( सैदुल इस्लाम, बीबीसी, 17 दिसम्बर 2021)
मुक्ति संग्राम के दौरान बांग्लादेश में बहुत से हिंदुओं को अपनी जान बचाने के लिये धर्मांतरण को मजबूर होना पड़ा था. जान के डर से ही उन्हें अपने वे दिन मुस्लिम पहचान के साथ बिताने पड़े थे. सचिंद्र चंद्र आइच के परिवार को 1971 में ऐसे ही भयानक अनुभव से गुज़रना पड़ा. अंग्रेज़ी के शिक्षक सचिंद्र को शहर में सभी सचिन सर के नाम से पहचानते थे. उस समय वे मैमनसिंह सिटी कॉलेज में अंग्रेज़ी के शिक्षक थे.
सचिंद्र चंद्र आइच ने बीबीसी बांग्ला को बताया कि 25 मार्च के बाद उनके शहर में भी हिंदुओं और अवामी लीग के सदस्यों की हत्या और उनके घरों में आगज़नी शुरू हो गई. हिंदू समुदाय के सभी सदस्य इससे पीड़ित थे. फिर वे गांवों में चले गये.
“युद्ध की शुरुआत में 31 मार्च को हम सभी शिवरामपुर गांव में चले गये. गांव में काफ़ी दिन रहने के बाद पैसे ख़त्म हो गये. तब अपने मुस्लिम दोस्तों की मदद से मैं शहर लौट आया. मैं मुस्लिम छात्रों के घर पर ठहरा.”
जीवन और नौकरी बचाने के लिये धर्मान्तरण
सिटी कॉलेज में कार्यरत होने के बावजूद हिंदू होने के कारण सचिंद्र वहां नहीं जा पा रहे थे.
” उस समय वहां जो प्रधानाध्यापक थे, उन्होंने कहा कि आप स्कूल में आयेंगे कैसे? जो स्थानीय हैं, जो बिहारी हैं, वे तो हिंदुओं को बर्दाश्त नहीं कर सकते.”
“इसलिये किसी के मजबूर न करने पर भी, हमें अपनी जान और नौकरी बचाने के लिये मजबूरन बड़ी मस्जिद जाकर सपरिवार इस्लाम धर्म अपनाना पड़ा. इसके बाद मैंने नौकरी पर जाना शुरू किया.”
उस समय उन्होंने, उनकी पत्नी, माता-पिता, बहन-सभी ने इस्लाम धर्म अपनाया था.
उनकी बहन कानन सरकार ने बीबीसी बांग्ला को बताया, “धर्म परिवर्तन के बाद भी हमें कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा था. विभिन्न तरह के दबावों के कारण ही हमें अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा. दबाव का मतलब है कि किसी ने सीधे दबाव नहीं डाला, लेकिन आस-पास ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गई थीं कि मजबूर हो कर धर्म परिवर्तन करना पड़ा.”
“हमारे एक रिश्तेदार को पकड़ने के लिये पाकिस्तानियों ने पागलों की तरह उनकी तलाश की थी. उनसे मुलाकात होने पर उन्होंने कहा था कि अगर ज़िंदा रहना चाहते हो तो मुसलमान बन जाओ. मैं भी मुसलमान बन गया हूं.”
“तब हम गांव में थे. बाद में हम गांव से फिर वापस शहर में चले आये. शहर में आने के बाद भी घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे. मेरे बड़े भाई भी अपनी स्कूल की नौकरी पर नहीं जा पा रहे थे. चारों तरफ़ यही बताया जा रहा था कि इस्लामी कार्ड नहीं बनवाने पर घर से नहीं निकल सकते. हम घर के अंदर ही फंसे हुए थे. फिर देखा कि कोई रास्ता नहीं है, कब तक इस तरह क़ैद में रहा जा सकता है?”
”इसके बाद माता-पिता को समझाया. पहले ज़िंदा तो रहें, फिर धर्म का हिसाब-किताब देखा जायेगा. इसके बाद हमने धर्म परिवर्तन किया.”
धर्मांतरण के बाद भी हम पर नज़र रखी जाती थी
कानन सरकार का कहना है कि धर्म परिवर्तन के बाद भी उन लोगों को पूरी तरह शांति नहीं मिली.
