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इतिहास के पन्नों से

🛑 गांधी के अनगिनत घृणा कार्यों में हिंदी का विकृतिकरण भी था।

आजादी के पूर्व 1937 में गांधीजी के आदेश पर देश मे छदम धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने के लिए ‘वर्धा शिक्षा समिति’का पाठयक्रम तैयार किया। इस पाठ्यक्रम में अरबी,फारसी ,उर्दू और हिंदी को जोड़ कर एक नई भाषा तैयार की गई। जिसे “हिंदूस्तानी भाषा” का नाम दिया गया। इस भाषा मे हिंदी शब्दों को मात्र दस प्रतिशत स्थान मिला बाकी के 90 प्रतिशत शब्द उर्दु, अरबी, फारसी और तुर्की भाषा से लिए गए।

इस भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने ‘हिंदूस्तानी तालीमी संघ ‘ की स्थापना की। इस संघ ने ‘बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की जिसकी भूमिका स्वयं गांधी जी ने लिखी थी।

इस पुस्तक में अलबरूनी, फिरोजशाह तुगलक, बाबर, अकबर, चाँद बीबी, नुरजहां, ईसा, मुसा, जरस्थु और अकबर आदि पर विस्तृत चर्चा की गई थी लेकिन महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, शिवा जी, गुरू गोविंद सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि को पाठयक्रम में जगह नही दी गई।

इस पुस्तक “गांधी द्वारा भगवान श्री राम के संबध में जो लिखा गया वह कुछ इस प्रकार था- “बादशाह दशरथ के चार फरजंद थे। शहजादा राम बड़े फरजंद थे। उनका निकाह बेगम सीता के साथ किया गया। मौलवी वाल्मिकी ने लव-कुश को पढाया।’
‘गांधी’ 1937 आदि-आदि…..

इस वर्धा शिक्षा समिति की नई हिंदूस्तानी भाषा का महाकवि निराला, राहुल सांकृत्यान, नारायण चतुर्वेदी, किशोरीदास वाजपेयी जैसे हिंदी के कई लेखकों ने जबरदस्त विरोध किया।

12 अक्टूबर 1947 को हरिजन में महात्मा गांधी राष्ट्रभाषा में क्या गुण होने चाहिए उसे विस्तार से लिखते हैं. इस दौरान गांधी भाषा को लेकर उठ रहे सवालों पर भी अपने विचार रखते हैं.
गांधी ने कहा था, ‘हिंदुस्तानी भाषा न ही संस्कृतनिष्ठ और न ही परसियन होनी चाहिए. बल्कि ये इन दोनों की मिश्रण होनी चाहिए. इसके अलावा दूसरी भाषाओं और विदेशी भाषाओं से भी इसमें शब्द जोड़ा जाना चाहिए.

हिन्दी विरोध में नेहरू भी कम नहीं थे। वह भी दोहरी बातें द्वारा भ्रमित करते रहे।

संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा के नेहरू गांधी दोनो विरोधी थे, पर ऊर्दू से उन्हे कोई परेशानी नही थी।

नेहरू और गांधी अपने पूरे जीवन हिन्दी हिन्दू धर्म की जड़े खोदते रहे।

सनातन धर्म की जय !
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पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी

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