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(इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है ,लेकिन इस विषय पर वैदिक विचार रखना भी जरुरी है )
डॉ डी के गर्ग
भाग-4
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3)प्राण किसे कहते हैं? प्राण उसका नाम है जिससे व्यक्ति का जीवन चलता है, जिसके होने से आत्मा सुख दुःख की अनुभूति करता है, जिसके होने से स्वांस लेता है और छोड़ता है, जिसके होने से प्राणी के शरीर की वृद्धि होती है, जिसके होने से प्राणी चलता है, जिसके होने से व्यक्ति बातचीत करता है। श्रीमान जी! जब पूजनीय पंडित जी मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करते हैं मन्त्रों के द्वारा तब क्या मूर्ति बोलने लग जाता है? क्या प्राणी की तरह मूर्ति भी स्वांस लेता है और छोड़ता है? क्या उसके शरीर की वृद्धि और ह्रास भी होती है? क्या मूर्ति एक दूसरे से वार्तालाप भी करता है? कोई भी लक्षण आपके द्वारा प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति में नहीं घटा है, न घटा था और न भविष्य में घटेगा।
4) परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को समझे :
यजुर्वेद ४०.८ मन्त्र में परमात्मा का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं“वह सर्वत्र व्यापक हैं, वह सब प्रकार से पवित्र हैं, वह कभी शरीर धारण नहीं करता, इसलिए वह अव्रण हैंअर्थात उनमें फोड़े-फुंसी और घाव आदि नहीं हो सकते, वह शरीर न होने से नस नाड़ी के बंधन से भी रहित हैं, वह शुद्ध अर्थात रजोगुण आदि से पृथल हैं, पाप उसे कभी बींध नहीं सकता अर्थात किसी प्रकार के पाप उसे कभी छु भी नहीं सकता, वह कवि अर्थात सब पदार्थों का गहरा क्रांतदर्शी ज्ञान रखने वाला हैं, वह मनीषी अर्थात अत्यंत मेधावी हैं अथवा जीवों के मानों की बातों को भी जानने वाला हैं, वह परिभू अर्थात पापियों का पराभव करने वाला हैं, स्वयंभू हैं अर्थात स्वयंसिद्ध हैं।
सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में उन्होंने मूर्ति पूजा के विषय में लिखा की “वेदों में पाषाण आदि मूर्ति पूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं हैं।”
परमात्मा निराकार हैं, उसका कोई शरीर नहीं हैं, शरीर रहित निराकार परमात्मा की भला कैसे कोई मूर्ति हो सकती हैं?इसलिए मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना नितांत अज्ञानता की बात हैं।
यजुर्वेद ३२.३ – “न तस्य प्रतिमा अस्ति “अर्थात उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं हैं का प्रमाण मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश हैं। वैदिक काल में निराकार ईश्वर की पूजा होती थी जिसे कालांतर में मूर्ति पूजा का स्वरुप दे दिया गया। श्री रामचंद्र जी महाराज और श्री कृष्ण जी महाराज जो उत्तम गुण संपन्न आर्य पुरुष थे उन्हें परमात्मा का अवतार बनाकर उनकी मूर्तियाँ बना ली गयी। ईश्वर जो अविभाजित हैं उनके तीन अंश कर ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथक पृथक कर दिए गए। यह कल्पना भी वेद विरुद्ध हैं। उनकी पृथक पृथक पत्नियों की भी कल्पना कर दी गयी।
वेदों में केवल और केवल एक ही ईश्वर की उपासना का विधान हैं। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाह्स के सप्तम सम्मुलास में प्रश्नोत्तर के रूप में इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं। प्रश्न- वेदों में जो अनेक देवता लिखे हैं, उसका क्या अभिप्राय हैं?
उत्तर- देवता दिव्या गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं, जैसे की पृथ्वी परन्तु इसको कहीं ईश्वर वा उपासनीय नहीं माना हैं।
ऋग्वेद भाष्य मंत्र १.१६४.३९ में यहीं भाव इस प्रकार दिया हैं- उस परमात्मा देव में सब देव अर्थात दिव्य गुण वाले सुर्यादी पद्यार्थ निवास करते हैं, वेदों का स्वाध्याय करके उसी परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. जो लोग उसको न जानते, न मानते और उसका ध्यान नहीं करते , वे नास्तिक मंदगति, सदा दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं।
ऋग्वेद ६.४५.१६ में भी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कहाँ गया हैं की हे उपासक, जो एक ही हैं, उस परम ऐश्वर्या शाली प्रभु की ही स्तुति उपासना करो.ऋग्वेद १०.१२१.१-९ ईश्वर को हिरण्यगर्भ और प्रजापति आदि नामों से पुकारते हुए कहाँ गया हैं की सुखस्वरूप और सुख देने वाले उसी प्रजापति परमात्मा की ही समर्पण भाव से भक्ति करनी चाहिए.स्वामी दयानंद जी मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे। मूर्ति पूजा के विरुद्ध उनका मंतव्य वेदों में मूर्ति पूजा के विरुद्ध आदेश होने के कारण बना।
