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साभार : पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ
फ़ैज अहमद फ़ैज को जावेद अख्तर और मुनव्वर राणा जैसे “प्रगतिशील” लोग आज तानाशाही के विरोधी शायर के रूप में प्रचारित कर रहे हैं । पाकिस्तानी तानाशाह जनरल जिया उल हक़ के विरुद्ध फ़ैज अहमद फ़ैज ने जो ग़जल “व यबक़ वज़ह उ रब्बिक” (रब्ब का चेहरा) शीर्षक से लिखी (जो बाद में “हम देखेंगे” नाम से प्रसिद्ध हुआ) उसे फ़ैज के मरणोपरान्त लोगों ने अलग−अलग सन्दर्भों में प्रयोग किया । किसी बात का अर्थ सन्दर्भ के अनुसार बदलता है । मोदी सरकार के विरुद्ध कानपुर के छात्रों ने इस नज़्म का प्रयोग किस सन्दर्भ में किया यह देखना आवश्यक है ।
फ़ैज पाकिस्तानी कम्युनिष्ट पार्टी के संस्थापकों में से थे और यह कहना बकवास है कि कम्युनिष्ट पार्टी के नेता तानाशाही के विरोधी होते हैं । पाकिस्तान में अयूब खान और याह्या खान की तानाशाही के दौरान फ़ैज अहमद फ़ैज को सत्ताधारियों का वरदहस्त मिला,एक बार भी उस समय की फ़ौजी तानाशाही के विरुद्ध फ़ैज ने आवाज नहीं उठायी । भुट्टो उनके सबसे करीबी मित्र थे,अतः जनरल जिया उल हक़ ने भुट्टो को मृत्युदण्ड दिया तो फ़ैज की आत्मा कराह उठी । वही भुट्टो महोदय जब याह्या खान के अधीन पूर्वी पाकिस्तान में नरसंहार का समर्थन कर रहे थे जब फ़ैज ने नरसंहार के विरुद्ध दो कवितायें लिखी थीं किन्तु उन कविताओं में बांग्लादेश,पाकिस्तान या किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया ताकि याह्या खान और भुट्टो से सम्बन्ध न बिगड़े —
फ़ैज अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की वकालत करते थे,जैसा कि मार्क्सवादी करते हैं । किन्तु फ़ैज का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद असल में इस्लामी फण्डामेण्टलिस्ट खिलाफत वाला अन्तर्राष्ट्रीयतावाद था जो इस्लाम की मूल विचारधारा है — जिसके अनुसार संसार के सारे सम्प्रदायों को मिटाकर केवल अल्लाह का मज़हब ही सबपर थोपा जायगा । यही कारण है कि जनरल जिया उल हक़ के बाद जब पाकिस्तान में फ़ैज अहमद फ़ैज के समर्थकों की सरकार बनी तो फ़ैज अहमद फ़ैज को पाकिस्तान का सबसे बड़ा खिताब मरणोपरान्त दिया गया — “निशान−ए−इम्तियाज” । तब पाकिस्तान में दो पार्टियों के मोर्चे की सरकार थी,फ़ैज के मित्र भुट्टो की “पाकिस्तान पीपल्स पार्टी” तथा सम्प्रदायवादी “इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद” ।
किन्तु 1965 में भी भारत−पाक युद्ध के दौरान खूनखराबे के विरुद्ध फ़ैज ने लिखा था । उनके लिये 1965 और 1971 में कोई अन्तर नहीं था,क्योंकि 1971 में जो बंगाली मारे गये वे फ़ैज के लिये बेगाने थे । फ़ैज जैसे पाकिस्तानी कम्युनिष्टों के इसी दोगलेपन के कारण 1966 में पूर्वी पाकिस्तान की कम्युनिष्ट पार्टी अलग हो गयी और संघर्ष करके बांग्ला भाषा को मान्यता दिलाने में भी सफलता पायी — जिसमें फ़ैज ने कोई सहयोग नहीं दिया । पूर्वी पाकिस्तान की कम्युनिष्ट पार्टी का भी बाद में विभाजन हो गया क्योंकि उसके बहुत से नेता बांग्लादेश को अलग देश बनाने के विरोधी थे । असली इस्लाम देशों को तोड़ना नहीं बल्कि जोड़ना सिखाता है ताकि पूरी दुनिया में अल्लाह के बन्दों का राज हो और सारे तख्त और ताज ढह जाय,जैसा कि ईरान में बादशाहत को हटाकर मुल्लों का राज स्थापित हुआ। यही फ़ैज की उस कविता का अर्थ है जिसे CAA के विरुद्ध कानपुर के छात्रों ने गाया । गीत है —