“उसके बाद भी ऐसा नहीं है कि हम पूरी तरह शांति से रह पाये थे. तरह-तरह के दबाव पड़ते थे. जैसे कि एक बार ख़बर आई कि हमारे छोटे भाई को पकड़ ले जायेंगे. तब हमने बहुत से लोगों के पास दौड़ धूप की.”
उन्होंने बताया, “रमज़ान के दौरान महिलायें झुंड बनाकर हमारे घर में घुस आती थीं. वे हमारा भोजन, चावल का बर्तन सब उलट-पलट कर देती थीं. कहती थीं- अरे आप लोग तो रोज़ा नहीं रखते.”
विवाहित हिंदू महिलाओं के लिये सिंदूर पहनना बहुत ज़रूरी माना जाता है. लेकिन तब से लेकर जब तक देश आज़ाद नहीं हुआ, उन लोगों का सिंदूर लगाना बंद हो गया था.
सचिंद्र चंद्र आइच ने बताया कि मुसलमान बनने के बाद भी उन्हें अलग-अलग जगहों पर घर बदल कर रहना पड़ा था. उस समय उन्हें विभिन्न मुस्लिम मित्रों के घर में छिपना पड़ता था. सोने के क़ीमती आभूषण उनके घरों में ही छिपा कर रखना पड़ता था.
अपने को मुसलमान साबित करने के लिये मस्जिद में नमाज़ पढ़नी पड़ी.
उस समय सचिंद्र आइच को अक्सर यह साबित करने के लिये मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जाना पड़ता था कि वह मुसलमान हैं. हालांकि उन्हें इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन वह मस्जिद में दूसरों को देख देख कर नमाज़ अदा करते थे.
“पहले दिन उन्होंने मुझे हाथ और पैर धोना सिखाया. मेरे छात्र थे, उन्होंने कहा, ‘सर आप दूसरों को देख-देख कर उसी अनुसार उठ बैठ लिया करें.’ तब हर शुक्रवार को तो मस्जिद जाता ही था, किसी किसी दिन पांच बार भी नमाज़ पढ़ी है.”
उन्होंने बताया, ”रमज़ान के दौरान पहले कुछ दिन रोज़ा रखा. इसके बाद मुझसे हो नहीं पा रहा था. इसलिए जब मैं बाहर जाता था तो हमेशा बिना खाये रहता था.”
मुसलमान के रूप में नौकरी पर जाना शुरू करने के बाद उन्हें पहचान पत्र मिला. शहर के विभिन्न हिस्सों में चौकियों पर अक्सर उन्हें मुस्लिम पहचान का प्रमाण पत्र देना होता था.
उन्होंने बताया, “पंजाबियों के सामने पड़ते ही वे पूछते थे, ‘तू हिंदू है, या मुस्लिम है?’ मैं कहता था, मुस्लिम. तो वे कहते थे, सूरा सुनाओ. मैंने सूरा फ़ातिहा जबानी याद कर रखा था. मैं सूरा सुनाना शुरू कर देता था. तब वे कहते थे, आप जाइये.”
धर्म परिवर्तन की ग्लानि
सचिंद्र आइच ने कहा कि जिस दिन देश आज़ाद हुआ, उस दिन ऐसा लगा मानो हमने अपना धर्म वापस पा लिया.
उन्होंने बताया, ”देश के आज़ाद होते ही, आसपास जो मुस्लिम महिलायें थीं, वे दौड़ती हुई आईं और मेरी पत्नी, मां और बहन के माथे पर सिंदूर लगा दिया. हम फिर हिंदू हो गये.”
कानन सरकार ने बताया, “मैमनसिंह जिस दिन आज़ाद हुआ, उसके अगले दिन हम अपने शहर के घर पर लौट आये. उस दिन हमारे मकान मालिक की पत्नी सिंदूर का डिब्बा लेकर आईं और मेरी मां और मेरे माथे पर सिंदूर लगा दिया.”
“हम जैसे कुछ पल के लिये धर्म परिवर्तन की ग्लानि को भूल गये थे. देश आज़ाद होने के साथ ही हमें अपना धर्म वापस मिल गया था.”
उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म में वापस लौटने के लिये उन लोगों को कोई धार्मिक नियम क़ानून या किसी तरह के प्रायश्चित की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी.
सचिंद्र चंद्र आइच ने कहा, “अगर देश स्वतंत्र नहीं होता, तो शायद हमें अपना अस्तित्व ढूंढे नहीं मिलता.”
(बी बी सी न्यूज़ के पेज़ से साभार)
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