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एक बार एक मौलाना ने कहा था कि’आप ईश्वर,जीव और प्रकृति को अनादि और अनंत मानते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं,कि ईश्वर इस सृष्टि की रचना प्रकृति से करता है।यदि ऐसा मान लिया जाये तो फिर ईश्वर और मनुष्य के कार्यों में कोई विषेश अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता।
यदि आप किसी सुनार को सोना दें तो वह आपके लिए आभूषण तैयार करा देगा।उसी प्रकार यदि बढ़ई को लकड़ी मिल जाये तो वह मेज-कुर्सियां आदि बना देगा।यदि ईश्वर ने भी प्रकृति से सृष्टि की रचना की है,तो केवल इतना ही कह सके हो कि वह एक बड़ा शिल्पी है और हम छोटे।’
मैंने उन्हें जो उत्तर दिया वह निम्नलिखित है:-
(1) कोई भी शिल्पी चाहे वह लोहार हो या सुनार,बढ़ई या हलवाई,बिना औजारों एवं कुछ अन्य वस्तुओं के कोई भी कार्य नहीं कर सकता किन्तु ईश्वर को इनमें से किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती।उदाहरण के लिए गर्भवती देवी के गर्भ में जिस बालक अथवा बालिका के शरीर का निर्माण हो रहा होता है उसमें नाक,कान और मुख के छिद्र बिना औजारों के बनाये जा रहे हैं।
(2) ईश्वर न करे यदि किसी शिल्पी की आंखें फूट जायें या हाथ कट जायें तो वह कोई भी कार्य नहीं कर सकेगा किन्तु ईश्वर निराकार होने के कारण बिना किसी अंग के अपना सारा कार्य सर्वोत्तम रीति से कर रहा है।जिसे देखकर मनुष्य आश्चर्यचकित हो जाता है।
(3) कोई भी शिल्पी अन्धेरे में कार्य नहीं कर सकता किन्तु परमात्मा को प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती,क्योंकि वह स्वयं प्रकाशस्वरुप है और समस्त विश्व को सूर्य एवं चन्द्र द्वारा प्रकाशित कर रहा है।
(4) मनुष्य एक समय में केवल एक ही स्थान पर कार्य कर सकता है,किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण यत्र तत्र सर्वत्र अर्थात् समस्त विश्व में हर समय अपना कार्य करता रहता है।
(5) यदि कार्य अधिक हो तो प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ और सहायकों को रख लेता है।किन्तु ईश्वर सर्वशक्तिमान होने के कारण अपना सारा कार्य अकेला करता है।
(6) प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई शिक्षक हुआ करता है जो उसे कार्य करना सिखलाता है किन्तु ईश्वर को किसी से भी कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती,बल्कि उल्टा जितना ज्ञान हमें संसार में दृष्टिगोचर होता है वह भी ईश्वर का दिया हुआ है।
(7) मनुष्य कुछ देर कार्य करने के पश्चात् थक जाता है।उसे विश्राम करना पड़ता है किन्तु ईश्वर अनादि काल से हर समय अपना कार्य कर रहा है किन्तु थकता नहीं।
इसके अतिरिक्त मैंने उन्हें यह भी कहा कि हम वैदिक धर्मी ईश्वर को इस जगत का निमित्त कारण और प्रकृति को उपादान कारण मानते हैं।यदि हम भी आपके सदृश यह मान लें कि ईश्वर ने ही जीव और प्रकृति को उत्पन्न किया है,तो फिर हमारी भलाई व बुराई,पुण्य और पाप का उत्तरदायी भी भगवान हो जाता है।आप ईश्वर को दयालु और कृपालु मानते हैं।जब ईश्वर के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नहीं था तो उसकी दया और करुणा का पात्र कौन था?
यदि पत्नि नहीं तो पति किसका?यदि संतान नहीं तो पिता किसका?
यदि विद्यार्थी नहीं तो अध्यापक किसका?
कहने का अभिप्राय ये है कि ईश्वर दयालु और कृपालु तब से बना जब से हम और हम उत्पन्न हुए ऐसी अवस्था में ईश्वर के गुण अनादि न रहे।जब गुण अनादि न रहे, तो गुणी अनादि न रहा जो अनादि न रहा तो वह ईश्वर न रहा।
अतः यह बात अति आवश्यक है कि हम ईश्वर,जीव और प्रकृति तीनों को अनादि और अनन्त मानें और साथ ही यह बात भी स्वीकार करें कि सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् प्रलय और प्रलय के पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति होती है।
यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और चलता रहेगा।
इसके विपरित ईश्वर पर सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व और प्रलय के पश्चात् निकम्मा रहने का आक्षेप हो सकता है।उसी प्रकार के कई और आक्षेप भी हो सकते हैं।
मौलाना उत्तर सुनकर चुप हो गये।