आज पश्चिमी जगत के अनेक विद्वान इस बात पर बल देते हैं कि संसार को व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने वाला पश्चिमी जगत है, पर सच यह नहीं है। पश्चिमी जगत का इतिहास उठाकर देखिए , वहां पर लाखों करोड़ों लोगों को मार-मारकर समाप्त किया गया । इसके पीछे व्यक्ति के अधिकारों को छीनने की मनुष्य की अमानवीय भावना ही काम कर रही थी। जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी एक वर्ग ने दूसरे वर्ग के ऊपर हमला कर उसके लाखों निरपराध लोगों को मौत के घाट उतार दिया हो।
वेद को व्यक्ति की स्वतन्त्रता का उद्घोषक कहा जा सकता है। वैदिक काल में राष्ट्रचिन्तक ऋषियों ने वास्तविक प्रजातन्त्र की अवधारणा का सूत्रपात करते हुए पंचायती राज्य व्यवस्था का शुभारम्भ किया था।
ऋ. 10/62/11 में कहा गया है:-
सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा।
यहाँ ऋषि ग्राम प्रधान (ग्रामणी) के प्रजा के प्रति कल्याण भावना से ओत- प्रोत होने की बात कह रहा है। ऋषि का कहना है कि ग्राम प्रधान प्रभूत धन देने वाला सहस्रदा मनु है। उसकी दक्षिणा सूर्य से प्रतिद्वन्द्विता करे। कहने का अभिप्राय ये है कि जिस प्रकार सूर्य सभी लोगों पर बिना किसी भेदभाव के अपनी किरणों को बिखेरता है, उसी प्रकार ग्रामणी प्रत्येक व्यक्ति और ग्रामवासी के प्रति स्नेहासिक्त हो तथा उसके हृदय में किसी के प्रति भी द्वेषभाव ना हो। जैसे सूर्य की किरणें सबके लिए जीवन प्रद हैं, उसी प्रकार ग्राम प्रधान सबके लिए जीवन प्रद हो ।
ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्र प्रधान तक लोक कल्याण की इसी पवित्र भावना में वसुधैव कुटुंबकम , कृण्वंतो विश्वमार्यम् और सर्वे भवंतू सुखिन: …. का उदात्त भाव छुपा हुआ है जो प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक अधिकार तो प्रदान करता ही है राज्य को उसके मौलिक अधिकारों का संरक्षक भी बनाता है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन करने की प्रक्रिया ईसाइयत और इस्लाम की देन है।
शायद किसी भी ग्रामणी या ग्राम प्रधान के रहते हुए जैसे गांव में कोई भी नागरिक नंगा भूखा नहीं रह सकता , वैसे ही देश के राष्ट्रपति के रहते हुए कोई भी देशवासी नंगा भूखा नहीं रह सकता। इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था करते राजा या राष्ट्रपति को हर स्थिति में व्यक्तियों के बीच पूर्ण न्याय करना चाहिए। उनके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित करने के लिए उनमें पारस्परिक बंधुता की भावना को सुनिश्चित करना राजा का दायित्व होता है। राजा या शासक वर्ग वोटों की राजनीति करते हुए आरक्षण, रेवड़ी बांटने या तुष्टीकरण के माध्यम से विभेद उत्पन्न करता है या विभेदकारी नीतियां अपनाता है तो ऐसा राजा या शासन व्यवस्था उत्तम नहीं होती। देश के शासक वर्ग को चाहिए कि देश में समरूपता स्थापित करने के लिए एक प्रकार के कानून, एक प्रकार की विधि व्यवस्था, एक प्रकार के रीति रिवाज ,विवाह आदि संस्कारों के एक प्रकार के नियम लागू हों। जिससे देश में समरूपता स्थापित होकर राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूती प्रदान हो।
शासन की नीतियों का आधार विभिन्नताओं को पोषित करना नहीं है,अपितु राष्ट्रहित में विभिन्नताओं को समेकित करना है।