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल [1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[४] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
[1] शाश्वत पन्ना,अर्थात् क़ुरान
[2] घने पहाड़
[3] पवित्रता या ईश्वर से वियोग
[4] देखने वाला
“अर्ज-ए-ख़ुदा का काबा” का अर्थ केवल मक्का वाला काबा नहीं है,बल्कि खुदा की पूरी दुनिया है जिसमें केवल अल्लाह रहेगा और सारे बुतों को हटाया जायगा । जावेद अख्तर अर्थ लगाते हैं कि बुत का अर्थ् है जनरल जिया उल हक़ । अर्ज-ए-ख़ुदा पूरी दुनिया है जिसपर जनरल जिया उल हक़ का राज नहीं था ।
गीत में केवल पाकिस्तान के ताज और तख्त गिराने की बात नहीं है,पूरी दुनिया के समस्त ताज और तख्त गिराने की बात है ।
जावेद अख्तर झूठ बकते हैं कि “मरदूद-ए-हरम” का अर्थ है “रिलीजन द्वारा कन्डेम्न्ड हराम लोग” । उस पङ्क्ति का वास्तविक अर्थ है “पूरी दुनिया के अर्ज-ए-ख़ुदा से सारे बुत हटाने के बाद उन बुतों को मानने वालों की दृष्टि में जो नापाक मरदूद-ए-हरम हैं वे ही स्वच्छ लोग (अहल-ए-सफ़ा) अर्थात् सच्चे मुसलमान बनकर मसनद पे बिठाए जाएँगे क्योंकि वे ही बुतों को हटाकर काबा और अल्लाह का राज स्थापित करेंगे“ ।
इस्लाम में बादशाहत कुफ्र है । शरीयत के विशेषज्ञ उलेमाओं से पूछे बिना कोई तानाशाही करे तो वह भी कुफ्र है । फ़ैज स्पष्ट कहते हैं — “बस नाम रहेगा अल्लाह का” । सच्चा मुसलमान कम्युनिष्ट भी बनेगा तो मार्क्स के ऊपर अल्लाह को हर हालत में बिठायेगा ।
इस्लाम और कम्युनिज्म में कई समानतायें हैं और केवल एक अन्तर है । समानता यह है कि दोनों में बादशाहत कुफ्र है,दोनों में आम जनता का राज है,आम जनता के नाम पर उनके नेताओं की तानाशाही है,दोनों में “आम जनता” केवल उनको माना जाता है जो उन नेताओं की बातें आँख मूँदकर मानते हैं,और जो नहीं मानते उनको जीवित रहने का अधिकार नहीं है क्योंकि वे “आम आदमी” के शत्रु हैं,दोनों में सभी देशों को जीतकर पूरी दुनिया में एक ही राज्य स्थापित करने की बात है । दोनों में बुतपरस्ती कुफ्र है किन्तु काबा या मार्क्स का बुत कुफ्र नहीं है । इस्लाम और कम्युनिज्म में अन्तर केवल यह है कि कम्युनिज्म किसी ऊपरवाले को नहीं मानता जबकि इस्लाम अल्लाह को मानता है ।
किन्तु अल्लाह की आवाज पैगंबर मुहम्मद के बाद कोई सुन नहीं सकता,अतः शरीयत अन्तिम सत्य है जिसका विरोध कोई मुसलमान कर ही नहीं सकता ।
कम्युनिज्म में शरीयत के स्थान पर मार्क्स की किताबें हैं इस बात का अन्तर है । किन्तु यह अन्तर दिखावटी है क्योंकि इस अन्तर के भीतर भी इस्लाम और कम्युनिज्म में बहुत बड़ी समानता है —
मार्क्स की किताबें कोई मार्क्सवादी नहीं पढ़ता,सारे मार्क्सवादी यही सोचते हैं कि उनके नेताजी ने पढ़ लिया तो हो गया न!इसी प्रकार लगभग सारे मुसलमान भी शरीयत नहीं पढ़ते,सोचते हैं कि उनके उलेमाओं ने पढ़ लिया तो हो गया न!
उलेमाओं की पार्टी “इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद” ने फ़ैज को पाकिस्तान का सबसे बड़ा पुरस्कार क्यों दिया यह तो समझ गये होंगे!फ़ैज साहब के सच्चे इस्लाम और लव जिहाद का प्रमाण यही है कि ब्रिटिश ईसाई से शादी की तो उसे मुसलमान बनवाया । कम्युनिस्ट तो हिन्दुत्व को नहीं मानते,हिन्दू होने को ही सम्प्रदायवाद कहते हैं । किन्तु इस्लाम को जो लोग ठीक से समझते हैं वे जानते हैं कि जनरल जिया उल हक़ या सउदी अरब वाला इस्लामी राज नकली इस्लाम है क्योंकि वहाँ उलेमाओं की खिलाफत नहीं है । असली इस्लाम तो कम्युनिज्म है,बशर्ते कम्युनिज्म शरीयत के नीचे कार्य करे और अन्य सम्प्रदाय वालों का धर्मान्तरण कराये जैसा कि फ़ैज ने अपनी ईसाई पत्नी का कराया ।
फ़ैज ने मोदी सरकार के विरुद्ध यह गीत नहीं लिखा था,किन्तु कानपुर में जिस सरकार और जिस देश की संसद द्वारा बने कानून के विरुद्ध इस गीत का प्रयोग हुआ वह १००% हिन्दुओं की बुतपरस्ती को मिटाकर अल्लाह का राज स्थापित कराने के सन्दर्भ में ही था । किसी बात का असली अर्थ सन्दर्भ पर ही निर्भर करता है ।
“अन-अल-हक़” का जो अर्थ जावेद अख्तर बगाते हैं वह इस गीत में नहीं है,इस गीत में साफ कहा गया है कि केवल अल्लाह ही रहेगा,यही फ़ैज का अद्वैतवाद है — हर दिल में केवल अल्लाह रहेगा,व्यक्ति की अपनी पहचान भी नहीं रहेगी,हर कोई अल्लाहमय हो जायगा । सूफियों का भी यही मत था । भारत में अरब के मुसलमानों ने नहीं बल्कि फारस के सूफियों और उनके चेलों ने इस्लाम को फैलाया और हिन्दुओं के बुतों को तोड़कर अल्लाह को स्थापित करने में जीवन खपा दिया । “अन−अल−हक़” का अर्थ “अहम् ब्रह्मास्मि” नहीं होता,क्योंकि अल्लाह का अर्थ ब्रह्म नहीं होता । अल्लाह के तो हाथ−पाँव भी होते हैं,क़ुरआ़न से इस तथ्य के साक्ष्य स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में प्रकाशित कर दिये थे । अल्लाह को मानने वालों और ब्रह्म को मानने वालों में किसी बात की समानता नहीं होती,गंगा−जमुनी धूर्तों के बहकावे में न आयें ।
जब हिन्दुत्व की बात आती है तो एकाध अपवाद को छोड़ सारे मुसलमान और सारे कम्युनिष्ट एक हो जाते हैं!तब “अन-अल-हक़” कहाँ गायब हो जाता है?
फ़ैज बहुत अच्छे शायर थे यह मैं मानता हूँ,किन्तु कम्यूनिष्ट होने के बावजूद वे सच्चे मुसलमान थे जिनको पूरी दुनिया में केवल अल्लाह का राज पसन्द था और पूरी दुनिया से मूर्तिपूजा हटाना चाहते थे ।
‘अन-अल-हक’ कहने पर मंसूर को फाँसी दे दी गई — यह 100 % झूठ है । फाँसी का आरोप था “बगदाद के खलीफा के विरुद्ध करमाती विद्रोहियों का समर्थक,और काबा को नष्ट करने का षडयन्त्र” । मन्सूर की पूरी कहानी राजनैतिक संघर्ष के सन्दर्भ में थी,मन्सूर पूर्वी ईरान में इस्लामी जिहादियों को सच्चा इस्लाम सिखाता था जिसके अनुसार बगदाद के खलीफा नकली मुसलमान थे ।
फाँसी देने वाले देश में बादशाहत थी या इस्लामी खिलाफत?बादशाहत को सारे मुसलमान कुफ्र मानते हैं,तो सारे सच्चे बादशाह भी सच्चे मुसलमानों को फाँसी ही देंगे । आरम्भ के चार खलीफाओं को ही इस्लाम में सच्चे खलीफा माना जाता है । मन्सूर को बाद वाले खलीफा ने फाँसी दी जो असल में बादशाह था । मन्सूर का सूफीवाद बादशाहत और शाही मुल्लों के विरुद्ध था, भारतीय सूफीवाद अधिकांशतः हिन्दुओं को बरगलाने के लिये छद्म आसुरी षडयन्त्र था ।
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