5) पूजा’ शब्द का वास्तविक भावार्थ भी समझना चाहिए
आचार्य प्रेमभिक्षु जी ने इस पर बहुत सूंदर विचार दिए है। पूजा का अर्थ है चेतन का यथायोग्य सत्कार और जड़ का यथायोग्य उपयोग। सूर्य की पूजा क्या है? सूर्य के प्रकाश से स्वास्थय-लाभ लेना सूर्य के ताप से अपनी फसलें पकाना आदि। हमारे लोग सूर्य को खड़े होकर हाथ जोड़कर पानी देते हैं। कैसा विचित्र पूजन है, यह! जल और अग्नि का पूजन किया वैज्ञानिकों ने, भाप के इंजन तैयार कर लिये और हम सिर्फ उनके आगे हाथ जोड़ते रहे। गौ का पूजन डेनमारक और अमेरिका वालों ने किया। वहाँ की गायें 50-50 किलो दूध देती है। हम गायें पर रोली चावल चढ़ाते रहे और ‘गौ माता की जय’ बोलते रहे। हमारी गायें औसतन 1-2 किलो दूध देती है और गलियों में विष्ठा खाती फिरती हैं। हाँ, सवेरे उठकर किसी गाय को छूकर माथे से लगाना हमने नहीं भूला। पर क्या यही है गौ पूजन? इसी विचित्र गौ पूजन के कारण आज भी रोजाना सैकड़ों गायें राम और कृष्ण की इस पवित्र धरती पर काटी जाती हैं!! गाय करुणा की प्रतिमा है। वह भगवान् की मूक प्रजा-पशु जगत की प्रतिनिधि है। उसके उपकारों के प्रति कृतज्ञता और सेवा-भाव से ही मनुष्य की मनुष्यता है। अत: गौ हत्या बंदी के साथ समस्त वैज्ञानिक साधनों से गौ माता का सम्वर्धन हो। वह दुधारु और आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी बने―यह है सच्चा गौ पूजन।
गंगा का पूजन किया उन लोगों ने, जिन्होंने गंगा में से नहरें निकालकर बिजली बनाई, खेतों की सिंचाई की। और ये हमारे भाई गंगा में डुबकी लगाकर ‘हर-हर गंगे’ का नारा लगाकर और गंगा में नहाने से पापों का छूटना मानकर ही गंगा पूजन मान बैठे।
6) अंतिम प्रश्न :- धर्म तो श्रद्धा और भावना का विषय है फिर उसमें तर्क करने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर -यस्तर्केणानुसन्धते स धर्मम् वेद नेतरः ।। ( मनुस्मृति 12/106)
जो तर्क के द्वारा अनुसंधान करता है उसी को धर्म का तत्व बोधित होता है.
धर्म का ज्ञान सत्य जाने बिना प्राप्त नहीं होता।मानो तो देव ,ना मानो तो पत्थर ।ऐसा कहने वालो से एक बार पूछो की कोई आपको दस का नोट सौ रुपए मान कर देता हूं ।आप दस के नोट को सौ रुपए मान कर रख लो।क्या आप कहा मानकर वह दस रुपए का नोट सौ रुपए का मान कर रख लोगे ? कदापि नहीं मानोगे।आप उसे दस का ही नोट मानेंगे ।इसलिए कोई भी चीज केवल मान लेने से नहीं बल्कि सत्य मानने और होने से ही होती हैं।जैसे पत्थर की मूर्ति को भगवान मान लेने से वह भगवान नहीं कहलाएगी।वह पत्थर की मूर्ति जड़ ही कहलाएगी ।चेतन नहीं।और ईश्वर का स्वरूप चेतन है ।मूर्ति में ईश्वर अवश्य है क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है, परन्तु पूजा और उपासना ईश्वर की वहाँ हो सकती है जहां आत्मा और पमात्मा दोनों ही विराजमान हो।मूर्ति में ईश्वर तो है परन्तु आत्मा नहीं है क्यूँकि मूर्ति तो जड़ पदार्थ है ।मूर्ति प्रकृति के अंश से बनी है ।लेकिन आपके हृदय -मन मंदिर में आत्मा भी है और परमातमा भी है ।अत:अपने मन में आत्मा द्वारा योग विधि द्वारा हृदय में बसने वाले परमात्मा की पूजा करो।
किसी पदार्थ में श्रद्धा तो उस पदार्ध को यथार्थरूप में जानने पर ही होती है । तो यदि तर्क से धर्म के शुद्ध विज्ञान को न जाना तो श्रद्धा किस पर करोगे ? कटी पतंग की भांती इधर उधर उड़ना ठीक नहीं है ।
सत्य जानकर उस पर विश्वास करना ही श्रद्धा कहलाती है और सत्य जाने बिना विश्वास कर लेने को अंधश्रद्धा कहते है ।लोगो ने धर्म व ईश्वर के सम्बन्ध में अंधश्रद्धा को श्रद्धा समझ कर मानना प्रारम्भ कर दिया है ।
जैसे मुसलमानो की कब्रो , साईं जैसे पीरो, मजारो को भगवान् की तरह पूजना अंधश्रद्धा व उनकी सच्चाई जानकार की ये सभी तो दुस्ट मुसलमानो की कब्रे है , उन कब्रो का तिरस्कार करना ही श्रद्धा है । हनुमान व गणेश को बन्दर हाथी , शिवजी को भंगेडी, कृष्ण जी को रसिया मान लेना अंधश्रद्धा , इन्हें महापुरुष मानना श्रद्धा है।हर जगह बिना विचारे माथा टेकना अंधश्रद्धा सोच विचार कर परख कर विद्वानों का सत्कार करना श्रद्धा। अंधश्रद्धा व वेदज्ञान को जान परख कर धर्म का आधार मानना श्रद्धा है ।
श्रद्धा और विश्वास के साथ सत्य का होना नितांत आवश्यक हैं ।क्यूँकि ज्ञान -विज्ञान से रहित आस्था ही अंधविश्वास कहलाती हैं।और धर्म को अनुसन्धान बुद्धि विवेक से जाने ।
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