वामपंथीं थीं , नक्सलियों की हमदर्द थीं , इन देशद्रोहियों के मानवाधिकार का पुरजोर समर्थन करती थीं , अपनी एकपक्षीय काल्पनिक कहानियों में देश के प्रहरियों को अत्याचारी और बलात्कारी साबित करती थीं, सैकड़ों बेगुनाह सुरक्षाकर्मियों के नक्सलियों द्वारा मारे जाने पर होठ सी लेती थीं।  नक्सली कमांडरों द्वारा लगातार किये जा रहे महिला नक्सलियों के यौन शोषण पर इनकी लेखनी को लकवा मार देता था। वर्ष 2014 में कांकेर जिले में पोलिस के समक्ष आत्म समर्पण की हुयी तीन नक्सल आदिवासी लड़कियों ने खुलासा किया कि वरिष्ठ नक्सल नेता सेक्स टौनिक का सेवन कर नक्सल लड़कियों का अमानवीय यौन उत्पीड़न करते हैं। जब वो गर्भ धारण करती हैं तो गर्भपात करवाने का दबाव डालते हैं। नहीं मानने पर उनकी हत्या कर कस्बों में उनके शव के चित्र वाले पोस्टर लगाकर लिखते हैं कि इनका बलात्कार करने के बाद सुरक्षा दलों ने इनकी हत्या कर दी। लगभग सभी नक्सल प्रशिक्षण केंद्रों में ऐसा शोषण आम बात है।

नक्सलियों के मारे जाने को सुरक्षा बलों की हिंसा बता इसका विरोध करती थीं और फटाफट-फटाफट इसपर लेख , कहानियां लिख डालती थीं।लेकिन नक्सलियों द्वारा की जा रही जवानों की हत्याओं पर इनका ‘ सिंगल लाइनर ‘ आ जाता था, ” मैं हिंसा के पक्ष में नहीं हूं।” नक्सली हिंसा और अपराध के विरोध में कभीकुछ नहीं लिखा।
प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक हावर्ड फास्ट ने अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी में 16 वर्ष काम किया था. वह लिखते हैं कि पार्टी से सहानुभूति रखने वाले बाहरी बुद्धिजीवियों में प्राय: पार्टी-सदस्यों से भी अधिक अंधविश्वास दिखता है. कम्युनिज्म के सिद्धांत-व्यवहार के ज्ञान या अनुभव के बदले वे अपनी कल्पना और प्रवृत्ति से अपनी राय बना लेते हैं. यह बात दुनिया भर के कम्युनिस्ट समर्थकों के लिए सच है.

इस तरह का लेखन वामपंथी लगभग सौ साल पहले रूसी कम्युनिस्टों को सार्वजनिक लेखन-भाषण की तकनीक सिखाते हुए लेनिन ने कहा था कि जो भी तुम्हारा विरोधी या प्रतिद्वंद्वी हो, पहले उस पर ‘प्रमाणित दोषी का बिल्ला चिपका दो. उस पर मुकदमा हम बाद में चलाएंगे.’ तबसे सारी दुनिया के कम्युनिस्टों ने इस आसान पर घातक तकनीक का जमकर उपयोग किया है.

इसी मानसिकता से लेनिन-स्तालिन-माओवादी सत्ताओं ने दुनिया भर में अब तक दस करोड़ से अधिक निर्दोष लोगों की हत्याएं कीं. भारत के माओवादी उनसे भिन्न नहीं रहे हैं. जिस हद तक उनका प्रभाव क्षेत्र बना है, वहां वे भी उसी प्रकार निर्मम हत्याएं करते रहे हैं.

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