भारतीय स्वातंत्र्य में आर्यसमाज का योगदान

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दैनिक वीर अर्जुन दिल्ली 9.4.61 में प्रकाशित श्री दीवान अलखधारी जी का लेख, पृ. 9 –

-आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री, हिसार-द्रष्टव्य

कालान्तर में महर्षि के देशभक्ति से भरे हुए विचारों से भारत का बच्चा-बच्चा जग गया। इस कारण वायसराय लॉर्ड नॉर्थ ब्रुक को लन्दन हाउस में सिफारिश करनी पड़ी कि अब हमें भारत को छोड़ देना चाहिए। जॉर्ज पंचम ने भी इसके लिये सहमति दे दी। उनके इस परामर्श पर भारत से ब्रिटिश राज्य हटा लेने का प्रस्ताव पारित हो गया। इसी कारण ब्रिटिश-प्रशंसा में राष्ट्रीय गीत आज तक भारत में गाया जाता है- ‘जन गण मन…. भारतभाग्य विधाता” असली भाग्यविधाता तो महर्षि दयानन्द थे जिन्हें हम आज ‘राष्ट्रपितामह’ कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

असहयोग आन्दोलन का बीज-विदेशी राज्य पर महर्षि दयानन्द को कभी विश्वास न था। भारत की सम्पदा को विदेशी लूट रहे थे। भारतीयों के प्रति प्रायः न्याय में पक्षपात दिखता था। तभी तो परोपकारिणी सभा के स्वीकारनामे में भी महर्षि लिखते हैं- “जहाँ तक हो सके, न्यायप्राप्ति के लिए सरकारी अदालत का दरवाजा न खटखटाया जाए। बस असहयोग आन्दोलन का बीज महर्षि ने यहीं बो दिया जिसका प्रभाव कालान्तर में दिखा।

वायसराय लॉर्ड नोर्थ ब्रुक से मेल- 16 दिसम्बर, 1872 महर्षि से राजा ज्योतीन्द्र इयानन्द कलकता कानन/वन/बाग में वह मार्च 1873 ई० तक वैदिक के प्रसिद्ध प्रमोद कानन-गौरव का वहाँ प्रचार-प्रसार करते रहे। नगर के बड़े पदों पर आसीन ऑफिसर, राज-परिवार और प्रतिष्ठित जन महर्षि के विचार सुनने आया करते थे। उसी क्रम में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड नोर्थ बुक महर्षि के विचारों से प्रभावित होकर एक दिन स्वयं महर्षि दयानन्द से मिले और काफी समय तक सम्मानपूर्वक वार्तालाप किया। तभी वायसराय ने महर्षि से निवेदन किया कि “देखो हमारे राज्य में कितना सुख एवं न्याय है कि आप जैसे लोगों को बेखटक दूसरों के विचारों का खण्डन करते हैं, किसी से भी भय वा खतरा नहीं है, अतः आप प्रतिदिन ईश्वर से भारत में हमारे राज्य की चिरकालपर्यन्त स्थिरता के लिए प्रार्थना कर दिया करें।”

महर्षि का उत्तर-

उस समय दिया गया महर्षि दयानन्द का उत्तर निश्चय ही स्वराष्ट्र-प्रेम का परिचायक ही नहीं, अपितु समस्त भारतीयों के अन्दर स्वदेश के लिए एक अमिट प्रेम गंगा बहाने में सक्षम है। निर्भीक संन्यासी तथा भारत के गौरव महर्षि दयानन्द ने भारत में स्थापित ब्रिटिश सत्ता के सर्वोच्च पदाधिकारी उस वायसराय को तपाक से कहा- “राजन्! मैं तो प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर अपने परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि शीघ्रतातिशीघ्र यह राज्य भारत से उठ जाए, मैं तो शीघ्र ही वह दिन देखना चाहता हूँ जबकि भारत का शासनसूत्र हम भारतीयों के हाथ में हो।”

वायसराय को महर्षि के ऐसे निर्भयता तथा वीरतायुक्त उत्तर की उम्मीद न थी। स्वामी जी का उत्तर सुनकर वह चकित रह गया। उस बायसराय ने इण्डिया ऑफिस को भेजे गए एक पत्र में यह लिखा कि इस ‘विद्रोही फकीर पर कड़ी नजर रखी जाए।’

स्वामी जी के पत्र से उदयपुर के समाचार-राजा दुर्गाप्रसाद जी, रईस फर्रूखाबाद को स्वामी जी ने ४ मार्च, सन १८४८ है। इस आर वित्तौड़गढ़ में है। आगामी ठहरेंगे। उदयपुर का वृत्तान्त सुनो। गुरुवार के राजस्वात श्रीमान महाराणा जी की ओर से सेवा उत्तम रीति से हीती रही। किसी (किसी दिन को कर गुरुवार के दिन राजस्थान शाहपुरा मेवाड़ में जाकर यथारुचि वहां आनन्द में रहे। नित्यमति आधा घण्टे तक मुझसे मिलकर प्रेमपूर्वक सत्संग किया करते थे। केवल सुनते ही मात्र नही है। (शा) उसका धारण और आचरण भी करते थे । छः शास्त्रों का मुख्य-मुख्य विषय, मनुस्मृति के राजधर्मविषयक तीनों से किया व विदुर प्रजागर आदि के उपदेश के योग्य श्लोक, थोड़ा-सा व्याकरण का विषय और थोड़ी अन्वय की सील अभयम् ने मुझ से पढ़ी और राजधर्म में तत्पर थे और विशेष कर अब पूर्णरीति से हुए हैं। वेश्या आदि का नृत्य दर्शन आरि है सो निर्मूल कर दिया (सर्वथा त्याग दिया)। स्वीकारपत्र जिसको वसीयतनामा कहते हैं वह उदयपुर में श्रीमानों से स्वीकृर स्वमुद्रायुक्त स्वहस्ताक्षर सुव्यवस्थित करके उस लिखी हुई सभा के उदयपुराधीश सभापति हुए। उसका विशेष समाचार तुमको छपने पर विदित होगा। एक मान्यपत्र मुझको दिया एक है और रुपया १२०० कलदार वेदभाष्य के सहायतार्थ और दुशाला और एक साधारण दुशाला और सौ कलदार रामानन्द ब्रह्मचारी को तथा ५०० कलदार फिरोजपुर अनाथालय को और १०० रुपया अन्य इसके अतिरिक्त अनाथालय के स्कूल की कसीदा काढ़ने वाली लड़कियों को पुरस्कार दिया। वैदिकधर्म की ओर प्रथम से ही रुचि थी, अब विशेषतया हो गई। जैसे श्रीमान् आर्यकुलदिवाकर सुशीलता, शीतलता कृतज्ञता, सुसभ्यता, प्रसन्नता, ज्ञानता आदि शुभ गुण कर्म स्वभाव युक्त मैंने देखे वैसे बहुत (ही कम) विरले होंगे। अब हम इस समय चित्तौड़ में हैं।” (४ मार्च, सन् १८८३, फाल्गुन बदि १०, संवत् १९३९ ।) – दयानन्द सरस्वती ।

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