नेहरु और समान नागरिक संहिता
नेहरू समान नागरिक संहिता को लागू करने के पक्षधर होकर भी विभिन्नताओं को पोषित करने वाले प्रधानमंत्री थे।
शासन के उपरोक्त उदात्त भाव ( जिसे हमारे यहां राष्ट्रधर्म कहा जाता है) से प्रेरित होकर हमारे संविधान में समान नागरिक संहिता की पवित्र भावना का समावेश करने का प्रयास इसलिए किया गया कि संविधान सभा के अनेक सदस्य इस बात पर सहमत थे कि पिछली कई शताब्दियों में भारतीय राज्य व्यवस्था में होती रही उथल-पुथल के चलते तुर्क , मुगल और ब्रिटिश शासकों ने लोगों के बीच विभेदकारी नीतियां अपनाई । जिससे तुष्टीकरण, फूट डालो और राज करो की देशघाती परंपरा देश की शासन व्यवस्था में आरम्भ हो गई। संविधान सभा के अनेक सदस्य इस बात से सहमत थे कि स्वतंत्र भारत में शासन की इस प्रकार की विभेदकारी नीतियों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तो 1930 से समान नागरिक संहिता की बात कर रहे थे। इस सबके उपरांत भी नेहरू एक ऐसे नेता थे जो समान नागरिक संहिता का अपना ही अर्थ निकाल रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि देश में समान नागरिक संहिता सही संदर्भ और सही अर्थों में लागू हो जाए। राजनीति में दक्षिणा के संस्कार को नेहरू ने कभी स्वीकार नहीं किया। उन्हें इस प्रकार का संस्कार या दक्षिणा देने का विचार सांप्रदायिक दिखाई देता था। जिसे वह हिंदू मानसिकता से पूर्वाग्रहग्रस्त मानते थे। नेहरू का झुकाव इस्लाम की ओर था। अतः उनके बारे में कहा जा सकता है कि वह स्वयं सांप्रदायिक थे। क्योंकि हर वह व्यक्ति सांप्रदायिक होता है जो सांप्रदायिक आधार पर लोगों में तुष्टीकरण जैसी बीमारी के आधार पर विभेद पैदा करता है। नेहरू की इस प्रकार की नीति ने समान नागरिक संहिता की भावना को चोटिल किया।
वेद ने ग्राम प्रधान को नरपति की संज्ञा दी थी।
ऋ. 10/107/5 में कहा गया है:-
“तमेवमन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणा मा विवाय।”
अर्थात् “जिसने पहले दक्षिणा आरम्भ की उसे ही मैं लोगों का नरपति मानता हूँ।”
नेहरू भारतीय शासन व्यवस्था के इस सूत्र वाक्य के निकट तक भी नहीं थे। वह नहीं जानते थे कि दक्षिणा का अभिप्राय राष्ट्र की उन्नति के प्रति मन से समर्पित हो जाना है। उन्होंने मंदिरों में होने वाली दक्षिणा के बारे में सुना था। वेद की आत्मिक और मानसिक दक्षिणा के विषय में उन्हें कोई बोध नहीं था। इस्लाम की या ईसाइयत की मान्यताओं को उन्होंने व्यक्ति की व्यक्तिगत पवित्रता के साथ जोड़कर देखा। बस, यही कारण था कि वे समान नागरिक संहिता की संवैधानिक वचनबद्धता के प्रति अपनी ईमानदारी प्रकट नहीं कर पाए। समय आने पर उन्होंने इस्लामिक तुष्टीकरण के सामने समान नागरिक संहिता को बौना करके देखा।
यदि कोई प्रधानमंत्री आर्य समाज की विचारधारा से प्रेरित होकर काम करता तो वह वैदिक चिन्तन से अभिभूत होकर राष्ट्र को वास्तविक समान नागरिक संहिता का बोध कराता। हमारे देश का यह दुर्भाग्य ही रहा कि देश को पहला प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति मिला जो भारतीय संस्कृति से तो दूरी बनाकर रहता ही था, उसे आर्य समाज नाम की पवित्र संस्था से तो बहुत ही अधिक द्वेष भाव था।
डॉ राकेश कुमार आर्य
लेखक की एक क्रांतिकारी संगठन आर्य समाज नामक पुस्तक से