ओ३म् -आर्यसमाज धामावाला, देहरादून का रविवारीय सत्संग- “संसार के पदार्थों में जो सुख होता है वह स्थाई वा भविष्य में हर समय रहने वाला नहीं होता।: आचार्य अनुज शास्त्री”

Screenshot_20240128_194353_Docs

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
आज हम आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के रविवारीय सत्संग में सम्मिलित हुए। समाज में प्रातः 8.30 बजे से आर्यसमाज के पुरोहित श्री पं. विद्यापति शास्त्री जी के पौरोहित्य में यज्ञ हुआ। यज्ञ की समाप्ति के पश्चात पं. विद्यापति जी द्वारा भजन प्रस्तुत किया गया। सामूहिक प्रार्थना भी सम्पन्न हुई। आर्यसमाज में आजकल पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जी रचित ऋषि-जीवन-चरित से पाठ किया जाता है। यह पाठ आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी द्वारा सम्पन्न किया गया। आज का प्रवचन आर्यसमाज के युवा विद्वान, प्रभावशाली वक्ता एवं ऋषि भक्त आचार्य अनुज शास्त्री जी का था। उन्होंने आज कठोपनिषद् पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने श्रोताओं को कहा कि नचिकेता ने यमाचार्य से प्रथम वर के रूप में यह मांगा था कि उनके पिता का क्रोध शान्त हो जाये और वह उसे अपना लें।

आचार्य अनुज शास्त्री जी ने कहा कि मनुष्य को मोक्ष, सुख व आनन्द की प्राप्ति के लिए कुछ विशेष कर्म करने होते हैं। नचिकेता का एक वर यह था कि मनुष्य की आत्मा का जन्म व मृत्यु एवं पुनर्जन्म होता है अथवा नहीं। इस ज्ञान-विज्ञान को नचिकेता ने यमाचार्य जी से विस्तार से समझाने का अनुरोध किया था। 

आचार्य अनुज शास्त्री जी ने कहा कि संसार के पदार्थों में जो सुख व आनन्द होता है वह स्थाई व भविष्य में हर समय रहने वाला नहीं होता। उन्होंने कहा कि संसार के भोगों से जो सुख मिलता है उसकी अवधि सीमित होती है। उसकी अवधि के बाद मनुष्य उन भोगों का आनन्द नहीं ले सकता। आचार्य जी ने यह भी बताया कि सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करने से मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं होती। भोग करने से उन-उन भोगों की प्रवृत्ति में वृद्धि होती है जिससे हमारे शरीर व आत्मा को हानि होती है। उन्होंने बताया कि जब हम किसी इष्ट पदार्थ का भोग करते हैं तो हममें उस पदार्थ का आगे भी भोग करने के प्रति तृष्णा उत्पन्न होती है और यह जीवन के उत्तर काल में भी बनी रहती है। आचार्य जी ने संस्कृत भाषा के प्रसिद्ध वचनों ‘तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा।‘ का उद्घोष कर कहा सुख देने वाले पदार्थों का उपभोग करने से हम जीर्ण होते जाते हैं परन्तु हमारी तृष्णा समाप्त नहीं होती। आचार्य जी ने कहा कि शास्त्रों में विधान है कि मनुष्य को सुखकारी पदार्थों का भोग त्याग की भावना से अल्प एवं आवश्यक मात्रा में करना चाहिये। वित्त अर्थात् धन से मनुष्य की तृप्ति कभी नहीं होती, इसका उल्लेख कर आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य का मन सांसारिक पदार्थों की तृष्णा करने व उन्हें प्राप्त कर लेने पर भी भरता नहीं है। 

आचार्य अनुज शास्त्री जी ने कहा कि मनुष्य को अपने जीवन की वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा करते हुए जीना चाहिये, नई-नई इच्छायें करते हुए इच्छाओं में नहीं जीना चाहिये। आचार्य जी ने उपनिषदों में  बताये गये श्रेय एवं प्रेय मार्गों पर प्रकाश डाला। उन्होंने श्रेय को विद्या तथा प्रेय को अविद्या का मार्ग बताया। आचार्य जी ने कहा कि यमाचार्य जी ने कठोपनिषद् में नचिकेता को श्रेय मार्ग का पथिक, जिज्ञासु व साधक बताया है। उन्होंने कहा कि श्रेय मार्ग आरम्भ में कठिन लगता है परन्तु यही मार्ग बाद में जीवन में आनन्द देने वाला होता है। आचार्य जी ने यह भी बताया कि के मनुष्य यदि ईश्वर से जुड़ेगा तो ऊपर उठेगा और यदि प्रकृृति, भोगों वा सुखों में झुकेगा तो नीचे पतन की ओर गिरेगा। 

आचार्य जी के उपदेश की समाप्ति के पश्चात आर्यसमाज के प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने आचार्य जी के उपदेश की महत्ता पर प्रकाश डाला और उनका धन्यवाद किया। उन्होंने सूचना दी की आगामी 17 व 18 फरवरी, 2024 को स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम संस्था का शताब्दी समारोह आयोजित किया गया है जिसमें आर्यसमाज के विख्यात विद्वान स्वामी सच्चिदानन्द सरस्वती, आचार्य योगेश शास्त्री, डा. धनंजय आर्य, आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी एवं प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री दिनेश पथिक, अमृतसर पधार रहे हैं। प्रधान जी ने सभी श्रोताओं को इष्ट मित्रों सहित आयोजन में सम्मिलित होने का अनुरोध किया। इसके बाद आर्यसमाज के पुरोहित जी ने शान्ति पाठ कराया। प्रसाद वितरण के बाद आर्यसमाज का आज का सत्संग हर्षोल्लास के वातावरण में सम्पन्न हुआ। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001

Comment: