प्राण प्रतिष्ठा –एक विवेचन*

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(इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है ,लेकिन इस विषय पर वैदिक विचार रखना भी जरुरी है )

डॉ डी के गर्ग

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भाग 1
प्राण प्रतिष्ठा को दो भागो में विभाजित करके समझने का प्रयास करते है –
1. प्राण 2. प्रतिष्ठा

प्राण: अक्सर सुनते आये है की अमुक व्यक्ति के प्राण निकल गए और मृत्यु हो गयी ,सैनिक ने युद्ध में प्राण गवा दिए ,सबको अपने प्राण प्यारे है ,प्राणों से भी प्यारा आदि। लेकिंन प्राण है क्या ?
जब कोरोना महामारी आयी तब मालूम हुआ कि प्रत्येक जीवधारी के लिए प्राणो की कीमत क्या है , शरीर में प्राण क्या है ? कोई कहता था की वायु का आगमन ही प्राण है , इसके लिए पंप द्वारा भी हवा से स्वांस देने का प्रयास किया ,परन्तु सफल नहीं हुआ। इसलिए अस्पतालों में नकली स्वांस /ऑक्सीज़न मरीज को दी जाती है। इसका अर्थ तो ये हुआ की प्राण एक साधारण वायु नहीं है जो केवल स्वांस के द्वारा ईश्वर प्रदान करता है और ये वायु पूरे शरीर को ऊर्जा देकर सञ्चालन करती है। और जिसके अभाव में मृत्यु हो जाती है यानि प्राण चले जाती है।
प्राण क्या है , प्राण किसे कहते है ?
हमने बहुत बार अपने जीवन में व्यवहारिक रूपसे “प्राण” शब्द का उपयोग किया है, परंतु हमे प्राण की वास्तविकता के बारे मे शायद ही पता हो , अथवा तो हम भ्रांतिसे यह मानते है की प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है , परंतु यह सत्य नही है , प्राण वायु का एक रूप है , जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते है, जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे “प्राण” कहते है , वायु का पर्यायवाचि नाम ही प्राण है ।
प्राण वायु : यह वायु निरन्‍तर मुख में रहती है और इस प्रकार यह प्राणों को धारण करती है, जीवन प्रदान करती है और जीव को जीवित रखती है। इसी वायु की सहायता से खाया पिया अन्‍दर जाता है। जब यह वायु कुपित होती है तो हिचकी, श्‍वांस और इन अंगों से संबंधित विकार होते हैं।यह अंदर की ओर बढ़ने वाली महत्वपूर्ण ऊर्जा है जो श्वसन और ग्रहण को नियंत्रित करती है, जो हमें हवा और भोजन से लेकर छापों और विचारों तक सब कुछ ग्रहण करने की अनुमति देती है। प्राण वायु फेफड़ों और हृदय के क्षेत्र में सबसे अधिक सक्रिय है। यह प्रेरक ऊर्जा, गति, प्रेरणा और जीवन शक्ति प्रदान करता है।
मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले वायु में रज गुण प्रदान होने से वह चंचल , गतिशील और अद्रश्य है । पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् , पित्त कफ में वायु बलिष्ठ है , शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ , नेत्र – श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों का संपादन करते है . वह अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म छिद्रों में प्रविष्टित हो जाता है । प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते है ।

प्राण से ही भोजन का पाचन , रस , रक्त , माँस , मेद , अस्थि , मज्जा , वीर्य , रज , ओज , आदि धातुओं का निर्माण , फल्गु ( व्यर्थ ) पदार्थो का शरीर से बाहर निकलना , उठना , बैठना , चलना , बोलना , चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व् सूक्ष्म क्रियाएँ होती है . प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव ( अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि ) शिथिल व रुग्ण हो जाते है . प्राण के बलवान्हो ने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल , पराक्रम आते है और पुरुषार्थ , साहस , उत्साह , धैर्य ,आशा , प्रसन्नता , तप , क्षमा आदि की प्रवृति होती है .

शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु
होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है . इसलिए हमें
प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निंद्रा , ब्रह्मचर्य
, प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए .
परमपिता परमात्मा द्वारा निर्मित १६ कलाओं में एक कला प्राण भी है . ईश्वर इस प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है . ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है , प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश कर जाता है तथा ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर से निकलता है , प्राण भी उसके साथ निकल जाता है . श्रुष्टि की आदि में परमात्मा ने सभी जीवो को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे जीवात्मा प्रकृति से
सयुक्त होकर शरीर धारण करता है । सजीव प्राणी नाक से श्वास लेता है , तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु का दश विभाग हो जाता है । शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम हो जाते है ।

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